मदन मोहन दानिश
ग़ज़ल 19
अशआर 10
चित्र शायरी 2
है इंतिज़ार मुक़द्दर तो इंतिज़ार करो पर अपने दिल की फ़ज़ा को भी ख़ुश-गवार करो तुम्हारे पीछे लगी हैं उदासियाँ कब से किसी पड़ाव पे रुक कर इन्हें शिकार करो हमारे ख़्वाबों का दर खटखटाती रहती हैं तुम अपनी यादों को समझाओ होशियार करो भली लगेगी यही ज़िंदगी अगर उस में ख़याल-ओ-ख़्वाब की दुनिया को भी शुमार करो भरोसा बा'द में कर लेना सारी दुनिया पर तुम अपने आप पे तो पहले ए'तिबार करो
आधी आग और आधा पानी हम दोनों जलती-बुझती एक कहानी हम दोनों मंदिर मस्जिद गिरिजा-घर और गुरुद्वारा लफ़्ज़ कई हैं एक म'आनी हम दोनों रूप बदल कर नाम बदल कर आते हैं फ़ानी हो कर भी ला-फ़ानी हम दोनों ज्ञानी ध्यानी चतुर सियानी दुनिया में जीते हैं अपनी नादानी हम दोनों आधा आधा बाँट के जीते रहते हैं रौनक़ हो या हो वीरानी हम दोनों नज़र लगे ना अपनी जगमग दुनिया को करते रहते हैं निगरानी हम दोनों ख़्वाबों का इक नगर बसा लेते हैं रोज़ और बन जाते हैं सैलानी हम दोनों तू सावन की शोख़ घटा में प्यासा बन चल करते हैं कुछ मन-मानी हम दोनों इक-दूजे को रोज़ सुनाते हैं 'दानिश' अपनी अपनी राम-कहानी हम दोनों