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काविश बद्री

1927

काविश बद्री

ग़ज़ल 18

अशआर 12

एक बोसा होंट पर फैला तबस्सुम बन गया

जो हरारत थी मिरी उस के बदन में गई

अब वो अहबाब ज़िंदा हैं रस्म-उल-ख़त वहाँ

रूठ कर उर्दू तो देहली से दकन में गई

जवाब देने की मोहलत मिल सकी हम को

वो पल में लाख सवालात कर के जाता है

अज़-सर-ए-नौ फ़िक्र का आग़ाज़ करना चाहिए

बे-पर-ओ-बाल सही परवाज़ करना चाहिए

माहौल सब का एक है आँखें वही नज़रें वही

सब से अलग राहें मिरी सब से जुदा मंज़र मिरा

पुस्तकें 14

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