अमजद इस्लाम अमजद के शेर
जिस तरफ़ तू है उधर होंगी सभी की नज़रें
ईद के चाँद का दीदार बहाना ही सही
कहाँ आ के रुकने थे रास्ते कहाँ मोड़ था उसे भूल जा
वो जो मिल गया उसे याद रख जो नहीं मिला उसे भूल जा
चेहरे पे मिरे ज़ुल्फ़ को फैलाओ किसी दिन
क्या रोज़ गरजते हो बरस जाओ किसी दिन
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बड़े सुकून से डूबे थे डूबने वाले
जो साहिलों पे खड़े थे बहुत पुकारे भी
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क्या हो जाता है इन हँसते जीते जागते लोगों को
बैठे बैठे क्यूँ ये ख़ुद से बातें करने लगते हैं
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लिखा था एक तख़्ती पर कोई भी फूल मत तोड़े मगर आँधी तो अन-पढ़ थी
सो जब वो बाग़ से गुज़री कोई उखड़ा कोई टूटा ख़िज़ाँ के आख़िरी दिन थे
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उस के लहजे में बर्फ़ थी लेकिन
छू के देखा तो हाथ जलने लगे
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जहाँ हो प्यार ग़लत-फ़हमियाँ भी होती हैं
सो बात बात पे यूँ दिल बुरा नहीं करते
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जैसे बारिश से धुले सेहन-ए-गुलिस्ताँ 'अमजद'
आँख जब ख़ुश्क हुई और भी चेहरा चमका
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वो तिरे नसीब की बारिशें किसी और छत पे बरस गईं
दिल-ए-बे-ख़बर मिरी बात सुन उसे भूल जा उसे भूल जा
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किस क़दर यादें उभर आई हैं तेरे नाम से
एक पत्थर फेंकने से पड़ गए कितने भँवर
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सवाल ये है कि आपस में हम मिलें कैसे
हमेशा साथ तो चलते हैं दो किनारे भी
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टैग : सवाल
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हर समुंदर का एक साहिल है
हिज्र की रात का किनारा नहीं
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गुज़रें जो मेरे घर से तो रुक जाएँ सितारे
इस तरह मिरी रात को चमकाओ किसी दिन
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जैसे रेल की हर खिड़की की अपनी अपनी दुनिया है
कुछ मंज़र तो बन नहीं पाते कुछ पीछे रह जाते हैं
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एक नज़र देखा था उस ने आगे याद नहीं
खुल जाती है दरिया की औक़ात समुंदर में
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हर बात जानते हुए दिल मानता न था
हम जाने ए'तिबार के किस मरहले में थे
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हादिसा भी होने में वक़्त कुछ तो लेता है
बख़्त के बिगड़ने में देर कुछ तो लगती है
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बे-समर पेड़ों को चूमेंगे सबा के सब्ज़ लब
देख लेना ये ख़िज़ाँ बे-दस्त-ओ-पा रह जाएगी
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ज़िंदगी दर्द भी दवा भी थी
हम-सफ़र भी गुरेज़-पा भी थी
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उस ने आहिस्ता से जब पुकारा मुझे
झुक के तकने लगा हर सितारा मुझे
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कुछ ऐसी बे-यक़ीनी थी फ़ज़ा में
जो अपने थे वो बेगाने लगे हैं
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कमाल-ए-हुस्न है हुस्न-ए-कमाल से बाहर
अज़ल का रंग है जैसे मिसाल से बाहर
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पेड़ों की तरह हुस्न की बारिश में नहा लूँ
बादल की तरह झूम के घर आओ किसी दिन
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सुना है कानों के कच्चे हो तुम बहुत सो हम
तुम्हारे शहर में सब से बना के रखते हैं
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माना नज़र के सामने है बे-शुमार धुँद
है देखना कि धुँद के इस पार कौन है
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साए ढलने चराग़ जलने लगे
लोग अपने घरों को चलने लगे
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टैग : शाम
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ये जो हासिल हमें हर शय की फ़रावानी है
ये भी तो अपनी जगह एक परेशानी है
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फिर आज कैसे कटेगी पहाड़ जैसी रात
गुज़र गया है यही बात सोचते हुए दिन
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तिरे फ़िराक़ की सदियाँ तिरे विसाल के पल
शुमार-ए-उम्र में ये माह ओ साल से कुछ हैं
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बात तो कुछ भी नहीं थीं लेकिन उस का एक दम
हाथ को होंटों पे रख कर रोकना अच्छा लगा
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तुम्ही ने कौन सी अच्छाई की है
चलो माना कि मैं अच्छा नहीं था
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हमें हमारी अनाएँ तबाह कर देंगी
मुकालमे का अगर सिलसिला नहीं करते
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बेवफ़ा तो वो ख़ैर था 'अमजद'
लेकिन उस में कहीं वफ़ा भी थी
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यूँ तो हर रात चमकते हैं सितारे लेकिन
वस्ल की रात बहुत सुब्ह का तारा चमका
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दूरियाँ सिमटने में देर कुछ तो लगती है
रंजिशों के मिटने में देर कुछ तो लगती है
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तुम ही ने पाँव न रक्खा वगरना वस्ल की शब
ज़मीं पे हम ने सितारे बिछा के रक्खे थे
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सदियाँ जिन में ज़िंदा हों वो सच भी मरने लगते हैं
धूप आँखों तक आ जाए तो ख़्वाब बिखरने लगते हैं
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आँख भी अपनी सराब-आलूद है
और इस दरिया में पानी भी नहीं
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ये जो साए से भटकते हैं हमारे इर्द-गिर्द
छू के उन को देखिए तो वाहिमा कोई नहीं
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क़दम उठा है तो पाँव तले ज़मीं ही नहीं
सफ़र का रंज हमें ख़्वाहिश-ए-सफ़र से हुआ
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फ़ज़ा में तैरते रहते हैं नक़्श से क्या क्या
मुझे तलाश न करती हों ये बलाएँ कहीं
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बिछड़ के तुझ से न जी पाए मुख़्तसर ये है
इस एक बात से निकली है दास्ताँ क्या क्या
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दर्द का रस्ता है या है साअ'त-ए-रोज़-ए-हिसाब
सैकड़ों लोगों को रोका एक भी ठहरा नहीं
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न उस का अंत है कोई न इस्तिआ'रा है
ये दास्तान है हिज्र-ओ-विसाल से बाहर
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इतने ख़दशे नहीं हैं रस्तों में
जिस क़दर ख़्वाहिश-ए-सफ़र में हैं
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दाम-ए-ख़ुशबू में गिरफ़्तार सबा है कब से
लफ़्ज़ इज़हार की उलझन में पड़ा है कब से
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आँखों में कैसे तन गई दीवार-ए-बे-हिसी
सीनों में घुट के रह गई आवाज़ किस तरह
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शहर-ए-सुख़न में ऐसा कुछ कर इज़्ज़त बन जाए
सब कुछ मिट्टी हो जाता है इज़्ज़त रहती है
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तीर आया था जिधर ये मिरे शहर के लोग
कितने सादा हैं कि मरहम भी वहीं देखते हैं
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