अभिषेक शुक्ला के शेर
मैं सोचता हूँ बहुत ज़िंदगी के बारे में
ये ज़िंदगी भी मुझे सोच कर न रह जाए
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तेरी आँखों के लिए इतनी सज़ा काफ़ी है
आज की रात मुझे ख़्वाब में रोता हुआ देख
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मैं यूँ ही नहीं अपनी हिफ़ाज़त में लगा हूँ
मुझ में कहीं लगता है कि रक्खा हुआ तू है
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मैं ने जब ख़ुद की तरफ़ ग़ौर से देखा तो खुला
मुझ को इक मेरे सिवा कोई परेशानी नहीं
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कभी कभी तो ये वहशत भी हम पे गुज़री है
कि दिल के साथ ही देखा है डूबना शब का
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वो एक दिन जो तुझे सोचने में गुज़रा था
तमाम उम्र उसी दिन की तर्जुमानी है
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उस से कहना कि धुआँ देखने लाइक़ होगा
आग पहने हुए मैं जाऊँगा पानी की तरफ़
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सफ़र के बाद भी ज़ौक़-ए-सफ़र न रह जाए
ख़याल ओ ख़्वाब में अब के भी घर न रह जाए
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वहाँ पहले ही आवाज़ें बहुत थीं
सो मैं ने चुप कराया ख़ामुशी को
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मैं चोट कर तो रहा हूँ हवा के माथे पर
मज़ा तो जब था कि कोई निशान भी पड़ता
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ये जो दुनिया है इसे इतनी इजाज़त कब है
हम पे अपनी ही किसी बात का ग़ुस्सा उतरा
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उस से कहना कि धुआँ देखने लाएक़ होगा
आग पहने हुए जाउँगा मैं पानी की तरफ़
मक़ाम-ए-वस्ल तो अर्ज़-ओ-समा के बीच में है
मैं इस ज़मीन से निकलूँ तू आसमाँ से निकल
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हमीं जहान के पीछे पड़े रहें कब तक
हमारे पीछे कभी ये जहान भी पड़ता
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ये इम्तियाज़ ज़रूरी है अब इबादत में
वही दुआ जो नज़र कर रही है लब भी करें
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चलते हुए मुझ में कहीं ठहरा हुआ तू है
रस्ता नहीं मंज़िल नहीं अच्छा हुआ तू है
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अब इस के बा'द मिरी क़ुव्वत-ए-नुमू जाने
मैं लौट आया हूँ मिट्टी में गाड़ कर ख़ुद को
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जाने क्या कुछ हो छुपा तुम में मोहब्बत के सिवा
हम तसल्ली के लिए फिर से खगालेंगे तुम्हें
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तमाम शहर पे इक ख़ामुशी मुसल्लत है
अब ऐसा कर कि किसी दिन मिरी ज़बाँ से निकल
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ये जो हम तख़्लीक़-ए-जहान-ए-नौ में लगे हैं पागल हैं
दूर से हम को देखने वाले हाथ बटा हम लोगों का
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शब भर इक आवाज़ बनाई सुब्ह हुई तो चीख़ पड़े
रोज़ का इक मामूल है अब तो ख़्वाब-ज़दा हम लोगों का
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न हुआ मैं तो वो किस दर्जा परेशाँ होगा
मेरे होने की ख़बर जिस ने उड़ाई है बहुत
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हम वहशी थे वहशत में भी घर से कभी बाहर न रहे
जंगल जंगल फिर भी कितना नाम हुआ हम लोगों का
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