तिरे बदन की ख़लाओं में आँख खुलती है
हवा के जिस्म से जब जब लिपट के सोता हूँ
तुझ से जुदा हुए तो ये हो जाएँगे जुदा
बाक़ी कहाँ रहेंगे ये साए तिरे बग़ैर
वो कूदते उछलते रंगीन पैरहन थे
मासूम क़हक़हों में उड़ता गुलाल देखा
मैं ख़्वाब देख रहा हूँ कि वो पुकारता है
और अपने जिस्म से बाहर निकल रहा हूँ मैं
तेरा ख़याल ख़्वाब ख़्वाब ख़ल्वत-ए-जाँ की आब-ओ-ताब
जिस्म-ए-जमील-ओ-नौजवाँ शाम-ब-ख़ैर शब-ब-ख़ैर
रास आती नहीं अब मेरे लहू को कोई ख़ाक
ऐसा इस जिस्म का पाबंद-ए-सलासिल हुआ मैं