लोकतंत्र पर शेर
वह सियासी निज़ाम जिसमें
सत्ता की बागडोर अवाम के हाथों में हो जम्हूरियत है। अपनी बेशुमार ख़ूबियों के सबब लोकतंत्र को पसंद करने वालों की तादाद बहुत ज़ियादा है। इसे नापसंद करने वालों के अपने तर्क हैं। शायर भी हमारे समाज का सोचने वाला फ़र्द होने के नाते जम्हूरियत के बारे में अपनी राय ज़ाहिर करता रहा है। पेश है जम्हूरियत शायरी में ऐसे ही ख़यालात का शायराना इज़हारः
जम्हूरियत इक तर्ज़-ए-हुकूमत है कि जिस में
बंदों को गिना करते हैं तौला नहीं करते
जम्हूरियत के बीच फँसी अक़्लियत था दिल
मौक़ा जिसे जिधर से मिला वार कर दिया
यही जम्हूरियत का नक़्स है जो तख्त-ए-शाही पर
कभी मक्कार बैठे हैं कभी ग़द्दार बैठे हैं
कभी जम्हूरियत यहाँ आए
यही 'जालिब' हमारी हसरत है
जम्हूरियत का दर्स अगर चाहते हैं आप
कोई भी साया-दार शजर देख लीजिए
झुकाना सीखना पड़ता है सर लोगों के क़दमों में
यूँही जम्हूरियत में हाथ सरदारी नहीं आती
नाम इस का आमरियत हो कि हो जम्हूरियत
मुंसलिक फ़िरऔनियत मसनद से तब थी अब भी है
सुनने में आ रहे हैं मसर्रत के वाक़िआत
जम्हूरियत का हुस्न नुमायाँ है आज-कल
जम्हूरियत की लाश पे ताक़त है ख़ंदा-ज़न
इस बरहना निज़ाम में हर आदमी की ख़ैर
दुहाई दे के वो जम्हूरियत की
निज़ाम-ए-ख़्वाब रुस्वा कर रहा है
जम्हूरियत भी तुरफ़ा-तमाशा का किस क़दर
लौह-ओ-क़लम की जान यद-ए-अहरमन में है