बदलते वक़्त ने बदले मिज़ाज भी कैसे
तिरी अदा भी गई मेरा बाँकपन भी गया
सर पर हवा-ए-ज़ुल्म चले सौ जतन के साथ
अपनी कुलाह कज है उसी बाँकपन के साथ
करो कज जबीं पे सर-ए-कफ़न मिरे क़ातिलों को गुमाँ न हो
कि ग़ुरूर-ए-इश्क़ का बाँकपन पस-ए-मर्ग हम ने भुला दिया
आशिक़ का बाँकपन न गया बाद-ए-मर्ग भी
तख़्ते पे ग़ुस्ल के जो लिटाया अकड़ गया
हमारी गुफ़्तुगू सब से जुदा है
हमारे सब सुख़न हैं बाँकपन के
कभी न हुस्न-ओ-मोहब्बत में बन सकी 'वाहिद'
वो अपने नाज़ में हम अपने बाँकपन में रहे
सीना फ़िगार चाक-गरेबाँ कफ़न-ब-दोश
आए हैं तेरी बज़्म में इस बाँकपन से हम