चोर
स्टोरीलाइन
यह एक क़र्ज़़दार शराबी व्यक्ति की कहानी है। वह शराब के नशे में होता है, जब उसे अपने क़र्ज़़ और उनके वसूलने वालों का ख़याल आता है। वह सोचता है कि उसे अगर कहीं से पैसे मिल जाएँ तो वह अपना क़र्ज़़ उतार दे। हालाँकि किसी ज़माने में वह उच्च श्रेणी का तकनीशियन था और अब वह क़र्ज़़दार था। जब क़र्ज़़ उतारने की उसे कोई सूरत नज़र नहीं आई तो उसने चोरी करने की सोची। चोरी के इरादे से वह दो घरों में गया भी, मगर वहाँ भी उसके साथ कुछ ऐसा हुआ कि वह चाहकर भी चोरी नहीं कर सका। फिर एक दिन उसे एक व्यक्ति पचास हज़ार रूपये दे गया। उन रूपयों से जब उसने अपने एक क़र्ज़दार को कुछ रूपये देने चाहे तो तकिये के नीचे से रूपयों का लिफ़ाफ़ा ग़ायब था।
मुझे बेशुमार लोगों का क़र्ज़ अदा करना था और ये सब शराबनोशी की बदौलत था। रात को जब मैं सोने के लिए चारपाई पर लेटता तो मेरा हर क़र्ज़ ख़्वाह मेरे सिरहाने मौजूद होता... कहते हैं कि शराबी का ज़मीर मुर्दा होजाता है, लेकिन मैं आपको यक़ीन दिलाता हूँ कि मेरे साथ मेरे ज़मीर का मुआमला कुछ और ही था। वो हर रोज़ मुझे सरज़निश करता और मैं ख़फ़ीफ़ हो के रह जाता।
वाक़ई मैंने बीसियों आदमियों से क़र्ज़ लिया था। मैंने एक रात सोने से पहले बल्कि यूं कहिए कि सोने की नाकाम कोशिश करने से पहले हिसाब लगाया तो क़रीब क़रीब डेढ़ हज़ार रुपए मेरे ज़िम्मे निकले। मैं बहुत परेशान हुआ, मैंने सोचा ये डेढ़ हज़ार रुपए कैसे अदा होंगे। बीस-पच्चीस रोज़ाना की आमदन है लेकिन वो मेरी शराब के लिए बमुश्किल काफ़ी होते हैं।
आप यूं समझिए कि हर रोज़ की एक बोतल... थर्ड क्लास रम की... दाम मुलाहिज़ा हों... सोलह रुपए... सोलह रुपए तो एक तरफ़ रहे, उनके हासिल करने में कम-अज़-कम तीन रुपए टांगे पर सर्फ़ होजाते थे। काम होता नहीं था, बस पेशगी पर गुज़ारा था। लेकिन जब पेशगी देने वाले तंग आगए तो उन्होंने मेरी शक्ल देखते ही कोई न कोई बहाना तराश लिया या इससे पेशतर कि मैं उनसे मिलूं कहीं ग़ायब होगए।
आख़िर कब तक वो मुझे पेशगी देते रहते... लेकिन मैं मायूस न होता और ख़ुदा पर भरोसा रख कर किसी न किसी हीले से दस पंद्रह रुपए उधार लेने में कामयाब होजाता।
मगर ये सिलसिला कब तक जारी रह सकता था। लोग मेरी इज़्ज़त करते थे मगर अब वो मेरी शक्ल देखते ही भाग जाते थे... सबको अफ़सोस था कि इतना अच्छा मकैनिक तबाह हो रहा है।
इसमें कोई शक नहीं कि मैं बहुत अच्छा मकैनिक था। मुझे कोई बिगड़ी मशीन दे दी जाती तो मैं उसको सरसरी तौर पर देखने के बाद यूं चुटकियों में ठीक कर देता। लेकिन जहां तक मैं समझता हूँ मेरी ये ज़ेहानत सिर्फ़ शराब मिलने की उम्मीद पर क़ायम थी, इसलिए कि मैं पहले तय कर लिया करता था कि अगर काम ठीक होगया तो वो मुझे इतने रुपए अदा कर देंगे जिनसे मेरे दो रोज़ की शराब चल सके।
वो लोग ख़ुश थे। मुझे वो तीन रोज़ की शराब के दाम अदा कर देते। इसलिए कि जो काम मैं कर देता वो किसी और से नहीं हो सकता था।
लोग मुझे लूट रहे थे... मेरी ज़ेहानत-ओ-ज़कावत पर मेरी इजाज़त से डाके डाल रहे थे और लुत्फ़ ये है कि मैं समझता था कि मैं उन्हें लूट रहा हूँ, उनकी जेबों पर हाथ साफ़ कर रहा हूँ। असल में मुझे अपनी सलाहियतों की कोई क़दर न थी। मैं समझता था कि मैकेनिज़्म बिल्कुल ऐसी है जैसे खाना खाना या शराब पीना।
मैंने जब भी कोई काम हाथ में लिया मुझे कोफ़्त महसूस नहीं हुई। अलबत्ता इतनी बात ज़रूर थी कि जब शाम के छः बजने लगते तो मेरी तबीयत बेचैन हो जाती। काम मुकम्मल हो चुका होता मगर मैं एक दो पेच ग़ायब कर देता ताकि दूसरे रोज़ भी आमदन का सिलसिला क़ायम रहे... ये शराब हरामज़ादी कितनी बुरी चीज़ है कि आदमी को बेईमान भी बना देती है।
मैं क़रीब क़रीब हर रोज़ काम करता था। मेरी मांग बहुत ज़्यादा थी इसलिए कि मुझ ऐसा कारीगर मुल्क भर में नायाब था... तार बाजा और राग बोझा वाला हिसाब था। मैं मशीन देखते ही समझ जाता था कि उसमें क्या क़ुसूर है।
मैं आपसे सच अर्ज़ करता हूँ। मशीनरी कितनी ही बिगड़ी हुई क्यों न हो उसको ठीक करने में ज़्यादा से ज़्यादा एक हफ़्ता लगना चाहिए। लेकिन अगर उसमें नए पुर्ज़ों की ज़रूरत हो और आसानी से दस्तयाब न हो रहे हों तो उसके मुतअल्लिक़ कुछ नहीं कहा जा सकता।
मैं बिला नाग़ा शराब पीता था और सोते वक़्त बिला नाग़ा अपने क़र्ज़ के मुतअल्लिक़ सोचता था, जो मुझे मुख़्तलिफ़ आदमियों को अदा करना था। ये एक बहुत बड़ा अज़ाब था। पीने के बावजूद इज़्तिराब के बाइस मुझे नींद न आती... दिमाग़ में सैंकड़ों स्कीमें आती थीं।
बस मेरी ये ख़्वाहिश थी कि कहीं से दस हज़ार रुपये आजाऐं तो मेरी जान में जान आए... डेढ़ हज़ार रुपया क़र्ज़ का फ़िलफ़ौर अदा कर दूँ। एक टैक्सी लूँ और हर क़र्ज़-ख़्वाह के पास जाकर माज़रत तलब करूं और जेब से रुपये निकाल कर उनको दे दूँ, जो रुपये बाक़ी बचें उनसे एक सैकेण्ड हैंड मोटर ख़रीद लूं और शराब पीना छोड़ दूँ।
फिर ये ख़याल आता कि नहीं दस हज़ार से काम नहीं चलेगा... कम अज़ कम पच्चास हज़ार होने चाहिऐं। मैं सोचने लगता कि अगर इतने रुपये आजाऐं, जो यक़ीनन आने चाहिऐं तो सबसे पहले मैं एक हज़ार नादार लोगों में तक़सीम कर दूँगा... ऐसे लोगों में जो रुपया लेकर कुछ कारोबार कर सकें।
बाक़ी रहे उनचास हज़ार...उस रक़म में से मैंने दस हज़ार अपनी बीवी को देने का इरादा किया था। मैंने सोचा था कि फिक्स्ड डिपोज़िट होना चाहिए... ग्यारह हज़ार हुए। बाक़ी रहे उनतालिस हज़ार, मेरे लिए बहुत काफ़ी थे।
मैंने सोचा ये मेरी ज़्यादती है, चुनांचे मैंने बीवी का हिस्सा दोगुना कर दिया, यानी बीस हज़ार...अब बचे उन्तीस हज़ार... मैंने सोचा कि पंद्रह हज़ार अपनी बेवा बहन को दे दूँगा। अब मेरे पास चौदह हज़ार रहे। उनमें से आप समझिए कि दो हज़ार क़र्ज़ के निकल गए। बाक़ी बचे बारह हज़ार... एक हज़ार रूपये की
अच्छी शराब आनी चाहिए...लेकिन मैंने फ़ौरन थू कर दिया और ये सोचा कि पहाड़ पर चला जाऊंगा और कम अज़ कम छः महीने रहूँगा ताकि सेहत दुरुस्त होजाए। शराब के बजाय दूध पिया करूंगा।
बस ऐसे ही ख़यालात में दिन-रात गुज़र रहे थे...पच्चास हज़ार कहाँ से आयेंगे, ये मुझे मालूम नहीं था... दो-तीन स्कीमें ज़ेहन में थीं। ‘शम्मा’ दिल्ली के मुअम्मे हल करूं और पहला इनाम हासिल कर लूँ... डर्बी की लॉटरी का टिकट ख़रीद लूँ... चोरी करूं और बड़ी सफ़ाई से।
मैं फ़ैसला न कर सका कि मुझे कौन सा क़दम उठाना चाहिए। बहरहाल ये तय था कि मुझे पच्चास हज़ार रूपे हासिल करना हैं...यूँ मिलें या वूँ मिलें।
स्कीमें सोच सोच कर मेरा दिमाग़ चकरा गया...रात को नींद नहीं आती थी जो बहुत बड़ा अज़ाब था। क़र्ज़ख़्वाह बेचारे तक़ाज़ा नहीं करते थे लेकिन जब उनकी शक्ल देखता तो नदामत के मारे पसीना-पसीना हो जाता। बा'ज़ औक़ात तो मेरा सांस रुकने लगता और मेरा जी चाहता कि ख़ुदकुशी कर लूँ और इस अज़ाब से नजात पाऊँ।
मुझे मालूम नहीं कैसे और कब मैंने तहय्या कर लिया कि चोरी करूंगा... मुझे ये मालूम नहीं कि मुझे कैसे मालूम हुआ कि... मुहल्ले में एक बेवा औरत रहती है जिसके पास बेअंदाज़ा दौलत है। अकेली रहती है... मैं वहां रात के दो बजे पहुंचा। ये मुझे पहले ही मालूम हो चुका था वो दूसरी मंज़िल पर रहती है...नीचे पठान का पहरा था। मैंने सोचा कोई और तरकीब सोचनी चाहिए ऊपर जाने के लिए।
मैं अभी सोच ही रहा था कि मैंने ख़ुद को उस पारसी लेडी के फ़्लैट के अंदर पाया... मेरा ख़याल है कि मैं पाइप के ज़रिये ऊपर चढ़ गया था। टार्च मेरे पास थी... उसकी रोशनी में मैंने इधर-उधर देखा। एक बहुत बड़ा सेफ था।
मैंने अपनी ज़िंदगी में कभी सेफ खोला था न बंद किया था लेकिन उस वक़्त जाने मुझे कहाँ से हिदायत मिली कि मैंने एक मामूली तार से उसे खोल डाला। अंदर ज़ेवर ही ज़ेवर थे। बहुत बेशक़ीमत... मैंने सब समेटे और मक्के-मदीने वाले ज़र्द रूमाल में बांध लिये।
पच्चास-साठ हज़ार रुपये का माल होगा... मैंने कहा ठीक है इतना ही चाहिए था। कि अचानक दूसरे कमरे से एक बुढ़िया पारसी औरत नमूदार हुई। उसका चेहरा झुर्रियों से भरा हुआ था... मुझे देख कर पोपली सी मुस्कुराहट उसके होंटों पर नमूदार हुई।
मैं बहुत हैरान हुआ कि ये माजरा क्या है... मैंने अपनी जेब से भरा हुआ पिस्तौल निकाल कर तान लिया... उसकी पोपली मुस्कुराहट उसके होंटों पर और ज़्यादा फैल गई। उसने मुझे बड़े प्यार से पूछा, “आप यहां कैसे आए?”
मैंने सीधा सा जवाब दिया, “चोरी करने।”
“ओह!” बुढ़िया के चेहरे की झुर्रियां मुस्कराने लगीं। “तो बैठो... मेरे घर में तो नक़दी की सूरत में सिर्फ़ डेढ़ रुपया है... तुमने ज़ेवर चुराया है लेकिन मुझे अफ़सोस है कि तुम पकड़े जाओगे क्योंकि इन ज़ेवरों को सिर्फ़ कोई बड़ा जौहरी ही ले सकता है...और हर बड़ा जौहरी इन्हें पहचानता है...”
ये कह कर वो कुर्सी पर बैठ गई... मैं बहुत परेशान था कि या इलाही ये सिलसिला क्या है। मैंने चोरी की है और बड़ी बी मुस्कुरा मुस्कुरा कर मुझसे बातें कर रही है... क्यों?
लेकिन फ़ौरन इस क्यों का मतलब समझ में आगया, जब माता जी ने आगे बढ़ कर मेरे पिस्तौल की परवा न करते हुए मेरे होंटों का बोसा ले लिया और अपनी बांहें मेरी गर्दन में डाल दीं... उस वक़्त ख़ुदा की क़सम मेरा जी चाहा कि गठड़ी एक तरफ़ फेंकूं और वहां से भाग जाऊं। मगर वो तस्मा पा औरत निकली उसकी गिरिफ़्त इतनी मज़बूत थी कि मैं मुतलक़न हिल जुल न सका... असल में मेरे हर रग-ओ-रेशे में एक अजीब-ओ-ग़रीब क़िस्म का ख़ौफ़ सराएत कर गया था। मैं उसे डायन समझने लगा था जो मेरा कलेजा निकाल कर खाना चाहती थी।
मेरी ज़िंदगी में किसी औरत का दख़ल नहीं था। मैं ग़ैर शादीशुदा था। मैंने अपनी ज़िंदगी के तीस बरसों में किसी औरत की तरफ़ आँख उठा कर भी नहीं देखा था। मगर पहली रात जब कि मैं चोरी करने के लिए निकला तो मुझे ये फफा कुटनी मिल गई जिसने मुझसे इश्क़ करना शुरू कर दिया।
आपकी जान की क़सम मेरे होश-ओ-हवास ग़ायब होगए... वो बहुत ही करीह-उल-मंज़र थी, मैंने उससे हाथ जोड़ कर कहा, “माता जी, मुझे बख़्शो... ये पड़े हैं आपके ज़ेवर... मुझे इजाज़त दीजिए।”
उसने तहक्कुमाना लहजे में कहा, “तुम नहीं जा सकते... तुम्हारा पिस्तौल मेरे पास है... अगर तुमने ज़रा सी भी जुंबिश की तो डिज़ कर दूँगी... या टेलीफ़ोन करके पुलिस को इत्तिला दे दूँगी कि वो आकर तुम्हें गिरफ़्तार करले... लेकिन जान-ए-मन मैं ऐसा नहीं करूंगी... मुझे तुमसे मुहब्बत होगई है... मैं अभी तक कुंवारी रही हूँ...अब तुम यहां से नहीं जा सकते।”
ये सुन कर क़रीब था कि मैं बेहोश होजाऊं कि टन-टन शुरू हुई। दूर कोई क्लाक सुबह के पाँच बजने की इत्तिला दे रहा था। मैंने बड़ी बी की ठोढ़ी पकड़ी और उसके मुरझाए हुए होंटों का बोसा लेकर झूट बोलते हुए कहा, “मैंने अपनी ज़िंदगी में सैंकड़ों औरतें देखी हैं लेकिन ख़ुदा वाहिद शाहिद है के तुम ऐसी औरत से मेरा कभी वास्ता नहीं पड़ा। तुम किसी भी मर्द के लिए नेमित-ए-ग़ैर-मुतरक़्क़बा हो। मुझे अफ़सोस है कि मैंने अपनी ज़िंदगी की पहली चोरी तुम्हारे मकान से शुरू की। ये ज़ेवर पड़े हैं। मैं कल आऊँगा बशर्ते कि तुम वादा करो कि मकान में और कोई नहीं होगा।”
बुढ़िया ये सुन कर बहुत ख़ुश हुई, “ज़रूर आओ, तुम अगर चाहोगे तो घर में एक मच्छर तक भी नहीं होगा जो तुम्हारे कानों को तकलीफ़ दे। मुझे अफ़सोस है कि घर में सिर्फ़ एक रुपया और आठ आने थे, कल तुम आओगे तो मैं तुम्हारे लिए बीस-पच्चीस हज़ार बंक से निकलवा लूंगी... ये लो अपना पिस्तौल।”
मैंने अपना पिस्तौल लिया और वहां से दुम दबा कर भागा। पहला वार ख़ाली गया था... मैंने सोचा कहीं और कोशिश करनी चाहिए। क़र्ज़ अदा करने हैं और जो मैंने प्लान बनाया है उसकी तकमील भी होना चाहिए।
चुनांचे मैंने एक जगह और कोशिश की। सर्दियों के दिन थे सुबह के छः बजने वाले थे... ये ऐसा वक़्त होता है जब सब गहरी नींद सो रहे होते हैं। मुझे एक मकान का पता था कि उसका जो मालिक है बड़ा मालदार है... बहुत कंजूस है... अपना रुपया बैंक में नहीं रखता... घर में रखता है। मैंने सोचा इसके हाँ चलना चाहिए।
मैं वहां किन मुश्किलों से अंदर दाख़िल हुआ मैं बयान नहीं कर सकता... बहरहाल पहुंच गया। साहिब-ए-ख़ाना जो माशा-अल्लाह जवान थे, सो रहे थे। मैंने उनके सिरहाने से चाबियां निकालीं और अलमारियां खोलना शुरू कर दीं।
एक अलमारी में काग़ज़ात थे और कुछ फ़्रैंच लेदर। मेरी समझ में न आया कि ये शख़्स जो कुँवारा है फ़्रैंच लेदर कहाँ इस्तिमाल करता है...दूसरी अलमारी में कपड़े थे। तीसरी बिल्कुल ख़ाली थी, मालूम नहीं इसमें ताला क्यों पड़ा हुआ था। और कोई अलमारी नहीं थी।
मैंने तमाम मकान की तलाशी ली लेकिन मुझे एक पैसा भी नज़र न आया... मैंने सोचा इस शख़्स ने ज़रूर अपनी दौलत कहीं दबा रखी होगी... चुनांचे मैंने उसके सीने पर भरा हुआ पिस्तौल रख कर उसे जगाया।
वो ऐसा चौंका और बिदका कि मेरा पिस्तौल फ़र्श पर जा पड़ा। मैंने एक दम पिस्तौल उठाया और उससे कहा, “मैं चोर हूँ... यहां चोरी करने आया हूँ... लेकिन तुम्हारी तीन अलमारियों से मुझे एक दमड़ी भी नहीं मिली। हालाँकि मैंने सुना था कि तुम बड़े मालदार आदमी हो।”
वो शख़्स जिसका नाम मुझे अब याद नहीं, मुस्कुराया... अंगड़ाई लेकर उठा और मुझसे कहने लगा, “यार तुम चोर हो तो तुमने मुझे पहले इत्तिला दी होती... मुझे चोरों से बहुत प्यार है... यहां जो भी आता है वो ख़ुद को बड़ा शरीफ़ आदमी कहता है हालाँकि वो अव़्वल दर्जे का काला चोर होता है... मगर तुम चोर हो... तुमने अपने आपको छुपाया नहीं है। मैं तुमसे मिल कर बहुत ख़ुश हुआ हूँ।”
ये कह कर उसने मुझसे हाथ मिलाया। उसके बाद रेफ्रीजरेटर खोला। मैं समझा शायद मेरी तवाज़ो शर्बत वग़ैरा से करेगा... लेकिन उसने मुझे बुलाया और खुले हुए रेफ्रीजरेटर के पास ले जाकर कहा, “दोस्त मैं अपना सारा रुपया इसमें रखता हूँ। ये संदूकची देखते हो... इसमें क़रीब-क़रीब एक लाख रुपया पड़ा है, तुम्हें कितना चाहिए?”
उसने संदूकची बाहर निकाली जो यख़-बस्ता थी। उसे खोला। अन्दर सब्ज़ रंग के नोटों की गड्डियां पड़ी थीं। एक गड्डी निकाल कर उसने मेरे हाथ में थमा दी और कहा, बस इतने काफ़ी होंगे... दस हज़ार हैं।
मेरी समझ में न आया कि उसे क्या जवाब दूँ। मैं तो चोरी करने आया था... मैंने गड्डी उसको वापस दी और कहा, “साहिब! मुझे कुछ नहीं चाहिए... मुझे माफ़ी दीजिए... फिर कभी हाज़िर हूँगा।”
मैं वहां से आप समझिए कि दुम दबा कर भागा घर पहुंचा तो सूरज निकल चुका था... मैंने सोचा कि चोरी का इरादा तर्क कर देना चाहिए। दो जगह कोशिश की मगर कामयाब न हुआ। दूसरी रात को कोशिश करता तो कामयाबी यक़ीनी नहीं थी... लेकिन क़र्ज़ बदस्तूर अपनी जगह पर मौजूद था जो मुझे बहुत तंग कर रहा था... हलक़ में यूं समझिए कि एक फांस सी अटक गई थी।
मैंने बिल-आख़िर ये इरादा कर लिया कि जब अच्छी तरह सो चुकूंगा तो उठकर ख़ुदकुशी कर लूँगा।
सो रहा था कि दरवाज़े पर दस्तक हुई... मैं उठा... दरवाज़ा खोला, एक बुज़ुर्ग आदमी खड़े थे। मैंने उनको आदाब अर्ज़ किया। उन्होंने मुझसे फ़रमाया, “लिफ़ाफ़ा देना था, इसलिए आपको तकलीफ़ दी... माफ़ फ़रमाइएगा, आप सो रहे थे।”
मैंने उससे लिफ़ाफ़ा लिया... वो सलाम कर के चले गए। मैंने दरवाज़ बंद किया, लिफ़ाफ़ा काफ़ी वज़नी था। मैंने उसे खोला और देखा कि सौ-सौ रुपये के बेशुमार नोट हैं। गिने तो पच्चास हज़ार निकले। एक मुख़्तसर सा रुक्क़ा था, जिसमें लिखा था कि “आप के ये रुपये मुझे बहुत देर पहले अदा करने थे... अफ़सोस है कि मैं अब अदा करने के क़ाबिल हुआ हूँ।”
मैंने बहुत ग़ौर किया कि ये साहब कौन हो सकते हैं जिन्होंने मुझसे क़र्ज़ लिया... सोचते-सोचते मैंने आख़िर सोचा कि हो सकता है किसी ने मुझसे क़र्ज़ लिया हो जो मुझे याद न रहा हो।
बीस हज़ार अपनी बीवी को... पंद्रह हज़ार अपनी बेवा बहन को,दो हज़ार क़र्ज़ के, बाक़ी बचे तेरह हज़ार... एक हज़ार मैंने अच्छी शराब के लिए रख लिए। पहाड़ पर जाने और दूध पीने का ख़याल मैंने छोड़ दिया।
दरवाज़े पर फिर दस्तक हुई... उठ कर बाहर गया। दरवाज़ा खोला तो मेरा एक क़र्ज़ख़्वाह खड़ा था। उसने मुझसे पाँच सौ रुपए लेना थे। मैं लपक कर अंदर गया... तकिए के नीचे नोटों का लिफ़ाफ़ा देखा मगर वहां कुछ मौजूद ही नहीं था।
- पुस्तक : باقیات منٹو
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