बाँझ
स्टोरीलाइन
आत्मकथात्मक शैली में लिखी गई कहानी। बंबई के अपोलो-बंदर पर टहलते हुए एक दिन उस शख्स से मुलाकात हुई। मुलाक़ात के दौरान ही मोहब्बत पर गुफ़्तुगू होने लगी है। आप चाहे किसी से भी मोहब्बत कीजिए, मोहब्बत मोहब्बत ही होती है। वह किसी बच्चे की तरह पैदा होती है और हमल की तरह गिर भी जाती है। यानी पैदा होने से पहले ही मर भी सकती है। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो चाहकर भी मोहब्बत नहीं कर पाते हैं और ऐसे लोग बाँझ होते हैं।
मेरी और उसकी मुलाक़ात आज से ठीक दो बरस पहले अपोलोबंदर पर हुई। शाम का वक़्त था, सूरज की आख़िरी किरनें समुंदर की उन दराज़ लहरों के पीछे ग़ायब हो चुकी थी जो साहिल के बेंच पर बैठ कर देखने से मोटे कपड़े की तहें मालूम होती थीं। मैं गेट आफ़ इंडिया के उस तरफ़ पहला बेंच छोड़ कर जिस पर एक आदमी चम्पी वाले से अपने सर की मालिश करा रहा था, दूसरे बेंच पर बैठा था और हद्द-ए-नज़र तक फैले हुए समुंदर को देख रहा था।
दूर बहुत दूर जहां समुंदर और आसमान घुल मिल रहे थे। बड़ी बड़ी लहरें आहिस्ता आहिस्ता उठ रही थीं और ऐसा मालूम होता था कि बहुत बड़ा गदले रंग का क़ालीन है जिसे इधर से उधर समेटा जा रहा है।
साहिल के सब क़ुमक़ुमे रोशन थे जिनका अक्स किनारे के लर्ज़ां पानी पर कपकपाती हुई मोटी लकीरों की सूरत में जगह जगह रेंग रहा था। मेरे पास पथरीली दीवार के नीचे कई कश्तियों के लिपटे हुए बादबान और बांस हौले-हौले हरकत कर रहे थे। समुंदर की लहरें और तमाशाइयों की आवाज़ एक गुनगुनाहट बन कर फ़िज़ा में घुली हुई थी। कभी कभी किसी आने या जाने वाली मोटर के हॉर्न की आवाज़ बुलंद होती और यूं मालूम होता कि बड़ी दिलचस्प कहानी सुनने के दौरान में किसी ने ज़ोर से “हूँ” की है।
ऐसे माहौल में सिगरेट पीने का बहुत मज़ा आता है। मैंने जेब में हाथ डाल कर सिगरेट की डिबिया निकाली, मगर माचिस न मिली। जाने कहाँ भूल आया था। सिगरेट की डिबिया वापस जेब में रखने ही वाला था कि पास से किसी ने कहा, “माचिस लीजिएगा।”
मैंने मुड़ कर देखा। बेंच के पीछे एक नौजवान खड़ा था। यूं तो बंबई के आम बाशिंदों का रंग ज़र्द होता है। लेकिन उसका चेहरा ख़ौफ़नाक तौर पर ज़र्द था। मैंने उसका शुक्रिया अदा किया, “आप की बड़ी इनायत है।”
उसने जवाब दिया, “आप सिगरेट सुलगा लीजिए, मुझे जाना है।”
मुझे ऐसा महसूस हुआ कि उसने झूट बोला है क्योंकि उसके लहजे से इस बात का पता चलता था कि उसे कोई जल्दी नहीं है और न उसे कहीं जाना है। आप कहेंगे कि लहजे से ऐसी बातों का किस तरह पता चल सकता है। लेकिन हक़ीक़त ये है कि मुझे उस वक़्त ऐसा महसूस हुआ, चुनांचे मैंने एक बार फिर कहा, “ऐसी जल्दी क्या है... तशरीफ़ रखिए।” और ये कह कर मैंने सिगरेट की डिबिया उसकी तरफ़ बढ़ा दी, “शौक़ फ़रमाईए।”
उसने सिगरेट की छाप की तरफ़ देखा और जवाब दिया, “शुक्रिया, मैं सिर्फ़ ब्रांड पिया करता हूँ।”
आप मानें न मानें मगर मैं क़समिया कहता हूँ कि इस बार उसने फिर झूट बोला। इस मर्तबा फिर उसके लहजे ने चुगु़ली खाई और मुझे उससे दिलचस्पी पैदा हो गई। इसलिए कि मैंने अपने दिल में क़सद कर लिया था कि उसे ज़रूर अपने पास बिठाऊंगा और अपना सिगरेट पिलवाऊँगा। मेरे ख़याल के मुताबिक़ इसमें मुश्किल की कोई बात ही न थी क्योंकि उसके दो जुमलों ही ने मुझे बता दिया था कि वो अपने आप को धोका दे रहा है।
उसका जी चाहता है कि मेरे पास बैठे और सिगरेट पिए। लेकिन ब-यक-वक़्त उसके दिल में ये ख़याल भी पैदा हुआ था कि मेरे पास न बैठे और मेरा सिगरेट न पिए, चुनांचे हाँ और न का ये तसादुम उसके लहजे में साफ़ तौर पर मुझे नज़र आया था। आप यक़ीन जानिए कि उसका वजूद भी होने और न होने के बीच में लटका हुआ था।
उसका चेहरा जैसा कि मैं बयान कर चुका हूँ बेहद पीला था। उस पर उसकी नाक आँखों और मुँह के ख़ुतूत इस क़दर मद्धम थे जैसे किसी ने तस्वीर बनाई है और उसको पानी से धो डाला है। कभी कभी उसकी तरफ़ देखते देखते उसके होंट उभर से आते लेकिन फिर राख में लिपटी हुई चिंगारी के मानिंद सो जाते। उसके चेहरे के दूसरे ख़ुतूत का भी यही हाल था।
आँखें गदले पानी की दो बड़ी बड़ी बूंदें थीं जिन पर उसकी छोरी पलकें झुकी हुई थीं। बाल काले थे मगर उनकी स्याही जले हुए काग़ज़ के मानिंद थी जिनमें भोसलापन होता है। क़रीब से देखने पर उसकी नाक का सही नक़्शा मालूम हो सकता था। मगर दूर से देखने पर वो बिल्कुल चिपटी मालूम होती थी क्योंकि जैसा कि मैं इससे पेशतर बयान कर चुका हूँ, उसके चेहरे के ख़ुतूत बिल्कुल ही मद्धम थे।
उसका क़द आम लोगों जितना था। यानी न छोटा न बड़ा। अलबत्ता जब वो एक ख़ास अंदाज़ से यानी अपनी कमर की हड्डी को ढीला छोड़ के खड़ा होता तो उसके क़द में नुमायां फ़र्क़ पैदा हो जाता। इस तरह जब कि वो एक दम खड़ा होता तो उसका क़द जिस्म के मुक़ाबले में बहुत बड़ा दिखाई देता।
कपड़े उसके ख़स्ता हालत में थे लेकिन मैले नहीं थे। कोट की आस्तीनों के आख़िरी हिस्से कसरत-ए-इस्तेमाल के बाइस घिस गए थे और फूसड़े निकल आए थे। कालर खुला था और क़मीज़ बस एक और धुलाई की मार थी। मगर इन कपड़ों में भी वो ख़ुद को एक बावक़ार अंदाज़ में पेश करने की सई कर रहा था।
मैं सई कर रहा था! इसलिए कहा, क्योंकि जब मैंने उसकी तरफ़ देखा था तो उसके सारे वजूद में बेचैनी की लहर दौड़ गई थी और मुझे ऐसा मालूम हुआ था कि वो अपने आपको मेरी निगाहों से ओझल रखना चाहता है।
मैं उठ खड़ा हुआ और सिगरेट सुलगा कर उसकी तरफ़ डिबिया बढ़ा दी, “शौक़ फ़रमाईए।”
ये मैंने कुछ इस तरीक़े से कहा और फ़ौरन माचिस सुलगा कर इस अंदाज़ से पेश की कि वो सब कुछ भूल गया। उसने डिबिया में से सिगरेट निकाल कर मुँह में दबा लिया और उसे सुलगा कर पीना भी शुरू कर दिया। लेकिन एका एकी उसे अपनी ग़लती का एहसास हुआ और मुँह में से सिगरेट निकाल कर मस्नूई खांसी के आसार हलक़ में पैदा करते हुए उसने कहा, “केवेन्डर मुझे रास नहीं आते, इनका तंबाकू बहुत तेज़ है। मेरे गले में फ़ौरन ख़राशें पैदा हो जाती हैं।”
मैंने उससे पूछा, “आप कौन से सिगरेट पसंद करते हैं?”
उसने तुतलाकर जवाब दिया, “मैं... मैं... दरअसल सिगरेट बहुत कम पीता हूँ क्योंकि डाक्टर अरोकर ने मना कर रखा है। वैसे में थ्री फ़ालू पीता हूँ जिनका तंबाकू तेज़ नहीं होता।”
उसने जिस डाक्टर का नाम लिया, वो बंबई का बहुत बड़ा डाक्टर है। उसकी फ़ीस दस रुपये है और जिन सिगरेटों का उसने हवाला दिया, उसके मुतअल्लिक़ आपको भी मालूम होगा कि बहुत महंगे दामों पर मिलते हैं। उसने एक ही सांस में दो झूट बोले, जो मुझे हज़म न हुए, मगर मैं ख़ामोश रहा।
हालाँकि सच अर्ज़ करता हूँ, उस वक़्त मेरे दिल में यही ख़्वाहिश चुटकियां ले रही थी कि उसका ग़लाफ़ उतार दूं और उसकी दरोग़गोई को बेनकाब कर दूं और उसे कुछ इस तरह शर्मिंदा करूं कि वो मुझसे माफ़ी मांगे। मगर मैंने जब उसकी तरफ़ देखा तो इस फ़ैसले पर पहुंचा कि उसने जो कुछ कहा है, उसका जुज़्व बन कर रह गया है। झूट बोल कर चेहरे पर जो एक सुर्ख़ी सी दौड़ जाया करती है, मुझे नज़र न आई बल्कि मैंने ये देखा कि वो जो कुछ कह चुका है, उसको हक़ीक़त समझता है।
उसके झूट में इस क़दर इख़्लास था यानी उसने इतने पुरख़ुलूस तरीक़े पर झूट बोला था कि उसकी मीज़ान-ए-एहसास में हल्की सी जुंबिश भी पैदा नहीं हुई थी। ख़ैर इस क़िस्से को छोड़िए। ऐसी बारीकियां मैं आप को बताने लगूं तो सफ़हों के सफ़े काले हो जाऐंगे और अफ़साना बहुत ख़ुश्क हो जाएगा।
थोड़ी सी रस्मी गुफ़्तुगू के बाद मैंने उसको राह पर लगाया और एक और सिगरेट पेश करके समुंदर के दिलफ़रेब मंज़र की बात छेड़ दी। चूँकि अफ़्सानानिगार हूँ। इसलिए कुछ इस दिलचस्प तरीक़े पर उसे समुंदर, अपोलोबन्दर और वहां आने-जाने वाले तमाशाइयों के बारे में चंद बातें सुनाईं कि छः सिगरेट पीने पर भी उसके हलक़ में ख़रख़राहट पैदा न हुई।
उसने मेरा नाम पूछा। मैंने बताया तो वो उठ खड़ा हुआ और कहने लगा, “आप मिस्टर... हैं... मैं आपके कई अफ़साने पढ़ चुका हूँ। मुझे... मुझे मालूम न था कि आप... हैं... मुझे आप से मिल कर बहुत ख़ुशी हुई है, वल्लाह बहुत ख़ुशी हुई है।”
मैंने उसका शुक्रिया अदा करना चाहा। मगर उसने अपनी बात शुरू कर दी... “हाँ ख़ूब याद आया, अभी हाल ही में आपका एक अफ़साना मैंने पढ़ा है... उनवान भूल गया हूँ... उसमें आपने एक लड़की पेश की है जो किसी मर्द से मोहब्बत करती थी। मगर वो उसे धोका दे गया।” उसी लड़की से एक और मर्द भी मोहब्बत करता था जो अफ़साना सुनाता है।
“जब उसको लड़की की उफ़्ताद का पता चलता है तो वो उससे मिलता है और उससे कहता है, ज़िंदा रहो... उन चंद घड़ियों की याद में अपनी ज़िंदगी की बुनियादें खड़ी करो। जो तुमने उसकी मोहब्बत में गुज़ारी हैं। इस मसर्रत की याद में जो तुमने चंद लम्हात के लिए हासिल की थी... मुझे असल इबारत याद नहीं रही, लेकिन मुझे बताईए। क्या ऐसा मुम्किन है... मुम्किन को छोड़िए। आप ये बताईए कि वो आदमी आप तो नहीं थे?”
“मगर क्या आप ही ने उससे कोठे पर मुलाक़ात की थी और उसकी थकी हुई जवानी को ऊँघती हुई चांदनी में छोड़कर नीचे अपने कमरे में सोने के लिए चले आए थे...” ये कहते हुए वो एक दम ठहर गया। “मगर मुझे ऐसी बातें नहीं पूछनी चाहिऐं... अपने दिल का हाल कौन बताता है।”
इस पर मैंने कहा, “मैं आप को बताऊंगा... लेकिन पहली मुलाक़ात में सब कुछ पूछ लेना और सब कुछ बता देना अच्छा मालूम नहीं होता। आपका क्या ख़याल है?” वो जोश जो गुफ़्तुगू करते वक़्त उसके अंदर पैदा हो गया था, एक दम ठंडा पड़ गया।
उसने धीमे लहजे में कहा, “आप का फ़रमाना बिल्कुल दुरुस्त है मगर क्या पता है कि आप से फिर कभी मुलाक़ात न हो।”
इस पर मैंने कहा, “इसमें शक नहीं बंबई बहुत बड़ा शहर है लेकिन हमारी एक नहीं बहुत सी मुलाक़ातें हो सकती हैं, बेकार आदमी हूँ, यानी अफ़सानानिगार... शाम को हर रोज़ इसी वक़्त बशर्ते कि बीमार न हो जाऊं, आप मुझे हमेशा इसी जगह पर पाएंगे... यहां बेशुमार लड़कियां सैर को आती हैं और मैं इसलिए आता हूँ कि ख़ुद को किसी की मोहब्बत में गिरफ़्तार कर सकूं... मोहब्बत बुरी चीज़ नहीं है!”
“मोहब्बत... मोहब्बत...!” उसने इससे आगे कुछ कहना चाहा मगर न कह सका और जलती हुई रस्सी की तरह आख़िरी बल खा कर ख़ामोश हो गया।
मैंने अज़ राह-ए-मज़ाक़ उससे मोहब्बत का ज़िक्र किया था। दरअसल उस वक़्त फ़िज़ा ऐसी दिलफ़रेब थी कि अगर किसी औरत पर आशिक़ हो जाता तो मुझे अफ़सोस न होता, जब दोनों वक़्त आपस में मिल रहे हों।
नीम तारीकी में बिजली के क़ुमक़ुमे क़तार दर क़तार आँखें झपकना शुरू कर दें। हवा में ख़ुनकी पैदा हो जाये और फ़िज़ा पर एक अफ़सानवी कैफ़ियत सी छा जाये तो किसी अजनबी औरत की क़ुरबत की ज़रूरत महसूस हुआ करती है। एक ऐसी जिसका एहसास तहत-ए-शऊर में छुपा रहता है।
ख़ुदा मालूम उसने किस अफ़साने के मुतअल्लिक़ मुझसे पूछा था। मुझे अपने सब अफ़साने याद नहीं और ख़ासतौर पर वो तो बिल्कुल याद नहीं जो रूमानी हैं। मैं अपनी ज़िंदगी में बहुत कम औरतों से मिला हूँ। वो अफ़साने जो मैंने औरतों के मुतअल्लिक़ लिखे हैं या तो किसी ख़ास ज़रूरत के मातहत लिखे गए हैं या महज़ दिमाग़ी अय्याशी के लिए, मेरे ऐसे अफ़सानों में चूँकि ख़ुलूस नहीं है। इसलिए मैंने कभी उनके मुतअल्लिक़ ग़ौर नहीं किया।
एक ख़ास तबक़े की औरतें मेरी नज़र से गुज़री हैं और उनके मुतअल्लिक़ मैंने चंद अफ़साने लिखे हैं, मगर वो रुमान नहीं हैं। उसने जिस अफ़साने का ज़िक्र किया था, वो यक़ीनन कोई अदना दर्जे का रुमान था जो मैंने अपने चंद जज़्बात की प्यास बुझाने के लिए लिखा होगा... लेकिन मैंने तो अपना अफ़साना बयान करना शुरू कर दिया।
हाँ तो जब वो मोहब्बत कह कर ख़ामोश हो गया तो मेरे दिल में ख़्वाहिश पैदा हुई कि मोहब्बत के बारे में कुछ और कहूं। चुनांचे मैंने कहना शुरू किया, “मोहब्बत की यूँ तो बहुत सी क़िस्में हमारे बाप-दादा बयान कर गए हैं। मगर मैं समझता हूँ कि मोहब्बत ख़्वाह मुल्तान में हो या साइबेरिया के यख़-बस्ता मैदानों में। सर्दियों में पैदा हो या गर्मियों में, अमीर के दिल में पैदा हो या ग़रीब के दिल में... मोहब्बत ख़ूबसूरत करे या बदसूरत बदकिरदार करे या नेकोकार... मोहब्बत मोहब्बत ही रहती है।
“इसमें कोई फ़र्क़ पैदा नहीं होता, जिस तरह बच्चे पैदा होने की सूरत हमेशा ही एक सी चली आरही है। इसी तरह मोहब्बत की पैदाइश भी एक ही तरीक़े पर होती है। ये जुदा बात है कि सईदा बेगम हस्पताल में बच्चा जने और राजकुमारी जंगल में। ग़ुलाम मोहम्मद के दिल में भंगन मोहब्बत पैदा कर दे और नटवरलाल के दिल में कोई रानी जिस तरह बा'ज़ बच्चे वक़्त से पहले पैदा होते हैं और कमज़ोर रहते हैं। उसी तरह वो मोहब्बत भी कमज़ोर रहती है जो वक़्त से पहले जन्म ले, बा'ज़ दफ़ा बच्चे बड़ी तकलीफ़ से पैदा होते हैं।
“बा'ज़ दफ़ा मोहब्बत भी बड़ी तकलीफ़ दे कर पैदा होती है। जिस तरह औरतों का हमल गिर जाता है। उसी तरह मोहब्बत भी गिर जाती है। बा'ज़ दफ़ा बांझपन पैदा हो जाता है। इधर भी आपको ऐसे आदमी नज़र आयेंगे जो मोहब्बत करने के मुआमले में बांझ हैं... इसका मतलब ये नहीं कि मोहब्बत करने की ख़्वाहिश उनके दिल से हमेशा के लिए मिट जाती है, या उनके अंदर वो जज़्बा ही नहीं रहता, नहीं, ये ख़्वाहिश उनके दिल में मौजूद होती है।
“मगर वो इस क़ाबिल नहीं रहते कि मोहब्बत कर सकें। जिस तरह औरत अपने जिस्मानी नक़ाइस के बाइस बच्चे पैदा करने के क़ाबिल नहीं रहती। उसी तरह ये लोग चंद रुहानी नक़ाइस की वजह से किसी के दिल में मोहब्बत पैदा करने की क़ुव्वत नहीं रखते... मोहब्बत का इस्क़ात भी हो सकता है...”
मुझे अपनी गुफ़्तुगू दिलचस्प मालूम हो रही थी। चुनांचे मैं उसकी तरफ़ देखे बग़ैर लेक्चर दिए जा रहा था। लेकिन जब मैं उसकी तरफ़ मुतवज्जा हुआ तो वो समुंदर के उस पार ख़ला में देख रहा था और अपने ख़यालात में गुम था, मैं ख़ामोश हो गया।
जब दूर से किसी मोटर का हॉर्न बजा तो वो चौंका और ख़ालीउज़्ज़ेहन हो कर कहने लगा, “जी... आपने बिल्कुल दुरुस्त फ़रमाया है!”
मेरे जी में आई कि उससे पूछूं... “दुरुस्त फ़रमाया है? इसको छोड़िए, आप ये बताईए कि मैंने क्या कहा है?” लेकिन मैं ख़ामोश रहा और उसको मौक़ा दिया कि अपने वज़नी ख़यालात दिमाग़ से झटक दे।
वो कुछ देर सोचता रहा। उसके बाद उसने फिर कहा, “आपने बिल्कुल ठीक फ़रमाया है। लेकिन... ख़ैर छोड़िए इस क़िस्से को।”
मुझे अपनी गुफ़्तुगू बहुत अच्छी मालूम हुई थी। मैं चाहता था कि कोई मेरी बातें सुनता चला जाये। चुनांचे मैंने फिर से कहना शुरू किया, “तो मैं अर्ज़ कर रहा था कि बा'ज़ आदमी भी मोहब्बत के मुआमले में बांझ होते हैं। यानी उनके दिल में मोहब्बत करने की ख़्वाहिश तो मौजूद होती है लेकिन उनकी ये ख़्वाहिश कभी पूरी नहीं होती। मैं समझता हूँ कि इस बांझपन का बाइस रुहानी नक़ाइस हैं। आपका क्या ख़याल है?”
उसका रंग और भी ज़र्द पड़ गया जैसे उसने कोई भूत देख लिया हो। ये तब्दीली उसके अंदर इतनी जल्दी पैदा हुई कि मैंने घबरा कर उससे पूछा, “ख़ैरियत तो है... आप बीमार हैं।”
“नहीं तो... नहीं तो”, उसकी परेशानी और भी ज़्यादा हो गई।
“मुझे कोई बीमारी-वीमारी नहीं है... लेकिन आपने कैसे समझ लिया कि मैं बीमार हूँ।”
मैंने जवाब दिया, “इस वक़्त आपको जो कोई भी देखेगा, यही कहेगा कि आप बहुत बीमार हैं। आपका रंग ख़ौफ़नाक तौर पर ज़र्द हो रहा है... मेरा ख़याल है आपको घर चले जाना चाहिए। आईए मैं आप को छोड़ आऊं।”
“नहीं मैं चला जाऊंगा। मगर मैं बीमार नहीं हूँ... कभी कभी मेरे दिल में मामूली सा दर्द पैदा हो जाया करता है। शायद वही हो... मैं अभी ठीक हो जाऊंगा, आप अपनी गुफ़्तुगू जारी रखिए।”
मैं थोड़ी देर ख़ामोश रहा क्योंकि वो ऐसी हालत में नहीं था कि मेरी बात ग़ौर से सुन सकता। लेकिन जब उसने इसरार किया तो मैंने कहना शुरू किया, “मैं आप से ये पूछ रहा था कि उन लोगों के मुतअल्लिक़ आपका क्या ख़याल है जो मोहब्बत करने के मुआमले में बांझ होते हैं... मैं ऐसे आदमियों के जज़्बात और उनकी अंदरूनी कैफ़ियात का अंदाज़ा नहीं कर सकता। लेकिन जब मैं उस बांझ औरत का तसव्वुर करता हूँ जो सिर्फ़ एक बेटी या बेटा हासिल करने के लिए दुआएं मांगती है। ख़ुदा के हुज़ूर में गिड़गिड़ाती है और जब वहां से कुछ नहीं मिलता तो टोने-टोटकों में अपना गौहर-ए-मक़सूद ढूंढती है।
“शमशानों से राख लाती है, कई कई रातें जाग कर साधुओं के बताए हुए मंत्र पढ़ती हैं। मन्नतें मानती है, चढ़ावे चढ़ाती है तो मैं ख़याल करता हूँ कि उस आदमी की भी यही हालत होती होगी जो मोहब्बत के मुआमले में बांझ हो... ऐसे लोग वाक़ई हमदर्दी के क़ाबिल हैं। मुझे अंधों पर इतना रहम नहीं आता जितना इन लोगों पर आता है।”
उसकी आँखों में आँसू आ गए और वो थूक निगल कर दफ़अतन उठ खड़ा हुआ और परली तरफ़ मुँह कर के कहने लगा, “ओह बहुत देर हो गई। मुझे ज़रूरी काम के लिए जाना था, यहां बातों-बातों में कितना वक़्त गुज़र गया।”
मैं भी उठ खड़ा हुआ। वो पलटा और जल्दी से मेरा हाथ दबा कर लेकिन मेरी तरफ़ देखे बग़ैर उसने, “अब रुख़्सत चाहता हूँ” कहा और चल दिया।
दूसरी मर्तबा उससे मेरी मुलाक़ात फिर अपोलोबंदर ही पर हुई। मैं सैर का आदी नहीं हूँ। मगर उस ज़माने में हर शाम अपोलोबंदर पर जाना मेरा दस्तूर हो गया था। एक महीने के बाद जब मुझे आगरा के एक शायर ने एक लंबा-चौड़ा ख़त लिखा जिसमें उसने निहायत ही हरीसाना तौर पर अपोलोबंदर और वहां जमा होने वाली परियों का ज़िक्र किया और मुझे इस लिहाज़ से बहुत ख़ुशक़िस्मत कहा कि मैं बंबई में हूँ, तो अपोलो बंदर से मेरी दिलचस्पी हमेशा के लिए फ़ना हो गई।
अब जब कभी कोई मुझे अपोलोबंदर जाने को कहता है तो मुझे आगरे के शायर का ख़त याद आजाता है और मेरी तबीयत मतला जाती है। लेकिन मैं उस ज़माने का ज़िक्र कर रहा हूँ, जब ख़त मुझे नहीं मिला था और मैं हर रोज़ जाकर शाम को अपोलोबंदर के उस बेंच पर बैठा करता था जिसके उस तरफ़ कई आदमी चम्पी वालों से अपनी खोपड़ियों की मरम्मत कराते रहते हैं।
दिन पूरी तरह ढल चुका था और उजाले का कोई निशान बाक़ी नहीं रहा था। अक्तूबर की गर्मी में कमी वाक़े नहीं हुई थी। हवा चल रही थी... थके हुए मुसाफ़िर की तरह। सैर करने वालों का हुजूम ज़्यादा था। मेरे पीछे मोटरें ही मोटरें खड़ी थीं। बेंच भी सब के सब पुर थे।
जहां बैठा करता था, वहां दो बातूनी एक गुजराती और एक पार्सी न जाने कब के जमे हुए थे। दोनों गुजराती बोलते थे, मगर मुख़्तलिफ़ लब-ओ-लहजा से। पार्सी की आवाज़ में दो सुर थे। वो कभी बारीक सुर में बात करता था कभी मोटे सुर में। जब दोनों तेज़ी से बोलना शुरू कर देते तो ऐसा मालूम होता जैसे तोते-मैना की लड़ाई हो रही है।
मैं उनकी लामुतनाही गुफ़्तुगू से तंग आकर उठा और टहलने की ख़ातिर ताजमहल होटल का रुख़ करने ही वाला था कि सामने से मुझे वो आता दिखाई दिया। मुझे उसका नाम मालूम नहीं था। इसलिए मैं उसे पुकार न सका। लेकिन जब उसने मुझे देखा तो उसकी निगाहें साकिन हो गईं। जैसे उसे वो चीज़ मिल गई हो जिसकी उसे तलाश थी।
कोई बेंच ख़ाली नहीं था। इसलिए मैंने उससे कहा, “आप से बहुत देर के बाद मुलाक़ात हुई... चलिए सामने रेस्तोराँ में बैठते हैं। यहां कोई बेंच ख़ाली नहीं।”
उसने रस्मी तौर पर चंद बातें कीं और मेरे साथ हो लिया। चंद गज़ों का फ़ासिला तय करने के बाद हम दोनों रेस्तोराँ में बेद की कुर्सियों पर बैठ गए। चाय का आर्डर देकर मैंने उसकी तरफ़ सिगरेटों का टिन बढ़ा दिया। इत्तिफ़ाक़ की बात है, मैंने उसी रोज़ दस रुपये दे कर डाक्टर अरोलकर से मशवरा लिया था और उसने मुझ से कहा था कि अव़्वल तो सिगरेट पीना ही मौक़ूफ़ कर दो और अगर तुम ऐसा नहीं कर सकते तो अच्छे सिगरेट पिया करो।
मिसाल के तौर पर पाँच सौ पचपन... चुनांचे मैंने डाक्टर के कहने के मुताबिक़ ये टिन उसी शाम ख़रीदा था। उसने डिब्बे की तरफ़ ग़ौर से देखा। फिर मेरी तरफ़ निगाहें उठाईं, कुछ कहना चाहा मगर ख़ामोश रहा।
मैं हंस पड़ा, “आप ये न समझिएगा कि मैंने आपके कहने पर ये सिगरेट पीना शुरू किए हैं... इत्तिफ़ाक़ की बात है कि आज मुझे भी डाक्टर अरोलकर के पास जाना पड़ा क्योंकि कुछ दिनों से मेरे सीने में दर्द हो रहा है, चुनांचे उसने मुझसे कहा कि ये सिगरेट पिया करो लेकिन बहुत कम...”
मैंने ये कहते हुए उसकी तरफ़ देखा और महसूस किया कि उसको मेरी ये बातें नागवार मालूम हुई हैं। चुनांचे मैंने फ़ौरन जेब से वो नुस्ख़ा निकाला जो डाक्टर अरोलकर ने मुझे लिख कर दिया था। ये काग़ज़ मेज़ पर मैंने उसके सामने रख दिया। “ये इबारत मुझ से पढ़ी तो नहीं जाती। मगर ऐसा मालूम होता है कि डाक्टर साहिब ने विटामिन का सारा ख़ानदान इस नुस्खे़ में जमा कर दिया है।”
उस काग़ज़ को जिस पर उभरे हुए काले हुरूफ़ में डाक्टर अरोलकर का नाम और पता मुंदर्ज था और तारीख़ भी लिखी हुई थी। उसने चोर निगाहों से देखा और वो इज़्तिराब जो उसके चेहरे पर पैदा हो गया था फ़ौरन दूर हो गया। चुनांचे उसने मुसकरा कर कहा, “क्या वजह है कि अक्सर लिखने वालों के अंदर विटामिन्ज़ ख़त्म हो जाती हैं?”
मैंने जवाब दिया, “इसलिए कि उन्हें खाने को काफ़ी नहीं मिलता। काम ज़्यादा करते हैं। लेकिन उजरत बहुत कम मिलती है।”
इसके बाद चाय आगई और दूसरी बातें शुरू हो गईं।
पहली मुलाक़ात और इस मुलाक़ात में ग़ालिबन ढाई महीने का फ़ासिला था। उसके चेहरे का रंग पहले से ज़्यादा पीला था। आँखों के गिर्द स्याह हल्क़े पैदा हो रहे थे। उसे ग़ालिबन कोई तकलीफ़ थी जिसका एहसास उसे हर वक़्त रहता था क्योंकि बातें करते करते बा'ज़ औक़ात वो ठहर जाता और उसके होंटों में से ग़ैर इरादी तौर पर आह निकल जाती। अगर हँसने की कोशिश भी करता तो उसके होंटों में ज़िंदगी पैदा नहीं होती थी।
मैंने ये कैफ़ियत देख कर उससे अचानक तौर पर पूछा, “आप उदास क्यों हैं?”
“उदास... उदास।” एक फीकी सी मुस्कुराहट जो उन मरने वालों के लबों पर पैदा हुआ करती है जो ज़ाहिर करना चाहते हैं कि वो मौत से ख़ाइफ़ नहीं। उसके होंटों पर फैली, “मैं उदास नहीं हूँ। आपकी तबीयत उदास होगी।”
ये कह कर उसने एक ही घूँट में चाय की प्याली ख़ाली कर दी और उठ खड़ा हुआ, “अच्छा तो मैं इजाज़त चाहता हूँ... एक ज़रूरी काम से जाना है।”
मुझे यक़ीन था कि उसे किसी ज़रूरी काम से नहीं जाना है। मगर मैंने उसे न रोका और जाने दिया। इस दफ़ा फिर उसका नाम दरयाफ्त न कर सका। लेकिन इतना पता चल गया कि वो ज़ेहनी और रुहानी तौर पर बेहद परेशान था। वो उदास था। बल्कि यूं कहिए कि उदासी उसकी रग-ओ-रशे में सरायत कर चुकी थी। मगर वो नहीं चाहता था कि उसकी उदासी का दूसरों को इल्म हो।
वो दो ज़िंदगियां बसर करना चाहता था। एक वो जो हक़ीक़त थी और एक वो जिसकी तख़लीक़ में हर घड़ी, हर लम्हा मसरूफ़ रहता था। लेकिन उसकी ज़िंदगी के ये दोनों पहलू नाकाम थे। क्यों? ये मुझे मालूम नहीं।
उससे तीसरी मर्तबा मेरी मुलाक़ात फिर अपोलोबंदर पर हुई। इस दफ़ा मैं उसे अपने घर ले गया। रास्ते में हमारी कोई बातचीत न हुई लेकिन घर पर उसके साथ बहुत सी बातें हुईं। जब वो मेरे कमरे में दाख़िल हुआ तो उसके चेहरे पर चंद लम्हात के लिए उदासी छा गई। मगर वो फ़ौरन सँभल गया और उसने अपनी आदत के ख़िलाफ़ अपने आप को बहुत तर-ओ-ताज़ा और बातूनी ज़ाहिर करने की कोशिश की।
उसको इस हालत में देख कर मुझे उस पर और भी तरस आगया। वो एक मौत जैसी यक़ीनी हक़ीक़त को झुटला रहा था और मज़ा ये है कि इस ख़ुदफ़रेबी से कभी कभी वो मुतमइन भी नज़र आता था।
बातों के दौरान में उसकी नज़र मेरे मेज़ पर पड़ी। शीशे के फ्रेम में उसको एक लड़की की तस्वीर नज़र आई। उठ कर उसने तस्वीर की तरफ़ जाते हुए कहा, “क्या मैं आपकी इजाज़त से ये तस्वीर देख सकता हूँ।”
मैंने कहा, “बसद शौक़।”
उसने तस्वीर को एक नज़र देखा और देख कर कुर्सी पर बैठ गया, “अच्छी ख़ूबसूरत लड़की है... मैं समझता हूँ कि आप की...”
“जी नहीं... एक ज़माना हुआ। इससे मोहब्बत करने का ख़याल मेरे दिल में पैदा हुआ था। बल्कि यूं कहिए कि थोड़ी सी मोहब्बत मेरे दिल में पैदा भी हो गई थी। मगर अफ़सोस है कि उसको उसकी ख़बर तक न हुई। और मैं... मैं... नहीं। बल्कि वो ब्याह दी गई... ये तस्वीर मेरी पहली मोहब्बत की यादगार है, जो अच्छी तरह पैदा होने से पहले ही मर गई...”
“ये आपकी मोहब्बत की यादगार है... इसके बाद तो आपने और भी बहुत सी रुमान लड़ाए होंगे।” उसने अपने ख़ुश्क होंटों पर ज़बान फेरी, “यानी आपकी ज़िंदगी में तो कई ऐसी ना-मुकम्मल और मुकम्मल मोहब्बतें मौजूद होंगी।”
मैं कहने ही वाला था कि जी नहीं ख़ाकसार भी मोहब्बत के मुआमले में आप जैसा बंजर है। मगर जाने क्यों ये कहता कहता रुक गया और ख़्वाहमख़्वाह झूट बोल दिया, “जी हाँ... ऐसे सिलसिले होते रहते हैं... आपकी किताब-ए-ज़िंदगी भी तो ऐसे वाक़ियात से भरपूर होगी।”
वो कुछ न बोला और बिल्कुल ख़ामोश हो गया। जैसे किसी गहरे समुंदर में ग़ोता लगा गया है। देर तक जब वो अपने ख़यालात में ग़र्क़ रहा और मैं उसकी ख़ामोशी से उदास होने लगा तो मैंने कहा, “अजी हज़रत! आप किन ख़यालात में खो गए?”
वो चौंक पड़ा, “मैं... मैं... कुछ नहीं मैं ऐसे ही कुछ सोच रहा था।”
मैंने पूछा, “कोई बीती कहानी याद आ गई। कोई बिछड़ा हुआ सपना मिल गया... पुराने ज़ख़्म हरे हो गए।”
“ज़ख़्म... पुराने ज़ख़्म... कई ज़ख़्म नहीं... सिर्फ़ एक ही है, बहुत गहरा, बहुत कारी और ज़ख़्म मैं चाहता भी नहीं। एक ही ज़ख़्म काफ़ी है”, ये कह कर वो उठ खड़ा हुआ और मेरे कमरे में टहलने की कोशिश करने लगा क्योंकि इस छोटी सी जगह में जहां कुर्सियां, मेज़ और चारपाई सब कुछ पड़ा था, टहलने के लिए कोई जगह नहीं थी। मेज़ के पास उसे रुकना पड़ा।
तस्वीर को अब की दफ़ा गहरी नज़रों से देखा और कहा, “इसमें और उसमें कितनी मुशाबहत है... मगर उसके चेहरे पर ऐसी शोख़ी नहीं थी। उसकी आँखें बड़ी थीं मगर इन आँखों की तरह उनमें शरारत नहीं थी। वो फ़िक्रमंद आँखें थी। ऐसी आँखें जो देखती भी हैं और समझती भी हैं...” ये कहते हुए उसने एक सर्द आह भरी और कुर्सी पर बैठ गया।
“मौत बिल्कुल नाक़ाबिल-ए-फ़हम चीज़ है। खासतौर पर उस वक़्त जब कि ये जवानी में आए... मैं समझता हूँ कि ख़ुदा के इलावा एक ताक़त और भी है जो बड़ी हासिद है जो किसी को ख़ुश देखना नहीं चाहती... मगर छोड़िए इस क़िस्से को।”
मैंने उससे कहा, “नहीं नहीं, आप सुनाते जाइए... लेकिन अगर आप ऐसा मुनासिब समझें, सच पूछिए तो मैं ये समझ रहा था कि आपने कभी मोहब्बत की ही न होगी।”
“ये आपने कैसे समझ लिया कि मैंने कभी मोहब्बत की ही नहीं और अभी अभी तो आप कह रहे थे कि मेरी किताब-ए-ज़िंदगी ऐसे कई वाक़ियात से भरी पड़ी होगी।” ये कह कर उसने मेरी तरफ़ सवालिया निगाहों से देखा।
“मैंने अगर मोहब्बत नहीं की तो ये दुख मेरे दिल में कहाँ से पैदा हो गया है? मैंने अगर मोहब्बत नहीं की तो मेरी ज़िंदगी को ये रोग कहाँ से चिमट गया है? मैं रोज़ बरोज़ मोम की तरह क्यों पिघला जा रहा हूँ?”
बज़ाहिर ये तमाम सवाल वो मुझ से कर रहा था, मगर दरअसल वो सब कुछ अपने आप ही से पूछ रहा था।
मैंने कहा, “मैंने झूट बोला था कि आपकी ज़िंदगी में ऐसे कई वाक़ियात होंगे। मगर आपने भी झूट बोला था कि मैं उदास नहीं हूँ और मुझे कोई रोग नहीं है... किसी के दिल का हाल जानना आसान बात नहीं है, आपकी उदासी की और बहुत सी वजहें हो सकती हैं। मगर जब तक मुझे आप ख़ुद न बताएं, मैं किसी नतीजे पर कैसे पहुंच सकता हूँ... इसमें कोई शक नहीं कि आप वाक़ई रोज़ बरोज़ कमज़ोर होते जा रहे हैं। आपको यक़ीनन बहुत बड़ा सदमा पहुंचा है और... और... मुझे आपसे हमदर्दी है।”
“हमदर्दी...” उसकी आँखों में आँसू आ गए। मुझे किसी की हमदर्दी की ज़रूरत नहीं इसलिए कि हमदर्दी उसे वापस नहीं ला सकती... उस औरत को मौत की गहराईयों से निकाल कर मेरे हवाले नहीं कर सकती जिससे मुझे प्यार था... आपने मोहब्बत नहीं की... मुझे यक़ीन है, आपने मोहब्बत नहीं की, इसलिए कि उसकी नाकामी ने आप पर कोई दाग़ नहीं छोड़ा... मेरी तरफ़ देखिए”, ये कह कर उसने ख़ुद अपने आप को देखा।
“कोई जगह आपको ऐसी नहीं मिलेगी। जहां मेरी मोहब्बत के नक़्श मौजूद न हों... मेरा वजूद ख़ुद इस मोहब्बत की टूटी हुई इमारत का मलबा है... मैं आपको ये दास्तान कैसे सुनाऊं और क्यों सुनाऊं जबकि आप उसे समझ ही नहीं सकेंगे... किसी का ये कह देना कि मेरी माँ मर गई है। आपके दिल पर वो असर पैदा नहीं कर सकता जो मौत ने बेटे पर किया था... मेरी दास्तान-ए-मोहब्बत आपको... किसी को भी बिल्कुल मामूली मालूम होगी। मगर मुझ पर जो असर हुआ है, उससे कोई भी आगाह नहीं हो सकता। इसलिए कि मोहब्बत मैंने की है और सब कुछ सिर्फ़ मुझी पर गुज़रा है।”
ये कह कर वो ख़ामोश हो गया। उसके हलक़ में तल्ख़ी पैदा हो गई थी क्योंकि वो बार-बार थूक निगलने की कोशिश कर रहा था।
“क्या वो आपको धोका दे गई?” मैंने उससे पूछा, “या कुछ और हालात थे?”
“धोका... वो धोका दे ही नहीं सकती थी। ख़ुदा के लिए धोका न कहिए। वो औरत नहीं फ़रिश्ता थी। मगर बुरा हो उस मौत का जो हमें ख़ुश न देख सकी और उसे हमेशा के लिए अपने परों में समेट कर ले गई... आह! आपने मेरे दिल पर ख़राशें पैदा कर दी हैं।”
सुनिए... सुनिए, मैं आपको दर्दनाक दास्तान का कुछ हिस्सा सुनाता हूँ... वो एक बड़े और अमीर घराने की लड़की थी जिस ज़माने में उसकी और मेरी पहली मुलाक़ात हुई। मैं अपने बाप-दादा की सारी जायदाद अय्याशियों में बर्बाद कर चुका था। मेरे पास एक कौड़ी भी नहीं थी। फिर बंबई छोड़कर मैं लखनऊ चला आया। अपनी मोटर चूँकि मेरे पास हुआ करती थी। इसलिए मैं सिर्फ़ मोटर चलाने का काम जानता था। चुनांचे मैंने उसी को अपना पेशा क़रार देने का फ़ैसला किया। पहली मुलाज़मत मुझे डिप्टी साहब के यहां मिली। जिनकी इकलौती लड़की थी...” ये कहते कहते वो अपने ख़यालात में खो गया और दफ़अतन ख़ामोश रहा। मैं भी चुप हो गया।
थोड़ी देर बाद वो फिर चौंका और कहने लगा, “मैं क्या कह रहा था?”
“आप डिप्टी साहब के यहां मुलाज़िम हो गए।”
“हाँ वो उन्ही डिप्टी साहब की इकलौती लड़की थी हर रोज़ सुबह नौ बजे मैं ज़ुहरा को मोटर में स्कूल ले जाया करता था। वो पर्दा करती थी मगर मोटर ड्राईवर से कोई कब तक छुप सकता है। मैंने उसे दूसरे रोज़ ही देख लिया... वो सिर्फ़ ख़ूबसूरत ही नहीं थी। उसमें एक ख़ास बात भी थी... बड़ी संजीदा और मतीन लड़की थी। उसकी सीधी मांग ने उसके चेहरे पर एक ख़ास क़िस्म का वक़ार पैदा कर दिया था... वो... मैं क्या अर्ज़ करूं वो क्या थी। मेरे पास अल्फ़ाज़ नहीं हैं कि मैं उसकी सूरत और सीरत बयान कर सकूं...”
बहुत देर तक वो अपनी ज़ुहरा की खूबियां बयान करता रहा। इस दौरान में उसने कई मर्तबा उसकी तस्वीर खींचने की कोशिश की। मगर नाकाम रहा। ऐसा मालूम होता था कि ख़यालात उसके दिमाग़ में ज़रूरत से ज़्यादा जमा हो गए हैं।
कभी कभी बात करते करते उसका चेहरा तमतमा उठता। लेकिन फिर उदासी छा जाती और वो आहों में गुफ़्तुगू करना शुरू कर देता। वो अपनी दास्तान बहुत आहिस्ता आहिस्ता सुना रहा था। जैसे ख़ुद भी मज़ा ले रहा हो। एक एक टुकड़ा जोड़ कर उसने सारी कहानी पूरी की जिसका माहस्ल ये था।
ज़ुहरा से उसे बेपनाह मोहब्बत हो गई। कुछ दिन तो मौक़ा पा कर उसका दीदार करने और तरह तरह के मंसूबे बांधने में गुज़र गए। मगर जब उसने संजीदगी से उस मोहब्बत पर ग़ौर किया तो ख़ुद को ज़ुहरा से बहुत दूर पाया। एक मोटर ड्राईवर अपने आक़ा की लड़की से मोहब्बत कैसे कर सकता है? चुनांचे जब इस तल्ख़ हक़ीक़त का एहसास उसके दिल में पैदा हुआ तो वो मग़्मूम रहने लगा। लेकिन एक दिन उसने बड़ी जुरअत से काम लिया, काग़ज़ के एक पुरज़े पर उसने ज़ुहरा को चंद सतरें लिखीं... ये सतरें मुझे याद हैं।
“ज़ुहरा! मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि तुम्हारा नौकर हूँ! तुम्हारे वालिद साहब मुझे तीस रुपये माहवार देते हैं। मगर मैं तुम से मोहब्बत करता हूँ... मैं क्या करूं, क्या न करूं, मेरी समझ में नहीं आता...”
ये सतरें काग़ज़ पर लिख कर उसने काग़ज़ उसकी किताब में रख दिया। दूसरे रोज़ जब वो उसे मोटर में स्कूल ले गया तो उसके हाथ काँप रहे थे। हैंडल कई बार उसकी गिरफ्त से निकल निकल गया। मगर ख़ुदा का शुक्र है कि कोई एक्सीडेंट न हुआ। उस रोज़ उसकी कैफ़ियत अजीब रही। शाम को जब वो ज़ुहरा को स्कूल से वापस ला रहा था तो रास्ते में उस लड़की ने मोटर रोकने के लिए कहा।
उसने जब मोटर रोक ली तो ज़ुहरा ने निहायत संजीदगी के साथ कहा, “देखो नईम आइन्दा तुम ऐसी हरकत कभी न करना। मैंने अभी तक अब्बा जी से तुम्हारे इस ख़त का ज़िक्र नहीं किया जो तुम ने मेरे किताब में रख दिया था। लेकिन अगर फिर तुम ने ऐसी हरकत की तो मजबूरन उनसे शिकायत करना पड़ेगी। समझे... चलो अब मोटर चलओ।”
उस गुफ़्तुगू के बाद उसने बहुत कोशिश की कि डिप्टी साहब की नौकरी छोड़ दे और ज़ुहरा की मोहब्बत को अपने दिल से हमेशा के लिए मिटा दे, मगर वो कामयाब न हो सका। एक महीना इसी कश्मकश में गुज़र गया। एक रोज़ उसने फिर जुरअत से काम लेकर ख़त लिखा और ज़ुहरा की एक किताब में रख कर अपनी क़िस्मत के फ़ैसले का इंतिज़ार करने लगा।
उसे यक़ीन था कि दूसरे रोज़ सुबह को उसे नौकरी से बरतरफ़ कर दिया जाएगा। मगर ऐसा न हुआ। शाम को स्कूल से वापस आते हुए ज़ुहरा उससे हमकलाम हुई। एक बार फिर उसको ऐसी हरकतों से बाज़ रहने के लिए कहा। अगर तुम्हें अपनी इज़्ज़त का ख़याल नहीं तो कम अज़ कम मेरी इज़्ज़त का तो कुछ ख़याल तुम्हें होना चाहिए।
ये उसने एक बार फिर उसे कुछ संजीदगी और मतानत से कहा कि नईम की सारी उम्मीदें फ़ना हो गईं और उसने क़सद कर लिया कि वो नौकरी छोड़ देगा और लखनऊ से हमेशा के लिए चला जाएगा। महीने के अख़ीर में नौकरी छोड़ने से पहले उसने अपनी कोठड़ी में लालटेन की मद्धम रोशनी में ज़ुहरा को आख़िरी ख़त लिखा।
उसमें उसने निहायत दर्द भरे लहजे में उससे कहा, “ज़ुहरा! मैंने बहुत कोशिश की कि मैं तुम्हारे कहे पर अमल कर सकूं मगर दिल पर मेरा इख़्तियार नहीं है। ये मेरा आख़िरी ख़त है। कल शाम को मैं लखनऊ छोड़ दूंगा। इसलिए तुम्हें अपने वालिद साहब से कुछ कहने की ज़रूरत नहीं। तुम्हारी ख़ामोशी मेरी क़िस्मत का फ़ैसला कर देगी। मगर ये ख़याल न करना कि तुम से दूर रह कर तुम से मोहब्बत नहीं करूंगा। मैं जहां कहीं भी रहूँगा। मेरा दिल तुम्हारे क़दमों में होगा... मैं हमेशा उन दिनों को याद करता रहूँगा, जब मैं मोटर आहिस्ता आहिस्ता चलाता था कि तुम्हें धक्का न लगे... मैं इसके सिवा और तुम्हारे लिए कर ही क्या सकता था...”
ये ख़त भी उसने मौक़ा पाकर उस किताब में रख दिया। सुबह को ज़ुहरा ने स्कूल जाते हुए उससे कोई बात न की और शाम को भी रास्ते में उसने कुछ न कहा। चुनांचे वो बिल्कुल ना-उम्मीद हो कर अपनी कोठड़ी में चला आया। जो थोड़ा बहुत अस्बाब उसके पास था बांध कर उसने एक तरफ़ रख दिया और लालटेन की अंधी रोशनी में चारपाई पर बैठ कर सोचने लगा कि ज़ुहरा और उसके दरमियान कितना बड़ा फ़ासिला है।
वो बेहद मग़्मूम था। अपनी पोज़ीशन से अच्छी तरह वाक़िफ़ था। उसे इस बात का एहसास था कि वो एक अदना दर्जे का मुलाज़िम है और अपने आक़ा की लड़की से मोहब्बत करने का कोई हक़ नहीं रखता। लेकिन इसके बावजूद कभी कभी बे-इख़्तियार उससे मोहब्बत करता है तो इसमें उसका क्या क़सूर है और फिर उसकी मोहब्बत फ़रेब तो नहीं।
वो इसी उधेड़ बुन में था कि आधी रात के क़रीब उसकी कोठड़ी के दरवाज़े पर दस्तक हुई। उसका दिल धक से रह गया। लेकिन फिर उसने ख़याल किया कि माली होगा, मुम्किन है उसके घर में कोई एका एकी बीमार पड़ गया हो और वो उससे मदद लेने के लिए आया हो। लेकिन जब उसने दरवाज़ा खोला तो ज़ुहरा सामने खड़ी थी... जी हाँ ज़ुहरा... दिसंबर की सर्दी में शाल के बग़ैर वो उसके सामने खड़ी थी।
उसकी ज़बान गुंग हो गई। उसकी समझ में नहीं आता था क्या कहे, चंद लम्हात क़ब्र की सी ख़ामोशी में गुज़र गए। आख़िर ज़ुहरा के होंट वा हुए और थरथराते हुए लहजे में उसने कहा, “नईम मैं तुम्हारे पास आ गई हूँ। बताओ अब तुम क्या चाहते हो... लेकिन इससे पहले कि तुम्हारी इस कोठड़ी में दाख़िल हूँ। मैं तुम से चंद सवाल करना चाहती हूँ।”
नईम ख़ामोश रहा लेकिन ज़ुहरा उससे पूछने लगी, “क्या वाक़ई तुम मुझसे मोहब्बत करते हो?”
नईम को जैसे ठेस सी लगी। उसका चेहरा तमतमा उठा, “ज़ुहरा तुमने ऐसा सवाल किया है जिसका जवाब अगर मैं दूं तो मेरी मोहब्बत की तौहीन होगी... मैं तुम से पूछता हूँ, क्या मैं मोहब्बत नहीं करता?”
ज़ुहरा ने इस सवाल का जवाब न दिया और थोड़ी देर ख़ामोश रह कर अपना दूसरा सवाल, “मेरे बाप के पास दौलत है, मगर मेरे पास एक फूटी कौड़ी भी नहीं, जो कुछ मेरा कहा जाता है, मेरा नहीं है, उनका है। क्या तुम मुझे दौलत के बगै़र भी वैसा ही अज़ीज़ समझोगे?”
नईम बहुत जज़्बाती आदमी था। चुनांचे उस सवाल ने भी उसके वक़ार को ज़ख़्मी किया, बड़े दुख भरे लहजे में उसने ज़ुहरा से कहा, “ज़ुहरा ख़ुदा के लिए मुझसे ऐसी बातें न पूछो जिनका जवाब इस क़दर आम हो चुका है कि तुम्हें थर्ड क्लास इश्क़िया नाविलों में भी मिल सकता है।”
ज़ुहरा उसकी कोठड़ी में दाख़िल हो गई और उसकी चारपाई पर बैठ कर कहने लगी, “मैं तुम्हारी हूँ और हमेशा तुम्हारी रहूंगी।”
ज़ुहरा ने अपना क़ौल पूरा किया, जब दोनों लखनऊ छोड़कर दिल्ली चले आए और शादी करके एक छोटे से मकान में रहने लगे तो डिप्टी साहब ढूंडते-ढूंडते वहां पहुंच गए। नईम को नौकरी मिल गई थी। इसलिए वो घर में नहीं था। डिप्टी साहब ने ज़ुहरा को बहुत बुरा भला कहा। उनकी सारी इज़्ज़त ख़ाक में मिल गई थी।
वो चाहते थे कि ज़ुहरा नईम को छोड़ दे और जो कुछ हो चुका है उसे भूल जाये। वो नईम को दो-तीन हज़ार रुपया देने के लिए भी तैयार थे। मगर उन्हें नाकाम लौटना पड़ा। इसलिए कि ज़ुहरा नईम को किसी क़ीमत पर भी छोड़ने के लिए तैयार न हुई। उसने अपने बाप से कहा, “अब्बा जी! मैं नईम के साथ बहुत ख़ुश हूँ। आप इससे अच्छा शौहर मेरे लिए कभी तलाश नहीं कर सकते। मैं और वो आप से कुछ नहीं मांगते। अगर आप हमें दुआएं दे सकें तो हम आप के मम्नून होंगे।”
डिप्टी साहब ने जब ये गुफ़्तुगू सुनी तो बहुत ख़श्म-आलूद हुए। उन्होंने नईम को क़ैद करा देने की धमकी भी दी मगर ज़ुहरा ने साफ़ साफ़ कह दिया, “अब्बा जी! इसमें नईम का क्या क़ुसूर है। सच तो ये है कि हम दोनों बेक़ुसूर हैं। अलबत्ता हम एक दूसरे से मोहब्बत ज़रूर करते हैं और वो मेरा शौहर है... ये कोई क़ुसूर नहीं है, मैं नाबालिग़ नहीं हूँ।”
डिप्टी साहब अक़लमंद थे, फ़ौरन समझ गए कि जब उनकी बेटी ही रज़ामंद है तो नईम पर कैसे जुर्म आइद हो सकता है। चुनांचे वो ज़ुहरा को हमेशा के लिए छोड़कर चले गए। कुछ अर्से के बाद डिप्टी साहब ने मुख़्तलिफ़ लोगों के ज़रिये से नईम पर दबाव डालने और उसको रुपये-पैसे से लालच देने की कोशिश की मगर नाकाम रहे।
दोनों की ज़िंदगी बड़े मज़े में गुज़र रही थी। गो नईम की आमदन बहुत ही कम थी और ज़ुहरा को जो नाज़ो नअम में पली थी। बदन पर खुरदरे कपड़े पहनने पड़ते थे और अपने हाथ से सब काम करने पड़ते थे। मगर वो ख़ुश थी और ख़ुद को एक नई दुनिया में पाती थी। वो बहुत सुखी थी... बहुत सुखी। नईम भी बहुत ख़ुश था। लेकिन एक रोज़ ख़ुदा का करना ऐसा हुआ कि ज़ुहरा के सीने में मुज़ी दर्द उठा और पेशतर इसके कि नईम उसके लिए कुछ कर सके वो इस दुनिया से रुख़्सत हो गई और नईम की दुनिया हमेशा के लिए तारीक हो गई।
ये दास्तान उसने रुक-रुक कर और ख़ुद मज़े ले लेकर क़रीबन चार घंटों में सुनाई। जब वो अपना हाल-ए-दिल सुना चुका तो उसका चेहरा बजाय ज़र्द होने के तमतमा उठा जैसे उसके अंदर आहिस्ता आहिस्ता किसी ने ख़ून दाख़िल कर दिया है। लेकिन उसकी आँखों में आँसू थे और उसका हलक़ सूख गया था।
दास्तान जब ख़त्म हुई तो वो फ़ौरन उठ खड़ा हुआ, जैसे उसे बहुत जल्दी है और कहने लगा, “मैंने बहुत ग़लती की... जो आपको अपनी दास्तान-ए-महोब्बत सुना दी... मैंने बहुत ग़लती की... ज़ुहरा का ज़िक्र सिर्फ़ मुझी तक महदूद रहना चाहिए था... लेकिन... उसकी आवाज़ भर्रा गई... मैं ज़िंदा हूँ और वो... वो...” इससे आगे वो कुछ न कह सका और जल्दी से मेरा हाथ दबा कर कमरे से बाहर चला गया।
नईम से फिर मेरी मुलाक़ात न हुई। अपोलोबंदर पर कई मर्तबा उसकी तलाश में गया, मगर वो न मिला। छः या सात महीने के बाद उसका एक ख़त मुझे मिला, जो मैं यहां पर नक़ल कर रहा हूँ...
साहिब! आपको याद होगा। मैंने आपके मकान पर अपनी दास्तान-ए-मोहब्बत सुनाई थी। वो महज़ फ़साना था। एक झूटा फ़साना कोई ज़ुहरा है न नईम... मैं वैसे मौजूद तो हूँ मगर वो नईम नहीं हूँ जिसने ज़ुहरा से मोहब्बत की थी। आपने एक बार कहा था कि बा'ज़ लोग ऐसे भी होते हैं जो मोहब्बत के मुआमले में बांझ होते हैं। मैं भी उन बदक़िस्मत आदमियों में से एक हूँ जिसकी सारी जवानी अपना दिल पर्चाने में गुज़र गई।
ज़ुहरा से नईम की मोहब्बत एक दिली बहलावा था और ज़ुहरा की मौत... मैं अभी तक नहीं समझ सका कि मैंने उसे क्यों मार दिया। बहुत मुम्किन है कि इसमें भी मेरी ज़िंदगी की स्याही का दख़ल हो।
मुझे मालूम नहीं। आपने मेरे अफ़साने को झूटा समझा या सच्चा लेकिन मैं आपको एक अजीब-ओ-ग़रीब बात बताता हूँ कि मैंने यानी इस झूटे अफ़साने के ख़ालिक़ ने इसको बिल्कुल सच्चा समझा, सौ फीसदी हक़ीक़त पर मब्नी। मुझे ऐसा महसूस हुआ कि मैंने वाक़ई ज़ुहरा से मोहब्बत की है और वो सचमुच मर चुकी है। आपको ये सुन कर और भी ताज्जुब होगा कि जैसे-जैसे वक़्त गुज़रता गया, उस अफ़साने के अंदर हक़ीक़त का उंसुर ज़्यादा होता गया और ज़ुहरा की आवाज़, उसकी हंसी भी मेरे कानों में गूंजने लगी। मैं उसके सांस की गर्मी तक महसूस करने लगा। अफ़साने का हर ज़र्रा जानदार हो गया और मैंने... और मैंने यूं अपनी क़ब्र अपने हाथों से खोदी।
ज़ुहरा फ़साना न सही मगर मैं तो फ़साना हूँ। वो मर चुकी है। इसलिए मुझे भी मर जाना चाहिए। ये ख़त आपको मेरी मौत के बाद मिलेगा... अलविदा... ज़ुहरा मुझे ज़रूर मिलेगी... कहाँ! ये मुझे मालूम नहीं।
मैंने ये चंद सुतूर सिर्फ़ इसलिए आपको लिख दिए हैं कि आप अफ़सानानिगार हैं अगर इससे आप अफ़साना तैयार कर लें तो आपको सात-आठ रुपये मिल जाऐंगे क्योंकि एक मर्तबा आपने कहा था कि अफ़साने का मुआवज़ा आपको सात से दस रुपये तक मिल जाया करता है। ये मेरा तोहफ़ा होगा। अच्छा अलविदा।
आपका मुलाक़ाती, “नईम”
नईम ने अपने लिए ज़ुहरा बनाई और मर गया... मैंने अपने लिए ये अफ़साना तख़्लीक़ किया है और ज़िंदा हूँ... ये मेरी ज़्यादती है।
- पुस्तक : منٹو کےافسانے
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