शलजम
स्टोरीलाइन
इस कहानी में रात को देर से घर आने वाले शौहरों की बीवी के साथ होने वाली बहस को दिखाया गया है। वह रात में तीन बजे आया था। जब उसने खाना माँगा तो बीवी ने देने से इंकार कर दिया। इस पर उन दोनों के बीच बहस होने लगी। दोनों अपनी-अपनी दलीलें देने लगे। कोई भी पीछे हटने को तैयार नहीं हुआ। बहस हो ही रही थी कि अंदर से नौकर आया और कहने लगा कि खाना तैयार है। खाने के बारे में सुनते ही मियाँ-बीवी के बीच सुलह हो गई।
“खाना भिजवा दो मेरा, बहुत भूक लग रही है।”
“तीन बज चुके हैं, इस वक़्त आपको खाना कहाँ मिलेगा?”
“तीन बज चुके हैं तो क्या हुआ, खाना तो बहरहाल मिलना ही चाहिए। आख़िर मेरा हिस्सा भी तो इस घर में किसी क़दर है।”
“किस क़दर है?”
“तो अब तुम हिसाबदां बन गईं? जमा तफ़रीक़ के सवाल करने लगीं मुझ से?”
“जमा तफ़रीक़ के सवाल न करूं तो ये घर कब का उजड़ गया होता।”
“क्या बात है आपकी... लेकिन सवाल ये है कि मुझे खाना मिलेगा या नहीं?”
“आप हर रोज़ तीन बजे आएं तो खाना ख़ाक मिलेगा। मैं तो ये समझती हूँ कि अगर आप इस वक़्त किसी होटल में जाएं तो वहां से भी आपको दाल रोटी नहीं मिल सकेगी, मुझे आपका ये वतीरा हर्गिज़ पसंद नहीं।”
“कौन सा वतीरा?”
“यही कि आप तीन बजे तशरीफ़ लाए हैं, खाना पड़ा झक मारता रहता है... मैं अलग इंतिज़ार करती रहती हूँ, मगर आँजनाब ख़ुदा मालूम कहाँ ग़ायब रहते हैं?”
“भई दुनिया में इंसान को कई काम होते हैं, मैं सिर्फ़ दो दिन ही तो ज़रा देर से आया।”
“ज़रा देर से? हर ख़ाविंद को चाहिए कि वो घर में बारह बजे मौजूद हो ताकि उसे एक बजे तक खाना मिल जाये, इसके इलावा उसे अपनी बीवी का ताबेअ फ़रमान होना चाहिए।”
“इससे तो यही बेहतर है कि वो किसी होटल में जा रहे, जहां के तमाम नौकर और बैरे उसके ताबेअ फ़रमान हों।”
“आपका इरादा तो यही है जभी तो आप कई दिन से पर तोल रहे हैं... मैं आप से कहती हूँ अभी चले जाईए।”
“खाना खाए बग़ैर?”
“जाईए होटल में आपको मिल जाएगा।”
“लेकिन तुमने तो अभी कहा था कि इस वक़्त किसी होटल में भी दाल रोटी नहीं मिलेगी, बात कर के भूल जाती हो।”
“मेरा दिमाग़ ख़राब हो चुका है बल्कि कर दिया गया है।”
“ये तो सही है कि तुम्हारा दिमाग़ ख़राब है लेकिन ये ख़राबी किसने पैदा की?”
“आपने और किसने, जो मेरी जान का रोग बने हुए हैं... मुझे न रात का चैन नसीब है न दिन का।”
“दिन का छोड़ो, रात का चैन आपको नसीब क्यों नहीं... बड़े इतमिनान से सोई रहती हैं,जैसे मुहावरे के मुताबिक़ कोई घोड़े बेच कर सो रहा हो।”
“अपने घोड़े बेच कर आदमी कैसे सो सकता है, कितना वाहियात मुहावरा है?”
“वाहियात ही सही,लेकिन अभी चंद रोज़ हुए तुमने एक घोड़ा और उसके साथ तांगा भी बेच डाला था और उस दिन तुम रातभर ख़र्राटे लेती रही थीं।”
“मुझे तांगा रखने की क्या ज़रूरत थी जबकि आपने मुझे मोटर ले दी थी... और ख़र्राटे भरने का इलज़ाम बिलकुल ग़लत है।”
“मोहतरमा, जब आप ख़्वाब-ए-ख़रगोश में थीं तो आपको कैसे पता चलता कि आप ख़र्राटे लेती हैं। बख़ुदा, उस रात मैं बिलकुल सो न सका।”
“इसका अव्वल झूट, इसका आख़िर झूट।”
“चलिए, तुम्हारे ख़ातिर ये भी मान लिया, अब खाना दो।”
“खाना नहीं मिलेगा आज, आप किसी होटल में जाइए, और मैं तो ये चाहती हूं कि आप वहीं बसेरा कर लीजिए।”
“तुम क्या करोगी?”
“मैं... मैं मर तो नहीं जाउंगी आपके बगै़र।”
“ख़ुदा न करे तुम मर्द, लेकिन मुझे ये तो बताओ कि मेरे बग़ैर तुम्हारा गुज़ारा कैसे होगा।”
“मैं अपनी मोटर बेच लूँगी।”
“इस से तुम्हें कितना रुपया मिल जाएगा।”
“छः सात हज़ार तो मिल ही जाऐंगे।”
“उन छः सात हज़ार रूपों में तुम कितने अ’र्सा तक अपना और अपने बाल बच्चों का पेट पाल सकोगी।”
“मैं आपकी तरह लख लुट और फ़ुज़ूल खर्च नहीं, आप देखिएगा मैं उन रूपों में सारी उम्र गुज़ार दूँगी, मेरे बाल बच्चे उसी तरह पलेंगे जिस तरह अब पल रहे हैं।”
“ये तरकीब मुझे भी बता दो, मुझे यक़ीन है कि तुम्हें कोई ऐसा मंत्र हाथ आ गया है जिससे तुम नोट दुगने बना सकती हो... हर रोज़ बटुवे से नोट निकाले, उन पर मंत्र फूंका और वो दुगने हो गए।”
“आप मेरा मज़ाक़ उड़ाते हैं, शर्म आनी चाहिए आप को।”
“चलो हटाओ इस क़िस्से को, खाना दो मुझे।”
“खाना आपको नहीं मिलेगा।”
“भई आख़िर क्यों, मेरा क़ुसूर क्या है?”
“आपके क़ुसूर और आपकी ख़ताएं अगर मैं गिनवाना शुरू करूं तो मेरी सारी उम्र बीत जाये।”
“देखो बेगम, अब पानी सर से गुज़र चुका है। अगर तुमने खाना न दिया तो मैं इस घर को आग लगा दूँगा... ग़ज़ब ख़ुदा का मेरे पेट का भूक के मारे बुरा हाल हो गया है और तुम वाही तबाही बक रही हो। मुझे कल और आज एक ज़रूरी काम था, इसलिए मुझे देर हो गई और तुमने मुझ पर इल्ज़ाम धर दिया कि मैं हर रोज़ देर से आता हूँ... खाना दो मुझे वर्ना...”
“आप मुझे ऐसी धौंस न दें, खाना नहीं मिलेगा आपको।”
“ये मेरा घर है मैं जब चाहूं आऊं, जब चाहूं जाऊं, तुम कौन हो कि मुझ पर ऐसी सख़्तियां करो? मैं तुम से कहे देता हूँ कि तुम्हारा ये मिज़ाज तुम्हारे हक़ में अच्छा साबित नहीं होगा।”
“आपका मिज़ाज मेरे हक़ में तो बड़ा अच्छा साबित हुआ है। दिन रात कुढ कुढ के मेरा ये हाल हो गया है।”
“दस पाऊंड वज़न और बढ़ गया है, बस यही हाल हुआ है तुम्हारा... और मैं तुम्हारी ज़ूद रंज और चिड़ चिड़ी तबीयत के बाइ’स बीमार हो गया हूँ।”
“क्या बीमारी है आप को?”
“तुमने कभी पूछा है कि मैं इस क़दर थका थका क्यों रहता हूँ। कभी तुमने ग़ौर किया कि सीढ़ियां चढ़ते वक़्त मेरा सांस क्यों फूल जाता है। कभी तुमको इतनी तौफ़ीक़ हुई कि मेरा सर ही दबाएँ जो अक्सर दर्द के बाइ’स फटने के क़रीब होता है... तुम अ’जीब क़िस्म की रफीक़ा-ए-हयात हो।”
“अगर मुझे मालूम होता कि आप ऐसा ख़ाविंद मेरे पल्ले बांध दिया जाएगा तो मैंने वहीं अपने घर पर ही ज़हर फांक लिया होता।”
“ज़हर तुम अब भी फांक सकती हो, कहो तो मैं अभी ला दूँ।”
“ले आईए।”
“लेकिन मुझे पहले खाना खिला दो।”
“मैं कह चुकी हूँ, वो नहीं मिलेगा आपको आज।”
“कल से तो ख़ैर मिल ही जाया करेगा, इसलिए मैं कोशिश करता हूँ।”
“आप क्या कोशिश कीजिएगा?”
“ख़ानसामां को बुलाता हूँ।”
“आप उसे नहीं बुला सकते।”
“क्यों?”
“बस मैंने कह जो दिया कि आपको इन मुआ’मलों में दख़ल देने का कोई हक़ नहीं।”
“हद हो गई। अपने घर में अपने ख़ानसामां को भी नहीं बुला सकता। नौकर कहाँ है?”
“जहन्नम में।”
“इस वक़्त मैं भी उसी जगह हूँ लेकिन मैं उसको देख नहीं पाता... इधर हटो ज़रा, मैं उसे तलाश करूं शायद मिल जाये।”
“उससे क्या कहना है आपको?”
“कुछ नहीं, सिर्फ़ इतना कहूंगा कि तुम अ’लाहिदा हो जाओ, तुम्हारे बदले मैं इस घर की नौकरी ख़ुद किया करूंगा।”
“आप कर चुके।”
“सलाम हुज़ूर, बेगम साहब सालन तैयार है। साहब खाना लगा दूँ टेबल पर?”
“तुम दूर दफ़ान हो जाओ यहां से।”
“लेकिन बेगम साहब, आपने सुबह जब ख़ुद बावर्चीख़ाने में शलजम पकाए तो वो सब के सब जल गए कि आंच तेज़ थी, उसके बाद आपने आर्डर दिया कि साहब देर से आयेंगे इसलिए तुम जल्दी जल्दी कोई और सालन तैयार कर लो, सो मैंने आपके हुक्म के मुताबिक़ दो घंटों के अंदर अंदर दो सालन तैयार करलिए हैं। अब आप फ़रमाएं तो टेबल लगा दूं। दोनों सालन अंगेठियों पर धरे हैं, ऐसा न हो कि आपके शलजमों की तरह जल कर कोयला हो जाएं। मैं जाता हूँ, आप जब भी आर्डर देंगी ख़ादिम टेबल लगा देगा।”
“तो ये बात थी।”
“क्या बात थी, मैं इतनी देर तक बावर्चीख़ाने की गर्मी में झुलसती रही, इसका आपको कुछ ख़याल ही नहीं। आपको शलजम पसंद हैं तो मैंने सोचा ख़ुद अपने हाथ से पकाऊं, किताब हाथ में थी जिसमें सारी तरकीब लिखी हुई थी। किताब पढ़ते पढ़ते में सो गई और वो कमबख़्त शलजम जल भुन कर कोयला बन गए। अब इसमें मेरा क्या क़ुसूर है।”
“कोई क़ुसूर नहीं।”
“चलिए मेरे पेट में चूहे दौड़ रहे हैं।”
“यहां तो बड़े बड़े मगरमच्छ दौड़ रहे हैं।”
“हर बात में मज़ाक़?”
“मज़ाक़ बरतरफ़, ज़रा इधर आओ... मैं तुम्हारे शलजम देखना चाहता हूँ, कहीं वो भी कोयला नहीं बन गए।”
“खाना खाने के बाद देखा जाएगा।”
- पुस्तक : رتی،ماشہ،تولہ
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