ज़िया जालंधरी
ग़ज़ल 39
नज़्म 28
अशआर 25
बुरा न मान 'ज़िया' उस की साफ़-गोई का
जो दर्द-मंद भी है और बे-अदब भी नहीं
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रंग बातें करें और बातों से ख़ुश्बू आए
दर्द फूलों की तरह महके अगर तू आए
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हिम्मत है तो बुलंद कर आवाज़ का अलम
चुप बैठने से हल नहीं होने का मसअला
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ये आँसू ये पशेमानी का इज़हार
मुझे इक बार फिर बहका गई हो
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