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सलमान ख़याल

1983 | लखनऊ, भारत

सलमान ख़याल

ग़ज़ल 5

 

अशआर 5

जब से इस दश्त में आया हूँ इसी सोच में हूँ

कि बयाबान में क्या सोच कर आता है कोई

ये दिल-फ़रेब चराग़ाँ ये क़हक़हों के हुजूम

मैं डर रहा हूँ अब इस शहर से गुज़रते हुए

ये आसमान है बेहतर कि आशियाँ मेरा

परिंद सोच रहा है उड़ान भरते हुए

गुज़ारी उम्र हम ने आबियारी में किसी की

वो अपना एक कार-ए-बे-समर था और हम थे

ज़रा संभलों तुम्हारी वहशतों के ज़िक्र 'सलमान'

जहाँ होने नहीं थे अब वहाँ भी हो रहे हैं

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