सलमान ख़याल
ग़ज़ल 5
अशआर 5
जब से इस दश्त में आया हूँ इसी सोच में हूँ
कि बयाबान में क्या सोच कर आता है कोई
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ये दिल-फ़रेब चराग़ाँ ये क़हक़हों के हुजूम
मैं डर रहा हूँ अब इस शहर से गुज़रते हुए
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ये आसमान है बेहतर कि आशियाँ मेरा
परिंद सोच रहा है उड़ान भरते हुए
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गुज़ारी उम्र हम ने आबियारी में किसी की
वो अपना एक कार-ए-बे-समर था और हम थे
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ज़रा संभलों तुम्हारी वहशतों के ज़िक्र 'सलमान'
जहाँ होने नहीं थे अब वहाँ भी हो रहे हैं
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