नातिक़ लखनवी के शेर
कह रहा है शोर-ए-दरिया से समुंदर का सुकूत
जिस का जितना ज़र्फ़ है उतना ही वो ख़ामोश है
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ऐ शम्अ' तुझ पे रात ये भारी है जिस तरह
मैं ने तमाम उम्र गुज़ारी है इस तरह
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मर मर के अगर शाम तो रो रो के सहर की
यूँ ज़िंदगी हम ने तिरी दूरी में बसर की
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इब्तिदा से आज तक 'नातिक़' की ये है सरगुज़िश्त
पहले चुप था फिर हुआ दीवाना अब बेहोश है
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दिल है किस का जिस में अरमाँ आप का रहता नहीं
फ़र्क़ इतना है कि सब कहते हैं मैं कहता नहीं
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आज़ादियों का हक़ न अदा हम से हो सका
अंजाम ये हुआ कि गिरफ़्तार हो गए
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दिल रहे या न रहे ज़ख़्म भरे या न भरे
चारासाज़ों की ख़ुशामद मुझे मंज़ूर नहीं
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मय-कशो मय की कमी बेशी पे नाहक़ जोश है
ये तो साक़ी जानता है किस को कितना होश है
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इक दाग़-ए-दिल ने मुझ को दिए बे-शुमार दाग़
पैदा हुए हज़ार चराग़ इस चराग़ से
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दो आलम से गुज़र के भी दिल-ए-आशिक़ है आवारा
अभी तक ये मुसाफ़िर अपनी मंज़िल पर नहीं आया
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उन के लब पर ज़िक्र आया बे-हिजाबाना मेरा
मंज़िल-ए-तकमील तक पहुँचा अब अफ़्साना मेरा
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मोहब्बत-आश्ना दिल मज़हब-ओ-मिल्लत को क्या जाने
हुई रौशन जहाँ भी शम्अ परवाना वहीं आया
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मिरी जानिब से उन के दिल में किस शिकवे पे कीना है
वो शिकवा जो ज़बाँ पर क्या अभी दिल में नहीं आया
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सदक़े तेरे होते हैं सूरज भी सितारे भी
हम किस से कहें दिल है सीने में हमारे भी
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