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नसीम सिद्दीक़ी

1954 | अलीगढ़, भारत

जदीदियत से मुतअस्सिर अहम ग़ज़ल-गो, अपने तख़लीक़ी तर्ज़-ए-बयान के लिए मारूफ़

जदीदियत से मुतअस्सिर अहम ग़ज़ल-गो, अपने तख़लीक़ी तर्ज़-ए-बयान के लिए मारूफ़

नसीम सिद्दीक़ी

ग़ज़ल 5

 

अशआर 4

रौशन भी हमी से रही तक़दीर हमारी

और अपने मुक़द्दर की सियाही भी हमीं थे

क़ुमक़ुमों की आँच ने पिघला दिए मंज़र तमाम

चाँद अब कोई किसी भी बाम पर मिलता नहीं

मस्लहत का ये कफ़न रखता है बे-दाग़ हमें

अहल-ए-ईमान हैं हम-रंग से डर लगता है

रस्ता भी हमी लोग थे राही भी हमीं थे

और अपनी मसाफ़त की गवाही भी हमीं थे

पुस्तकें 2

 

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