ममनून निज़ामुद्दीन
ग़ज़ल 14
अशआर 8
कल वस्ल में भी नींद न आई तमाम शब
एक एक बात पर थी लड़ाई तमाम शब
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ख़्वाब में बोसा लिया था रात ब-लब-ए-नाज़की
सुब्ह दम देखा तो उस के होंठ पे बुतख़ाला था
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कोई हमदर्द न हमदम न यगाना अपना
रू-ब-रू किस के कहें हम ये फ़साना अपना
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गुमाँ न क्यूँकि करूँ तुझ पे दिल चुराने का
झुका के आँख सबब क्या है मुस्कुराने का
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