ख़ान रिज़वान
ग़ज़ल 24
नज़्म 1
अशआर 8
ये ख़द्द-ओ-ख़ाल ये गेसू ये सूरत-ए-ज़ेबा
सभी का हुस्न है अपनी जगह मगर आँखें
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कौन गुज़रा है ये आँधियों की तरह
शम्अ-ए-राह-ए-वफ़ा को बुझाते हुए
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की है सरगोशी सर-ए-शाम मिरे दिल ने फिर
इस लिए हम ने लपेटा नहीं बिस्तर अपना
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हम तो अपने क़द के बराबर भी न हुए
लोग न जाने कैसे ख़ुदा हो जाते हैं
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