ख़ालिद मलिक साहिल
ग़ज़ल 20
नज़्म 6
अशआर 19
ख़्वाब देखा था मोहब्बत का मोहब्बत की क़सम
फिर इसी ख़्वाब की ताबीर में मसरूफ़ था मैं
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बस एक ख़ौफ़ था ज़िंदा तिरी जुदाई का
मिरा वो आख़िरी दुश्मन भी आज मारा गया
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जुनूँ का कोई फ़साना तो हाथ आने दो
मैं रो पड़ूँगा बहाना तो हाथ आने दो
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चमक रहे थे अंधेरे में सोच के जुगनू
मैं अपनी याद के ख़ेमे में सो नहीं पाया
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तुम मस्लहत कहो या मुनाफ़िक़ कहो मुझे
दिल में मगर ग़ुबार बहुत देर तक रहा
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