इफ़्फ़त ज़र्रीं
ग़ज़ल 9
नज़्म 1
अशआर 7
ज़ेहन ओ दिल के फ़ासले थे हम जिन्हें सहते रहे
एक ही घर में बहुत से अजनबी रहते रहे
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पत्थर के जिस्म मोम के चेहरे धुआँ धुआँ
किस शहर में उड़ा के हवा ले गई मुझे
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देख कर इंसान की बेचारगी
शाम से पहले परिंदे सो गए
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वो मुझ को भूल चुका अब यक़ीन है वर्ना
वफ़ा नहीं तो जफ़ाओं का सिलसिला रखता
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