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हकीम मंज़ूर

1937

हकीम मंज़ूर

ग़ज़ल 31

अशआर 16

शहर के आईन में ये मद भी लिक्खी जाएगी

ज़िंदा रहना है तो क़ातिल की सिफ़ारिश चाहिए

हर एक आँख को कुछ टूटे ख़्वाब दे के गया

वो ज़िंदगी को ये कैसा अज़ाब दे के गया

हम किसी बहरूपिए को जान लें मुश्किल नहीं

उस को क्या पहचानिये जिस का कोई चेहरा हो

गिरेगी कल भी यही धूप और यही शबनम

इस आसमाँ से नहीं और कुछ उतरने का

मुझ में थे जितने ऐब वो मेरे क़लम ने लिख दिए

मुझ में था जितना हुस्न वो मेरे हुनर में गुम हुआ

पुस्तकें 7

 

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