अब्बास रिज़वी
ग़ज़ल 10
अशआर 10
तलब करें तो ये आँखें भी इन को दे दूँ मैं
मगर ये लोग इन आँखों के ख़्वाब माँगते हैं
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बहुत अज़ीज़ थी ये ज़िंदगी मगर हम लोग
कभी कभी तो किसी आरज़ू में मर भी गए
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मैं जो चुप था हमा-तन-गोश थी बस्ती सारी
अब मिरे मुँह में ज़बाँ है कोई सुनता ही नहीं
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एक ना-तवाँ रिश्ता उस से अब भी बाक़ी है
जिस तरह दुआओं का और असर का रिश्ता है
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अजीब तुर्फ़ा-तमाशा है मेरे अहद के लोग
सवाल करने से पहले जवाब माँगते हैं
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