मुफ़्लिसी
जब आदमी के हाल पे आती है मुफ़्लिसी
किस किस तरह से उस को सताती है मुफ़्लिसी
प्यासा तमाम रोज़ बिड़ाती है मुफ़्लिसी
भूका तमाम रात सुलाती है मुफ़्लिसी
ये दुख वो जाने जिस पे कि आती है मुफ़्लिसी
कहिए तो अब हकीम की सब से बड़ी है शाँ
तअ'ज़ीम जिस की करते हैं तो अब और ख़ाँ
मुफ़्लिस हुए तो हज़रत-ए-लुक़्माँ किया है याँ
ईसा भी हो तो कोई नहीं पूछता मियाँ
हिकमत हकीम की भी ढुबाती है मुफ़्लिसी
जो अहल-ए-फ़ज़्ल आलिम ओ फ़ाज़िल कहाते हैं
मुफ़्लिस हुए तो कलमा तलक भूल जाते हैं
वो जो ग़रीब-ग़ुरबा के लड़के पढ़ाते हैं
उन की तो उम्र भर नहीं जाती है मुफ़्लिसी
मुफ़्लिस करे जो आन के महफ़िल के बीच हाल
सब जानें रोटियों का ये डाला है इस ने जाल
गिर गिर पड़े तो कोई न लिए उसे सँभाल
मुफ़्लिस में होवें लाख अगर इल्म और कमाल
सब ख़ाक बेच आ के मिलाती है मुफ़्लिसी
जब रोटियों के बटने का आ कर पड़े शुमार
मुफ़्लिस को देवें एक तवंगर को चार चार
गर और माँगे वो तो उसे झिड़कें बार बार
मुफ़्लिस का हाल आह बयाँ क्या करूँ मैं यार
मुफ़्लिस को इस जगह भी चबाती है मुफ़्लिसी
मुफ़्लिस की कुछ नज़र नहीं रहती है आन पर
देता है अपनी जान वो एक एक नान पर
हर आन टूट पड़ता है रोटी के ख़्वान पर
जिस तरह कुत्ते लड़ते हैं इक उस्तुख़्वान पर
वैसा ही मुफ़लिसों को लड़ाती है मुफ़्लिसी
करता नहीं हया से जो कोई वो काम आह
मुफ़्लिस करे है उस के तईं इंसिराम आह
समझे न कुछ हलाल न जाने हराम आह
कहते हैं जिस को शर्म-ओ-हया नंग-ओ-नाम आह
वो सब हया-ओ-शर्म उड़ाती है मुफ़्लिसी
ये मुफ़्लिसी वो शय है कि जिस घर में भर गई
फिर जितने घर थे सब में उसी घर के दर गई
ज़न बच्चे रोते हैं गोया नानी गुज़र गई
हम-साया पूछते हैं कि क्या दादी मर गई
बिन मुर्दे घर में शोर मचाती है मुफ़्लिसी
लाज़िम है गर ग़मी में कोई शोर-ग़ुल मचाए
मुफ़्लिस बग़ैर ग़म के ही करता है हाए हाए
मर जावे गर कोई तो कहाँ से उसे उठाए
इस मुफ़्लिसी की ख़्वारियाँ क्या क्या कहूँ मैं हाए
मुर्दे को बे कफ़न के गड़ाती है मुफ़्लिसी
क्या क्या मुफ़्लिसी की कहूँ ख़्वारी फकड़ियाँ
झाड़ू बग़ैर घर में बिखरती हैं झकड़ियाँ
कोने में जाले लपटे हैं छप्पर में मकड़ियाँ
पैसा न होवे जिन के जलाने को लकड़ियाँ
दरिया में उन के मुर्दे बहाती है मुफ़्लिसी
बीबी की नथ न लड़कों के हाथों कड़े रहे
कपड़े मियाँ के बनिए के घर में पड़े रहे
जब कड़ियाँ बिक गईं तो खंडर में पड़े रहे
ज़ंजीर ने किवाड़ न पत्थर गड़े रहे
आख़िर को ईंट ईंट खुदाती है मुफ़्लिसी
नक़्क़ाश पर भी ज़ोर जब आ मुफ़्लिसी करे
सब रंग दम में कर दे मुसव्विर के किर्किरे
सूरत भी उस की देख के मुँह खिंच रहे परे
तस्वीर और नक़्श में क्या रंग वो भरे
उस के तो मुँह का रंग उड़ाती है मुफ़्लिसी
जब ख़ूब-रू पे आन के पड़ता है दिन सियाह
फिरता है बोसे देता है हर इक को ख़्वाह-मख़ाह
हरगिज़ किसी के दिल को नहीं होती उस की चाह
गर हुस्न हो हज़ार रूपे का तो उस को आह
क्या कौड़ियों के मोल बिकाती है मुफ़्लिसी
उस ख़ूब-रू को कौन दे अब दाम और दिरम
जो कौड़ी कौड़ी बोसे को राज़ी हो दम-ब-दम
टोपी पुरानी दो तो वो जाने कुलाह-ए-जिस्म
क्यूँकर न जी को उस चमन-ए-हुस्न के हो ग़म
जिस की बहार मुफ़्त लुटाती है मुफ़्लिसी
आशिक़ के हाल पर भी जब आ मुफ़्लिसी पड़े
माशूक़ अपने पास न दे उस को बैठने
आवे जो रात को तो निकाले वहीं उसे
इस डर से या'नी रात ओ धन्ना कहीं न दे
तोहमत ये आशिक़ों को लगाती है मुफ़्लिसी
कैसे ही धूम-धाम की रंडी हो ख़ुश-जमाल
जब मुफ़्लिसी हो कान पड़े सर पे उस के जाल
देते हैं उस के नाच को ढट्ढे के बीच डाल
नाचे है वो तो फ़र्श के ऊपर क़दम सँभाल
और उस को उँगलियों पे नचाती है मुफ़्लिसी
उस का तो दिल ठिकाने नहीं भाव क्या बताए
जब हो फटा दुपट्टा तो काहे से मुँह छुपाए
ले शाम से वो सुब्ह तलक गो कि नाचे गाए
औरों को आठ सात तो वो दो टके ही पाए
इस लाज से इसे भी लजाती है मुफ़्लिसी
जिस कसबी रंडी का हो हलाकत से दिल हज़ीं
रखता है उस को जब कोई आ कर तमाश-बीं
इक पौन पैसे तक भी वो करती नहीं नहीं
ये दुख उसी से पूछिए अब आह जिस के तईं
सोहबत में सारी रात जगाती है मुफ़्लिसी
वो तो ये समझे दिल में कि ढेला जो पाऊँगी
दमड़ी के पान दमड़ी के मिस्सी मँगाऊँगी
बाक़ी रही छदाम सो पानी भराऊँगी
फिर दिल में सोचती है कि क्या ख़ाक खाऊँगी
आख़िर चबीना उस का भुनाती है मुफ़्लिसी
जब मुफ़्लिसी से होवे कलावंत का दिल उदास
फिरता है ले तम्बूरे को हर घर के आस-पास
इक पाव सेर आने की दिल में लगा के आस
गोरी का वक़्त होवे तो गाता है वो बभास
याँ तक हवास उस के उड़ाती है मुफ़्लिसी
मुफ़्लिस बियाह बेटी का करता है बोल बोल
पैसा कहाँ जो जा के वो लावे जहेज़ मोल
जोरू का वो गला कि फूटा हो जैसे ढोल
घर की हलाल-ख़ोरी तलक करती है ढिढोल
हैबत तमाम उस की उठाती है मुफ़्लिसी
बेटे का बियाह हो तो न ब्याही न साथी है
ने रौशनी न बाजे की आवाज़ आती है
माँ पीछे एक मैली चदर ओढ़े जाती है
बेटा बना है दूल्हा तो बावा बराती है
मुफ़्लिस की ये बरात चढ़ाती है मुफ़्लिसी
गर ब्याह कर चला है सहर को तो ये बला
शहदार नाना हीजड़ा और भाट मंड-चढ़ा
खींचे हुए उसे चले जाते हैं जा-ब-जा
वो आगे आगे लड़ता हुआ जाता है चला
और पीछे थपड़ियों को बजाती है मुफ़्लिसी
दरवाज़े पर ज़नाने बजाते हैं तालियाँ
और घर में बैठी डोमनी देती हैं गालियाँ
मालन गले की हार हो दौड़ी ले डालियाँ
सक़्क़ा खड़ा सुनाता है बातें रज़ालियाँ
ये ख़्वारी ये ख़राबी दिखाती है मुफ़्लिसी
कोई शूम बे-हया कोई बोला निखट्टू है
बेटी ने जाना बाप तो मेरा निखट्टू है
बेटे पुकारते हैं कि बाबा निखट्टू है
बीबी ये दिल मैं कहती है अच्छा निखट्टू है
आख़िर निखट्टू नाम धराती है मुफ़्लिसी
मुफ़्लिस का दर्द दिल में कोई ढानता नहीं
मुफ़्लिस की बात को भी कोई मानता नहीं
ज़ात और हसब-नसब को कोई जानता नहीं
सूरत भी उस की फिर कोई पहचानता नहीं
याँ तक नज़र से उस को गिराती है मुफ़्लिसी
जिस वक़्त मुफ़्लिसी से ये आ कर हुआ तबाह
फिर कोई इस के हाल प करता नहीं निगाह
दालीदरी कहे कोई ठहरा दे रू-सियाह
जो बातें उम्र भर न सुनी होवें उस ने आह
वो बातें उस को आ के सुनाती हैं मुफ़्लिसी
चूल्हा तवाना पानी के मटके में आबी है
पीने को कुछ न खाने को और ने रकाबी है
मुफ़्लिस के साथ सब के तईं बे-हिजाबी है
मुफ़्लिस की जोरू सच है कि याँ सब की भाबी है
इज़्ज़त सब उस के दिल की गंवाती है मुफ़्लिसी
कैसा ही आदमी हो पर इफ़्लास के तुफ़ैल
कोई गधा कहे उसे ठहरा दे कोई बैल
कपड़े फटे तमाम बढ़े बाल फैल फैल
मुँह ख़ुश्क दाँत ज़र्द बदन पर जमा है मैल
सब शक्ल क़ैदियों की बनाती है मुफ़्लिसी
हर आन दोस्तों की मोहब्बत घटाती है
जो आश्ना हैं उन की तो उल्फ़त घटाती है
अपने की मेहर ग़ैर की चाहत घटाती है
शर्म-ओ-हया ओ इज़्ज़त-ओ-हुर्मत घटाती है
हाँ नाख़ुन और बाल बढ़ाती है मुफ़्लिसी
जब मुफ़्लिसी हुई तो शराफ़त कहाँ रही
वो क़द्र ज़ात की वो नजाबत कहाँ रही
कपड़े फटे तो लोगों में इज़्ज़त कहाँ रही
तअ'ज़ीम और तवाज़ो' की बाबत कहाँ रही
मज्लिस की जूतियों पे बिड़ाती है मुफ़्लिसी
मुफ़्लिस किसी का लड़का जो ले प्यार से उठा
बाप उस का देखे हाथ का और पाँव का कड़ा
कहता है कोई जूती न लेवे कहीं चुरा
नट-खट उचक्का चोर दग़ाबाज़ गठ-कटा
सौ सौ तरह के ऐब लगाती है मुफ़्लिसी
रखती नहीं किसी की ये ग़ैरत की आन को
सब ख़ाक में मिलाती है हुर्मत की शान को
सौ मेहनतों में उस की खपाती है जान को
चोरी पे आ के डाले ही मुफ़्लिस के ध्यान को
आख़िर नदान भीक मंगाती है मुफ़्लिसी
दुनिया में ले के शाह से ऐ यार ता-फ़क़ीर
ख़ालिक़ न मुफ़्लिसी में किसी को करे असीर
अशराफ़ को बनाती है इक आन में फ़क़ीर
क्या क्या मैं मुफ़्लिसी की ख़राबी कहूँ 'नज़ीर'
वो जाने जिस के दिल को जलाती है मुफ़्लिसी
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