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ज़िंदाँ पर ग़ज़लें

क्लासिकी और जदीद शायरी

में ज़िंदाँ का इस्तिआरा बहुत मुस्तामल है और दोनों जगह उस की मानविय्ती जहतें बहुत फैली हुई हैं। क्लासिकी शायरी में ज़िंदाँ का सयाक़ ख़ालिस इश्क़िया था लेकिन जदीद शोरा ने इस लफ़्ज़ को अपने अहद की सियासी और समाजी सूरत-ए-हाल से जोड़ कर इस में और वुसअतें पैदा की हैं। हमारे इस इन्तिख़ाब को पढ़िए और देखिए कि तख़्लीक़-कार एक ही लफ़्ज़ को कितने अलग अलग रंगों में बरतता है और लफ़्ज़ किस तरह मानी की सतह पर अपना सफ़र तय करता है।

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