जब्र पर ग़ज़लें
जब्र अर्थात वो सब कुछ
जो मर्ज़ी के ख़िलाफ़ थोप दिया जाता है । इसलिए इस को इंसान के इख़्तियार अर्थात उस के अधिकार से विरोधाभास के तौर पर जब्र का नाम दिया गया है । इंसान जितना ख़ुद-मुख़्तार है उतना ही मजबूर भी है । विद्वानों के अनुसार इख़्तियार जब्र की वजह से है दर-अस्ल जो कुछ हम सोचते हैं और करते हैं वो एक तरह के जब्र की वजह से ही है । यहाँ प्रस्तुत संकलन में जब्र के व्यापक रूक को समाजी, सियासी, तारीख़ी, मज़हबी और तहज़ीबी सूरतों देखा जा सकत है ।