मैं अदब और फ़िल्म को एक ऐसा मय-ख़ाना समझता हूँ, जिसकी बोतलों पर कोई लेबल नहीं होता।
पब्लिक ऐसी फिल्में चाहती हैं जिनका ताल्लुक़ बराह-ए-रास्त उनके दिल से हो। जिस्मानी हिसिय्यात से मुताल्लिक़ चीज़ें ज़ियादा देरपा नहीं होतीं मगर जिन चीज़ों का ताल्लुक़ रूह से होता है, देर तक क़ायम रहती हैं।
जो बात महीनों में ख़ुश्क तक़रीरों से नहीं समझाई जा सकती, चुटकियों में एक फ़िल्म के ज़रीए से ज़हन-नशीन कराई जा सकती है।
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फ़िल्मों को कामयाब बनाने और सितारे पैदा करने के लिए हमें सितारा-शनास निगाहों की ज़रूरत है।
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अगर डायरेक्टरों का अपना-अपना स्टाइल ना होगा तो फ़िल्म मुतहर्रिक तसावीर के यक-आहंग फ़ीते बन कर रह जाऐंगे।
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