मैं बग़ावत चाहता हूँ। हर उस फ़र्द के ख़िलाफ़ बग़ावत चाहता हूँ जो हमसे मेहनत कराता है मगर उसके दाम अदा नहीं करता।
हमें अपने क़लम से रोज़ी कमाना है और हम इस ज़रिये से रोज़ी कमा कर रहेंगे। ये हर्गिज़ नहीं हो सकता कि हम और हमारे बाल बच्चे फ़ाक़े मरें और जिन अख़बारों और रिसालों में हमारे मज़ामीन छपते हैं, उनके मालिक ख़ुशहाल रहें।
आख़िर कब तक अदीब एक नाकारा आदमी समझा जाएगा। कब तक शायर को एक गप्पें हाँकने वाला मुतसव्वर किया जाएगा, कब तक हमारे लिट्रेचर पर चंद ख़ुद-ग़रज़ और हवस-परस्त लोगों की हुक्मुरानी रहेगी। कब तक?
अदब की रौनक़ हमारे दम से है। उन लोगों के दम से नहीं है जिनके पास छापने की मशीनें, स्याही और अनगिनत काग़ज़ हैं। लिट्रेचर का दिया हमारे ही दिमाग़ के रौग़न से जलता है।