बेनियाज़ी पर शेर
बे-नियाज़ या बे-परवाह
होना जैसे आशिक़ के जज़्बात की कोई ख़बर ही न हो माशूक़ की अदाओं में शुमार होता है। यह अदा इतनी जान- लेवा होती है कि आशिक़ के गिले शिकवे कभी ख़त्म होने का नाम नहीं लेते। यही बे-नियाज़ी सन्तों, सूफियों और फक़ीरों में भी होती है जो कभी कभी किसी शायर के जिस्म में भी बिराजमान होते हैं। बे-नियाज़ी शायरी ऐसे तमाम जज़्बों और रवैय्यों को ज़बान देती है। हाज़िर हैं चंद नमूने आपके लिए भी।
ये अदा-ए-बे-नियाज़ी तुझे बेवफ़ा मुबारक
मगर ऐसी बे-रुख़ी क्या कि सलाम तक न पहुँचे
बे-नियाज़ी हद से गुज़री बंदा-परवर कब तलक
हम कहेंगे हाल-ए-दिल और आप फ़रमावेंगे क्या
मुझे अब देखती है ज़िंदगी यूँ बे-नियाज़ाना
कि जैसे पूछती हो कौन हो तुम जुस्तुजू क्या है
आशिक़ों की ख़स्तगी बद-हाली की पर्वा नहीं
ऐ सरापा नाज़ तू ने बे-नियाज़ी ख़ूब की
क्या आज-कल से उस की ये बे-तवज्जोही है
मुँह उन ने इस तरफ़ से फेरा है 'मीर' कब का