शगूफ़ा
स्टोरीलाइन
यह एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है, जो जवानी में सैर करने के शौक़ में अमरनाथ की यात्रा पर निकल पड़ा था। वहाँ रास्ता भटक जाने के कारण वह एक कश्मीरी गाँव में जा पहुँचा। उस गाँव में उसने उस ख़ूबसूरत लड़की को देखा जिसका नाम शगूफ़ा था। शगूफ़ा को गाँव वाले चुड़ैल समझते थे और उससे डरते थे। गाँव वालों के मना करने के बावजूद वह शगूफ़ा के पास गया, क्योंकि वह उससे मोहब्बत करता था। उसकी मोहब्बत का जवाब देने से पहले शगूफ़ा ने उसे अपनी वो दास्तान सुनाई, जिसके समापन में उसे अपनी जान देनी पड़ी।
(1)
हमारी पार्टी सैर-ओ-सियाहत की ग़रज़ से अमरनाथ जा रही थी। हम लोग खुशियाँ और रंगरलियाँ मनाते हुए पाँच बजे के क़रीब चँदन वाढ़ी जा पहुँचे। यहाँ सिर्फ़ एक दुकान थी जो एक सिख ने मुसाफ़िरों के लिए ख़ेमे में खोल रखी थी।
सेह-पहर का सुहाना समाँ, पहाड़ की सैर, दिल-कश फ़िज़ा, पाक-ओ-साफ़ हवाएँ, नदी का शोर-ओ-गुल, बर्फ़ानी पुल पर आफ़ताब की नाचती हुई किरणें झिलमिला रही थीं। जिनसे मालूम होता था कि तमाम दुनिया का हुस्न सिमट कर उस ला-सानी मक़ाम पर जमा हो गया है। हम लोगों ने फ़ैसला कर लिया कि आज रात यहाँ ज़रूर क़ियाम करेंगे। हमारे बार-बरदारी के टट्टू और क़ुली अभी पीछे थे। हमने दुकान-दार को चाय का ऑर्डर दिया और ख़ुद इंतिज़ार की ज़हमत से बचने के लिए बर्फ़ के पुल की तरफ़ निकल गए। नौ-उम्री का ज़माना था, तबियत जौलानियों पर थी। ताज़ा उमंगें, नए जज़्बे, ज़िंदा वलवले पूरी सेहत-ओ-तंदुरुस्ती, सच्ची खुशियाँ, हक़ीक़ी मसर्रतें, जो इस बे-फ़िक्री की उम्र के लवाज़िम शुमार होते हैं और जिनके ज़ेर-ए-असर दुनिया की हर एक चीज़ ऐसी ख़ूबसूरत दिखाई देती है, गोया हर शै से खुशियों और जवानियों का रस टपक रहा हो। उस पर ये क़ुदरती और दिल-फ़रेब माहौल एक अनोखा और तिलिस्मी रंग चढ़ा रहा था।
हम लोग क़ुदरत की उन आराइशों और दिल-आवेज़ियों से लुत्फ़ अंदोज़ होते हुए बर्फ़ानी पुल पर चलने लगे। पुल के पार एक काही-आलूद चट्टान पर एक अजीब-उल-हैअत इंसान बैठा था। उसकी उम्र चालीस साल के लग भग थी। शक्ल-ओ-सूरत से भी कुछ बुरा न था मगर उसने वज़्अ अनोखी बना रखी थी। यानी सियाह रंग का एक लम्बा कश्मीरी तर्ज़ का गर्म ख़िर्क़ा पहन रखा था। पाँव में सियाह फ़ौजी बूट थे, हाथों में चर्मी दस्ताने और सर पर सियाह चर्मी कनटोप और उस पर तुर्रा ये कनटोप पर सोलह हैट लगा रखा था। आँखों पर दोहरी ऐनकें चढ़ी हुई थी और मज़े-मज़े से सिगरेट के कश लगा रहा था।
उसकी हैअत-कज़ाई पर हम बे-इख़्तियार हँसने लगे। थोड़ी देर में हमारे क़हक़हों की ज़बरदस्त यूरिश से पहाड़ गूँज उठे और नदी का शोर दब कर रह गया। हमें शोख़ियों और शरारतों का अच्छा मौक़ा हाथ आया था, हमने उस पर अंग्रेज़ी ज़बान में भी आवाज़े कसे, फब्तियाँ उड़ाईं और ख़ूब दिल खोल कर मज़ाक़ किए। लोग कहते हैं कि जवानी की सर-मस्तियों के सामने भूत भी भागते हैं मगर उस ख़ुदा के बंदे के कान पर जूँ तक न रेंगी बल्कि हमारी तरफ़ आँख उठाकर देखा ही नहीं और बड़े इत्मीनान से सिगरेट का धुआँ बिखेरता रहा, अलबत्ता हमारे इंतिहाई मज़ाक़ से क़दरे मुतअस्सिर होकर वो हल्के से मुस्करा देता। उससे हमारी हँसी में मज़ीद इज़ाफ़ा होता कि ये जाँगलू क्यों हँसता है? उसे क्या कुछ समझ आती है और उसकी उस हरकत पर हम इतने हँसते कि हमारे पेट में बल पड़-पड़ जाते और गले ख़ुश्क होकर खाँसी होने लगती।
उसी हँसी मज़ाक़ में जब कुछ वक़्त गुज़र गया तो हमें चाय याद आई और वहाँ से लौटे। चाय से फ़ारिग़ हुए तो बार बरदारी के टट्टू और क़ुली वग़ैरह पहुँच गए थे और ख़ेमे नस्ब कराने में मशग़ूल हो गए। अलाव लगवा कर, बिस्तर वग़ैरह तैयार करवा कर, फ़ारिग़ हुए तो शाम हो चुकी थी। अब पेट में चूहे दौड़ने लगे।
कश्मीर की भूक तो मानी हुई है। इस सर-ज़मीन में आकर क़ुव्वत-ए-हाज़मा इस क़दर तेज़ हो जाती है कि बग़ैर मुँह चलाए किसी वक़्त भी गुज़ारा नहीं होता। क़ुदरती चश्मों और बहती हुई नदियों के पानी जो कीमियाई नबाताती और जड़ी बूटियों की आमेज़िश से अकसीर का जवाब रखते हैं, सक़ील से सक़ील ग़िज़ा भी फ़ौरन भस्म हो जाती है। और बे-इख़्तियार अलजू-अलजू ज़बान पर आता है। चुनाँचे खाने की ग़रज़ से दुकान पर पहुँचे। यकायक एक कोने में नज़र पड़ी तो हम सब चौंक उठे क्योंकि कोने में बिछे हुए स्टूल पर वही ख़िर्क़ा-पोश साहब बैठे अंग्रेज़ी अख़बार का मुताला कर रहे थे, जिसे चाय के वक़्त हम लोग ही यहाँ भूल गए थे। उन्हें देख कर फिर हमें मज़ाक़ की सूझी। हमारे एक शरीर साथी ने आगे बढ़ कर कहा, आप अंग्रेज़ी तो ख़ूब जानते होंगे। हमें भी कुछ सिखाइए।
उसने संजीदगी से जवाब दिया, आपको क्या सिखाऊँगा, क्योंकि मैं तो ख़ुद ज़रूरत के मुताबिक़ जानता हूँ।
ऐं आप अंग्रेज़ी जानते हैं, तो गोया आप भी तालीम-याफ़्ता हैं। उसने कहा।
शायद ऐसा ही हो! ख़िर्क़ा-पोश ने जवाब दिया।
तो कहाँ तक तालीम है आप की? हम लोगों ने बराए तमस्ख़ुर कहा।
सिर्फ़ एम.ए. तक। उसने तंज़न कहा।
पशेमान होने की कोई ज़रूरत नहीं, हँसो और खेलो, तुम्हारी छेड़-छाड़ से मैं बहुत ख़ुश हूँ क्योंकि एक अर्से के बाद मुझे ये दिलचस्प मौक़ा मयस्सर आया है। इस इत्तिफ़ाक़िया मुलाक़ात से मेरा चुल्लूओं ख़ून बढ़ गया है। दूसरे मेरी हैअत-कज़ाई ही ऐसी थी कि ख़्वाह-मख़्वाह हँसी आती है मगर मैं मजबूर हूँ क्योंकि अर्सा-ए-दराज़ से मैं इस पहाड़ी इलाक़े में रहता हूँ और ये सूरज की चमकीली किरणें जो बर्फ़ पर जगमगा कर दिलकश सीन पेश करती हैं, आँखों के लिए सख़्त मुज़िर हैं, इसीलिए मैंने दोहरी ऐनकें चढ़ा रखी थीं और सोलह हैट भी इस सिलसिले में बहुत मुफ़ीद है। ये चेहरे को बर्फ़ानी अक्स से महफ़ूज़ रखता है। इस तरह जिस्म के दूसरे हिस्से भी ढाँपने पड़ते हैं। अगर ऐसा न करूँ तो इस बर्फ़ानी हवा से मेरे मसाम फट जाएँ और मुझे भी ख़ारिश की बीमारी लग जाए, जो इन इलाक़ों में आम है।
उसकी तर्ज़-ए-गुफ़्तुगू इतनी सादा और मुअस्सिर थी कि हम सब उससे माफ़ी माँगने पर मजबूर हो गए। वो एक नेक-दिल इंसान था। बहुत जल्द हम लोगों से मानूस हो गया। खाने के बाद हमने उसको अपने ख़ेमे में ले जाना चाहा कि हमें अपनी सियाहत का कोई दिलचस्प वाक़िआ सुनाए। उसने वादा किया कि हमें एक दिलचस्प और सच्ची कहानी सुनाएगा। लेकिन चूँकि वो रात को तल्ख़ा पीने का आदी था, इसलिए उसने कहा,आप लोग ख़ेमे में जाएँ, मैं अभी तल्ख़ा पी कर आता हूँ। हम ख़ेमे में वापस आए और उसी ख़िर्क़ा-पोश का ज़िक्र करते हुए उसके इंतिज़ार में बिस्तरों में पड़ गये। मगर पेश्तर इसके कि वो हमारे ख़ेमे में आता, हम सब सो गए।
सुबह सवेरे जब हम लोग बेदार हुए तो ख़िर्क़ा-पोश याद आया। हमने अपने मुलाज़िम को उसे बुलाने के लिए दुकान पर भेजा। थोड़ी देर में वो अकेला ही वापस आ गया मगर उसके हाथ में काग़ज़ों का एक पुलिंदा था। उसने हमारी तरफ़ बढ़ाते हुए कहा,वो ख़िर्क़ा-पोश ख़ुद तो चला गया है, अलबत्ता काग़ज़ात आपके लिए दुकानदार के पास छोड़ गया है। हम सब उस पुलिंदे पर एक साथ टूट पड़े। बेरूनी काग़ज़ लिफ़ाफ़े की सूरत में पुलिंदे पर लिपटा हुआ था जिस पर लिखा था,
मेरे नौ उम्र और नौ वारिद दोस्तो! रात मैंने वादा किया था कि तुम्हें कोई दिलचस्प वाक़िआ सुनाऊँगा। लिहाज़ा जब मैं तुम्हारे ख़ेमे में आया तो तुम लोग जवानी की राहत-आमेज़ नींद का मज़ा ले रहे थे। मैंने तुम्हें जगाना मुनासिब न समझा लेकिन ये दास्तान जिसके सुनाने का मैं तहैया करके आया था। तुम लोगों को सोता हुआ देख कर बार-ए-गिराँ की तरह महसूस होने लगी। मेरे पास इतना वक़्त न था कि सुबह तक ठहर सकता, क्योंकि मैं उन घोड़े वालों के साथ, जो मुँह अँधेरे ही इधर से गुज़रते हैं, जाने का वादा कर चुका था। अगर ऐसा न करता तो ये दुश्वार-गुज़ार रास्ता पैदल तै करना पड़ता, इसलिए अपने दिल का बोझ हल्का करने के लिए कहानी क़लम-बंद कर रहा हूँ, ये मेरी आप बीती है!
(2)
मैं एक सय्याह हूँ। सिर्फ़ सय्याह ही नहीं बल्कि सय्याह-ए-अकबर कहना ज़्यादा मौज़ूँ होगा। ये ख़ब्त मुझे बचपन से था जो किसी वक़्त चैन न लेने देता था। मैं बाप के डर से, अपने दिल पर जब्र करके तालीम में मसरूफ़ रहा। तालीम के ख़त्म होते ही मेरे वालिदैन भी जन्नत को सिधार गए। मैं अकेला रह गया। वो मुर्दा जज़्बात वक़्त के तक़ाज़ों से फिर बेदार हुए। सैलानी तबिअत नया रंग लाई लिहाज़ा आज से बारह साल पेश्तर सीज़न गुज़ारने की ख़ातिर पहलगाम आया। मेरे साथ दो क्लास-फ़ेलो इनायत और मिर्ज़ा भी थे जो कि मेरी तरह दिल दादा-ए-सियाहत थे, जिनकी सेहत गोया समंद-ए-शौक़ पर ताज़ियाना थी। हम दिन रात पहाड़ों और जंगलों में घूमने लगे।
आख़िर एक दिन हमने अपने पहाड़ी मुलाज़िम से अमरनाथ की तारीफ़ सुनी। बस फिर क्या था फ़ौरन कील काँटे से लैस होकर चल पड़े। इतवार का दिन था, चमकदार धूप सैलाब नूर की तरह नशेब-ओ-फ़राज़ पर बह रही थी। तमाम लधर वैली पर नूर का आलम था। दस बजे हम पहलगाम से चले और एक बजे तक चंदन वाड़ी जा पहुंचे। हमारे साथ छ क़ुली और तीन बार बरदारी के टट्टू थे। थोड़ी देर हमने चंदन वाड़ी में दम लिया और खाना जो साथ पकाकर लाए थे, खाकर आगे रवाना हुए। हमारा ख़्याल था कि ग़ुरूब-ए-आफ़ताब तक शेष नाग पहुँच जाएंगे मगर अभी चंद मील ही का सफ़र तय किया था कि साया बादलों ने चारों तरफ़ से ग़ूल-ए-बयाबानी की तरह फैलना शुरू किया तो क़ुली ने कहा,जितनी जल्द हो सके इस हद से निकल जाना चाहिए। क्योंकि इस मक़ाम पर बारिश अक्सर ख़तरनाक और शदीद होती है।
हमने अपनी रफ़्तार तेज़ कर दी लेकिन आध घंटा के अंदर हर तरफ़ इस क़दर धुंद छा गई कि हाथ पसारे दिखाई न देता था और साथ ही तूफ़ान बाद-ओ-बाराँ ने आ लिया। हवा का ज़ोर दम-ब-दम बढ़ रहा था। जिसकी गूँज से कानों के पर्दे फटे जा रहे थे। नदी का मद्द-ओ-जज़्र हवा के ग़ज़ब-नाक थपेड़ों के साथ हर लहज़ा बढ़ रहा था, गोया उसकी ख़ौफ़नाक लहरें उछल-उछल कर हमें निगलना चाहती हों। हम चट्टानों और झाड़ियों का सहारा लेकर चलने लगे और उसी हालत में उस हद को उबूर कर लिया। अब रास्ता काफ़ी खुला था और नदी भी दूर होती जा रही थी लेकिन बद-क़िस्मती से ज़ालह-बारी होने लगी। ओलों की बौछार से अपने पराए की तमीज़ न रही। हमने बे-तहाशा दौड़ना शुरू क्या। गो ज़ालह-बारी से हमारी बरसातियाँ और टोपियाँ सीना ग़िर्बाल बन गई थीं फिर भी हमने हिम्मत न हारी और बढ़ते चले गए। कुछ देर बाद ज़ालह-बारी तो ख़त्म हो गई मगर मेंह ब-दस्तूर जारी रहा। आख़िर एक लम्बे और दुश्वार सफ़र के बाद हमें दूर से झोंपड़ी दिखाई दी। हम गिरते-पड़ते वहाँ तक जा पहुँचे।
ये घास-फूस की झोंपड़ी बिल्कुल ग़ैर-आबाद थी। शायद किसी सय्याह ने यहाँ कभी क़ियाम किया था, जिसके कोने में एक शिकस्ता चूल्हा था और क़रीब ही सूखे पत्तों का एक ढ़ेर लगा था और एक तरफ़ प्याल बिछी थी। हमने आग जलाकर कपड़े ख़ुश्क किए और क़ुलियों का बे-सब्री से इंतिज़ार करने लगे हत्ता कि शाम हो गई और वो न आए। अब उस वीरान झोंपड़ी में रात गुज़ारने के सिवा कोई और चारा न था। चुनाँचे हम तीनों भूके प्यासे दोस्तों ने ख़ुश्क पत्ते और प्याल वग़ैरा जलाकर रात काट दी, गो तमाम रात हमें रीछों की गुर्राहट और दूसरे जँगली जानवरों की आवाज़ें आती रहीं, मगर आग रौशन होने की वजह से हम उनकी दस्त-बुर्द से महफ़ूज़ रहे।
ख़ुदा-ख़ुदा करके सुबह हुई। मतला बिल्कुल साफ़ हो चुका था और क़ुर्स-ए-आफ़ताब संग-ए-पारस की तरह बे-रंग दुनिया को जिला दे रहा था। हम उस तारीक झोंपड़ी से निकले ही थे कि हमारे क़ुली भी हमें तलाश करते हुए आ पहुँचे जिन्होंने हमें बताया कि हम लोग रास्ता भटक कर उस जगह आ गये थे। वो तमाम रात हमें तलाश करते रहे और ये जगह चंदन वाड़ी और शेष नाग से बहुत दूर दूसरी तरफ़ वाक़ेअ् है। इस ख़बर से हम बहुत अफ़सुर्दा हुए। लेकिन उस वक़्त हमें सख़्त भूक लग रही थी, हमने क़ुलियों से पूछा,क्या इस जंगल के क़ुर्ब-ओ-जवार में कोई गाँव है। उन्होंने कहा,हाँ, यहाँ क़रीब ही एक ख़ूबसूरत वादी है जिसमें थोड़े-थोड़े फ़ासले पर तीन गाँव आबाद हैं जिनमें क्रूर और हारी तो दोनों गाँव छोटे-छोटे हैं मगर नग पोह बड़ा गाँव है। हम भूक से बे-ताब हो रहे थे। ये मशवरा किया उधर चलें और शिकम-पुरी करें। ग़रज़ ये कि हम सीधे रास्ते पर आगे की तरफ़ रवाना हुए।
फ़ज्र का पहला नूरानी समाँ था और ख़ुशनुमा रास्ता पहाड़ी के दामन में बल खाती हुई दंदाना-दार सड़क, खड में बहती हुई मुँह ज़ोर बर्फ़ानी नदी, देव-ज़ाद चट्टानें, मुनियो स्वाद वादियों की फ़िरदौसी शान और क़ुदरत के हक़ीक़ी जलवे तर-ओ-ताज़गी बख़्श रहे थे। क़रीबन एक मील के फ़ासले पर जाकर बुलंद पहाड़ के नीचे एक ख़ूबसूरत और शादाब वादी दिखाई दी। हम एक बरसाती नाले के ढलवाँ रास्ते के ज़रिए वादी में उतर गए।
ये वादी सचमुच सरापा हुस्न थी जिसकी ख़ामोश सरज़मीन से हुस्न की किरनें फूटी पड़ती थीं। इर्दगिर्द के पहाड़ों की बर्फ़ पोश चोटियाँ सूरज की शफ्फ़ाफ़ और भड़कीली किरनों की बदौलत निहायत आब-ओ-ताब से जलवा-रेज़ थीं। सब्ज़े का निखरा हुआ रंग आँखों में खुब रहा था, धान के मुख़्तलिफ़ रंगों के खेत नूर आगीं बहार दिखा रहे थे। ज़िरिश्क की बेलें फूली हुई थीं जिनकी खट-मिट्ठी ख़ुशबू से तमाम वादी महक रही थी। उन क़ुदरती रंगीनियों से हमारी रूह तक मुस्कुराने लगी। थोड़ी दूर एक छोटी सी बिल्लौरीं नदी चमकीले संगरेज़ों से खेलती और उनकी संग दिली पर अश्क-ए-हसरत बहाती हुई आहिस्ता-आहिस्ता बह रही थी, जिसके पार दरख़्तों का एक ज़बरदस्त झुंड था जहाँ से गाने की हल्की-हल्की आवाज़ आ रही थी। आगे बढ़ कर मालूम हुआ कि दरख़्तों के दरमियान एक क़ब्रिस्तान है जिसमें घनी घास खड़ी थी। उसके आख़िरी सिरे पर एक तवील-ओ-अरीज़ अहाता था। क़ब्रिस्तान और अहाता को जुदा करने की ग़रज़ से ज़िरिश्क की बेलों की ऊँची बाड़ बाँधी गई थी। जिसके दूसरी तरफ़ पत्थर की इमारत थी जहाँ कोई धीमे सुरों में गा रहा था।
हमलोग बाड़ फाँद कर इमारत की तरफ़ गए। इमारत के दरवाज़े बंद थे। उस इमारत के सामने एक वसीअ् चमन था जिसके आख़िरी सिरे पर दूर से एक ख़ूबसूरत, कश्मीरी तर्ज़ का दो मंज़िला झोंपड़ा दिखाई दिया। जूँ-जूँ हम आगे बढ़े, गाने की आवाज़ साफ़ और बुलंद होती गई। गाने वाले की आवाज़ में इतना रस था और लय इतनी दिल-नशीं थी कि हम लोगों से ज़ब्त न हो सका। हम बेताबी से चमनिस्तान में घुस कर गाने वाले को तहय्युर ज़ा-निगाहों से देखने लगे। यहाँ एक छोटे से झरने के क़रीब और ख़ुश-रंग फूलों की क्यारियों के दरमियान एक छोटा सा ताज़िया नुमा छप्पर था जिसके नीचे एक परीज़ाद लड़की बैठी उर्दू ज़बान में एक फ़िराक़िया गीत गा रही थी।
यह गाने वाली हसीना निहायत नाज़ुक-अंदाम थी। उसके शब रंग और दराज़ बाल तन-ए-नाज़ुक के गिर्द हिसार किये हुए थे। चूँकि वो हमारी तरफ़ पुश्त किये बैठी थी इसलिए उसे हमारी मौजूदगी का इल्म न हो सका। हम उस नग़मा के नशे में सरशार देर तक चुप-चाप खड़े रहे लेकिन जूँही गाना ख़त्म हुआ हम उसके क़रीब चले गये। हमारे पाँव की चाप सुन कर उसने रबाब परे रख दिया और चेहरे से बिखरे हुए बालों की लटें हटाईं। आह, क्या बताऊँ वो किस क़दर हसीन थी। हुस्न की तजल्लियों से हमारी आँखें फटी की फटी रह गईं। उसकी नूरानी झलक से गुमान हुआ जैसे चाँद एक-एक काली बदलियों से निकला हो, उसकी सुर्ख़-ओ-सफ़ेद रंगत बिल्कुल इस तरह थी जैसे मैदा और शहाब समोया हुआ हो। इसके ख़ुशख़त हिलाली अब्रुओं के नीचे बड़ी-बड़ी मस्त आँखों में मय-ख़ानों की बस्तियाँ आबाद थीं। उसके गेसुओं से मुसव्विर की दुआ लिपटी हुई थी। उसका गोल और दरख़्शाँ चेहरा आफ़ताब को शर्मा रहा था और गुदाज़ बाज़ुओं में बुत-कदे की रागिनी सोई हुई थी, ग़रज़ ये कि हर लिहाज़ से वो तख़्लीक़ की पहली सहर मालूम होती थी।
वो सुर्ख़ पश्मिने का एक लम्बा पैरहन पहने थी और सर पर सुर्ख़ रंग का हलका-फुलका रुमाल ओढ़ रखा था जिसके नीचे से शब-रंग बाल कमर तक लटकते हुए निहायत भले मालूम होते थे। उसकी कमर में बँधा हुआ सियाह रेशमी पटका इस तरह था जैसे संदल के दरख़्त के इर्द-गिर्द मार सियाह। ऐसा बे-मिसाल हुस्न देख कर हमारे दिल पहलुओं में धड़कने लगे। वो इस ज़मुर्रदीं ख़ित्ते की लाल परी थी या सुर्ख़ बीर बहूटी।
हमने मुख़्तसर लफ़्ज़ों में उसे अपने ख़्यालात से आगाह किया। पहले तो वो चंद मिनट तक हमें तअज्जुब से देखती रही, फिर मासूमाना अंदाज़ से मुस्कुराई। हमें महसूस हुआ कि शायद शब-ए-यल्दा में बिजली आसमान का सीना चीर कर कौंद रही है। उसकी मुस्कुराहट से हम सबके मुज़्महिल चेहरे खिल गए। वो हमें दो मंज़िला झोंपड़े के अंदर ले गई। एक बड़े कमरे में फूलदार नमदे और ख़ूबसूरत गद्दे बिछे हुए थे और खूँटियों के साथ जा बजा फूलदार आबी नबातात के लम्बे-लम्बे हार लटक रहे थे जो मेंढ़ियों की तर्ज़ पर गूँधे गए थे। ग़रज़ ये कि कमरे की हर एक चीज़ साफ़ सुथरी और क़रीने से रखी हुई थी।
वो हमारे लिए खाना लेने गई और हम उसकी बाबत आपस में बातें करने लगे। मैं ने कहा,शायद वो यहाँ अकेली रहती है। क्योंकि सिवाए उसके कोई दूसरा आदमी दिखाई नहीं देता। मिर्ज़ा ने कहा,ऐसा नहीं हो सकता, उसका साथी कहीं बाहर खेत पर होगा। इतने में वो खाना ले आई जो लकड़ी के ख़ूबसूरत कासों में रखा हुआ था। ये खाना भी अजीब तरह का था यानी उबले हुए सेब जिनमें दही मिला हुआ था। दूध की रोटियाँ, शहद, अंडे, पनीर, ज़िरिश्क, कच्चे अख़रोट और एक ख़ास क़िस्म की घास जो पानी में उगती है और मग़्ज़ अख़रोट के साथ खाई जाती है। ये सब चीज़ें ब-इफ़रात थीं। ऐसे मुफ़लिस इलाक़े में ऐसा खाना यक़ीनन किसी जागीरदार को भी मयस्सर न आ सकता था।
हमने कहा, आपने उर्दू ज़बान किससे सीखी? उसने कहा, अपने वालिदैन से। वो पेशावर के रहने वाले थे। हमने पूछा,आपका इस्म-ए-शरीफ़? उसने कहा,मेरा नाम शगूफ़ा है! क्या प्यारा नाम था। वो ख़ुद तो अभी शगूफ़ा थी ही लेकिन अपने हुस्न-ए-नौ-रस्ता से दूसरों के दिलों के शगूफ़े खिला देने का एज़ाज़ भी रखती थी। हम लोगों ने सिलसिला-ए-कलाम जारी रखते हुए कहा,इस ग़ैर-मुहज़्ज़ब इलाक़े में आप कैसे आईं? उसने कहा,क़िस्मत ले आई! हमने पूछा,आपका शरीक-ए-ज़िंदगी ग़ालिबन काम पर गया होगा। उसने शर्मा कर जवाब दिया,नहीं मैं तो कुँवारी हूँ। हमने कहा,लेकिन आपके लवाहिक़ीन? उसने कहा,मेरा कोई भी नहीं है। मैं बिल्कुल अकेली हूँ।
अकेली? हम सबने बे-ऐतिबारी से कहा और हैरत से उसकी तरफ़ देखने लगे।
हाँ बिल्कुल अकेली। उसने मतानत से कहा।
मगर ये साज़-ओ-सामान? हमने कहा।
सब गाँव वाले मेरे लिए मुहैया करते हैं। उसने फ़ख़्र से कहा। उसके बाद हमने कई एक सवाल किए मगर उसने कोई तसल्ली-बख़्श जवाब न दिया बल्कि टालती रही।
खाने के बाद हम वहाँ से रुख़्सत हुए और रास्ते भर शगूफ़ा के मुतअल्लिक़ बातें होती रहीं। उस वादी की रंगीनियों और शगूफ़ा की पुर-लुत्फ़ मुलाक़ात का हम पर इतना गहरा असर हुआ कि हमने कुछ दिन यहाँ क़ियाम करने का तहैया कर लिया। चुनाँचे हमने वापस आकर उसी वीरान झोंपड़ी के क़रीब डेरे डाल दिए। और रोज़ाना शगूफ़ा के घर जाकर उसकी पाकीज़ा सोहबतों से दिल बहलाने लगे। मगर मेरे दिल पर उन मुलाक़ातों का ख़ास असर हो रहा था। ताहम मुझे कोई ऐसा मौक़ा न मिला कि कभी तन्हाई में मिल कर उससे अपने ख़्यालात का इज़हार करता। शगूफ़ा भी मुझ पर बहुत मेहरबान थी और मेरे दोस्तों की निस्बत मेरी बातों से बहुत ख़ुश होती थी। लेकिन दिल का हाल ख़ुदा को मालूम होगा। मैं उसके मुतअल्लिक़ क्या कह सकता था। अलबत्ता ख़ुद दिल-ओ-जान से उस पर फ़िदा होने लगा। चंद दिन बाद मेरे दोस्तों ने वापसी का इरादा किया और मुझे भी उनकी अंगुश्त-नुमाई के डर से मजबूरन उनके साथ वापस आना पड़ा।
(3)
शगूफ़ा के हुस्न-ओ-जमाल की कशिश कोई मामूली न थी। उसकी भरपूर जवानी मह्शर-ख़ेज़ शबाब, मस्ताना चाल, शीरीं-कलामी और उन सबसे बढ़ कर मासूमियत मेरे दिल में घर कर चुकी थी। मेरा दिल उसकी परस्तिश करता था ताहम दिन रात उसकी याद में तड़पने के बावजूद मैं तीन साल तक कश्मीर न जा सका। आख़िर चौथे साल बद-क़िस्मती फिर मुझे वहाँ ले गई। शगूफ़ा के इश्तियाक़ में जो मेरे दिल की मल्लिका और मेरी ख़ुशियों का गहवारा थी,मैं दोबारा पहलगाम पहुँचा, लेकिन वहाँ ब-मुश्किल एक रात ठहरा और दूसरे दिन सुबह शफ़क़ के रंगीन सायों में रवाना हो कर चार बजे तक अपनी खोई हुई जन्नत में पहुँच गया, जिसकी वसीअ आग़ोश में पाकीज़गी और मासूमियत परवरिश पाती थी, जिसके दराज़ दामनों में मस्तियाँ और रानाइयाँ खेलती थीं, जिसकी चौड़ी छाती पर बिल्लौरीं नदियाँ मचलती थीं, जहाँ धान के खेतों पर हुस्न-ए-अज़ली लहलहाता था, जहाँ ज़मुर्रदें दरख़्तों की नूरानी सज-धज शादाबियों का मुँह चिढ़ाती और जहाँ के सजीले फूलों की नज़ाकत पर ख़ुद क़ुदरत रश्क करती थी।
मैं वालिहाना अंदाज़ से मस्कन-ए-महबूब में दाख़िल हुआ। चमनिस्तान फूलों से पटा पड़ा था। वो एक कुंज में सूरज-मुखी के फूलों के दरमियान बैठी एक ख़ास क़िस्म की नर्म-ओ-नाज़ुक घास के तिनकों से अपने लिए पापोश तैयार कर रही थी। उस वक़्त वो आफ़ताबी रंग के लिबास में थी। उसका गुलाबी चेहरा सूरज की ख़ुश गिरामी से क़ंधारी अनार के ख़ुशनुमा दाने की तरह सुर्ख़ हो रहा था और सर के बाल काली नागिन की तरह हवा में लहरा रहे थे। उस दिल-फ़रेब नज़ारे से मुतअस्सिर होकर मैं वहीं मब्हूत खड़ा रह गया। कुछ देर बाद इसने अपने काम से उकताते हुए, अँगड़ाई ली तो अचानक इसकी निगाह मुझ पर पड़ी। मैं दौड़ कर इसके क़रीब गया। मुझे पहचान कर उसकी आँखें ख़ुशी से चमकने लगीं। उसने बड़े तपाक से मेरा खै़र-मक़दम किया और निहायत ख़ुलूस से झोंपड़े में ले गई।
सफ़र की तकान से मेरी तबियत मुज़्महिल हो रही थी, इसलिए मैं खाना खाकर सो गया। शाम के क़रीब मेरी आँख खुली तो बाहर निकल कर देखा कि कश्मीरी औरतों का एक मेला सा लगा था जिनके दरमियान शगूफ़ा निहायत वक़ार से इस तरह बैठी थी जैसे सितारों के हलक़े में चाँद के सामने एक बहुत बड़े समावार में चाय उबल रही थी। मैं उसे मसरूफ़ पाकर चमनिस्तान की तरफ़ चल दिया। सूरज इस वक़्त पहाड़ों की ऐन बर्फ़ानी चोटियों पर चमक रहा था और नूरानी शुआओं के अक्स से बर्फ़ पर जा बजा क़ौस-ए-क़ुज़ह के रंग झलक रहे थे। उन रंगीन सायों से वादी की शान दोबाला हो रही थी। उधर ज़िरिश्क की खट-मिट्ठी ख़ुशबू दिल को लुभा रही थी।
मैं उन फ़ित्री तजल्लियात की बहारें लूटता हुआ निहायत सुकून-ओ-इत्मीनान से गुल-गश्त-ए-चमन करने लगा। उसी हालत में जबकि मैं चक्कर काट कर ज़िरिश्क की बेलों से गुज़र रहा था तो सामने मुझे ख़िर्क़ा-पोश कश्मीरी खड़ा दिखाई दिया जिसने कश्मीरी ज़बान में आहिस्ते से कहा,यहाँ से भाग जा!
उसने कोई जवाब न दिया और भाग गया।
अभी मैं उस शख़्स की हरकत पर ग़ौर कर रहा था कि पीछे से सीटी की आवाज़ आई, मैंने पलट कर देखा तो पगडंडी पर खड़ा हुआ एक बूढ़ा कश्मीरी मुझे वहाँ से भाग जाने का इशारा कर रहा था। मैं उसकी तरफ़ बढ़ने लगा। मगर उसने इशारे से मुझे रोक दिया, और फिर झोंपड़े की तरफ़ इशारा करके इसने उंगली अपने लबों पर रख ली। जिसका मतलब ज़ाहिर था कि ख़ामोश रहो, वो सुन लेगी। उन लोगों की ऐसी हरकात ने मुझे तज़ब्ज़ुब में डाल दिया। मैं न समझ सका कि ये लोग मुझे किस ख़तरे से आगाह करते हैं, इतने में सूरज की सुनहरी शुआएँ एक-एक कर के रूपोश हो गईं, जंगली दरख़्त, ख़ुश-रंग फूल, पहाड़ी खेत, ख़ुद-रो बेल-बूटे, कुशादा वादी, ग़रज़ ये कि हर एक चीज़ सहम कर रात के तारीक दामन में सोने लगी। मगर मैं आलम-ए-इस्तेअ्जाब में वहीं खड़ा रहा।
यकायक किसी ने मेरे कँधे पर हाथ रखा। मैंने चौंक कर देखा तो अपने क़रीब एक बूढ़ी औरत को खड़ा पाया। जिसने मुझे कश्मीरी ज़बान में कहा,तुम यहाँ क्यों आए हो और कहाँ से आए हो। मैंने जवाब दिया,मैं पंजाबी हूँ और सैर-ओ-सियाहत की ग़रज़ से आया हूँ। उसने कहा, तो क्या तुम्हें रात गुज़ारने के लिए गाँव में कोई जगह न मिल सकी थी जो यहाँ इस बला के दाम में आ फँसे। इतना कह कर वो आगे बढ़ने लगी मगर मैंने उसका हाथ पकड़ लिया और कहा,सच-सच बताओ क्या मामला है? वरना अभी शगूफ़ा को बुला कर सब कुछ बताता हूँ।
इस धमकी से बुढ़िया काँप गई और क़ब्रिस्तान की बाड़ के क़रीब संगीन इमारत के पीछे ले जाकर मुझसे कहने लगी, तुमने देखा कि वो इस जंगल में किस शान-ओ-शौकत से रहती है। मैंने कहा,हाँ। बुढ़िया कहने लगी, ये भी जानते हो कि हमारा इलाक़ा बहुत मुफ़्लिस है। हम ख़ुद चिथड़े पहनते हैं मगर उसके लिए पश्मिने के ज़र-दोज़ लिबास बनाते हैं, ख़ुद रूखा-सूखा खाते हैं और उसके लिए रोज़ाना अच्छी-अच्छी ख़ुराकें बहम पहुँचाते हैं। ख़ुद काँगड़ियों के सहारे बैठ कर रात गुज़ारते हैं मगर उसके घर में हमारे बनाए हुए नमदे और क़ालीन मौजूद हैं। आख़िर ऐसा क्यों करते हैं।
मैंने कहा, मैं क्या जानूँ?
बुढ़िया ने कहा,अच्छा सुनो, शगूफ़ा डाइन है। इंसानी ख़ून उसके मुँह लग चुका है। हम ये सब चीज़ें अपने बचाव की ख़ातिर उसे बतौर नज़राना देते हैं। क्योंकि इससे पेश्तर वह गाँव वालों पर हाथ साफ़ किया करती थी। मगर अब सिर्फ़ भूले-भटके मुसाफ़िरों को ही शिकार बनाती है या क़ब्रों से मुर्दे निकाल कर खाती है। उसका हुस्न-ओ-जमाल सिर्फ़ फ़रेब-ए-नज़र है।
इस इन्किशाफ़ ने मुझे हवास-बाख़्ता कर दिया। आसमान पर सियाही और सफ़ेदी दस्त-ओ-गरेबाँ हो रही थी। तमाम वादी पर धुंदलके का गिलाफ़ चढ़ रहा था... हवाएँ काले चोर की तरह कायनात से दाव घात कर रही थीं। सियाह-पोश फ़िज़ा में झाड़ों की जुंबिश से रूहों के चलने फिरने का गुमान हो रहा था, इस परेशान-कुन माहौल में बुढ़िया के उस बयान का मुझ पर ऐसा असर हुआ कि मैं वाहिमा का शिकार होकर काँपने लगा। सच है, जान बहुत अज़ीज़ होती है। चुनाँचे मैंने बुढ़िया से इल्तिजा की कि आज रात मुझे अपने घर में पनाह दे लेकिन बुढ़िया ने कानों पर हाथ रखे।
मैंने कहा,क्या गाँव में कोई सराय भी है? उसने कहा,कोई नहीं और अगर होती भी तो तुम्हें कोई पता न देता। मैंने कहा,क्यों? बुढ़िया ने कहा,गाँव वाले एक मुसाफ़िर की ख़ातिर शगूफ़ा को दुश्मन कैसे बनाते।
ऐन उसी वक़्त पाँव की चाप सुनाई दी और साथ ही झाड़ियों से ख़फ़ीफ़ सी सरसराहट। बुढ़िया तो फ़ौरन दुम दबाकर भागी, लेकिन मैं बदहवासी के आलम में वहीं खड़ा रह गया। कुछ देर बाद जब मुझे मालूम हुआ कि वो महज़ वहम था तो मेरी जान में जान आई और चेहरे पर बनावटी बशाशत पैदा करते हुए झोंपड़े की तरफ़ चला गया।
झोंपड़े को ख़ाली पाकर मुझे सख़्त फ़िक्र हुई और यक़ीन हो गया कि उसने ज़रूर हमारी बातें सुनी होंगी। मगर अब क्या हो सकता था। मैं चुपचाप कमरे में बैठ गया। उसी असना में वो अंदर दाख़िल हुई और सुस्त अंदाज़ से खाना लाई और निहायत ख़ामोशी से मेरे सामने चुन दिया। उसके इस रवैये से मैं बहुत परेशान हुआ और उससे घुल-मिल कर बातें करने लगा। उसने कुछ तवज्जो न की और टालने की ग़रज़ से उठ कर मेरा बिस्तर तैयार करने में मसरूफ़ हो गई। अब तो मैं बहुत घबराया और खाने से हाथ खींच लिया, जिसे वो ताड़ गई और अपने मग़्मूम चेहरे पर आरज़ी मुस्कुराहट पैदा करते हुए धीमी आवाज़ में बोली,आप ने खाना क्यों छोड़ दिया। मैंने उदासी से कहा,आपकी बे-रुख़ी देख कर। मेरे इस जवाब पर उसने सर झुका लिया और उसकी शराबी आँखों से इस तरह आँसू बरसने लगे जैसे सावन भादों की झड़ी।
ख़ुदा जाने इतने बड़े-बड़े शफ्फ़ाफ़ और नूरानी आँसू उसने कहाँ जमा कर रखे थे कि मैं हैरान रह गया। मगर फ़ौरन उन मस्त आँखों से निकलने वाले आँसुओं ने ऐसा एजाज़ दिखाया कि मेरे तमाम शुकूक उनकी दिल-फ़रेब रौ में बह गए। मैं अपनी ग़लती पर सख़्त नादिम हुआ और उसका भोला-भाला चेहरा देख कर मेरा दिल मोम हो गया।
शगूफ़ा मैं तुमसे मोहब्बत करता हूँ। मैंने टूटे-फूटे जुमलों में कहा। वो ख़ामोश रही। मैंने दोबारा यही अलफ़ाज़ दोहराए।
लेकिन तुम्हारी मोहब्बत... उसने रुकते हुए कहा और फिर ख़ामोश हो गई।
लेकिन का क्या मतलब, शगूफ़ा क्या तुम्हें मेरी मोहब्बत नापसंद है? मैंने कहा।
उसने कुछ जवाब न दिया और किसी गहरी सोच में डूब गई। उसकी ख़ामोशी से मेरी बे-क़रारी दम-ब-दम बढ़ने लगी। मगर वो किसी ऐसे ख़्याल में मह्व थी जैसे उसका इस दुनिया से कोई ताल्लुक़ नहीं।
जल्दी बोलो शगूफ़ा अब मैं सब्र नहीं कर सकता। मैंने मिन्नत करते हुए कहा।
लेकिन तुम्हारी मोहब्बत नाजाएज़ है। उसने जवाब दिया।
नहीं-नहीं शगूफ़ा, मैं किसी नाज़ायज़ मोहब्बत का ख़्वाहिश-मंद नहीं। मैंने कहा। मैं तुम्हें शरीक-ए-ज़िंदगी बनाना चाहता हूँ।
हाँ मैंने समझा, मगर मेरे और तुम्हारे दरमियान एक बेकराँ ख़लीज हाइल है। उसने कहा।
ख़लीज कैसी? मैंने पूछा।
शगूफ़ा ने जवाब दिया,मज़हब।
तो क्या तुम मुसलमान नहीं हो? मैंने तअज्जुब से कहा।
लेकिन मुसलमानों में तो कई फ़िरक़े होते हैं। शगूफ़ा ने जवाब दिया।
नहीं मुसलमान सब एक रिश्ते में मुंसलिक हैं। फ़िरक़ा-वारी हमें एक दूसरे से जुदा नहीं कर सकती। मैंने फ़ैसला-कुन लहजे में कहा।
मगर मैं अपने फ़िरक़े के क़वानीन किसी सूरत में भी नहीं तोड़ सकती। शगूफ़ा ने मतानत से जवाब दिया।
अच्छा तो मुझे भी अपने फ़िरक़े में शामिल करो। क्या तुम ऐसा भी नहीं कर सकतीं? मैंने मिन्नत से कहा।
वो एक लम्बे सुकूत के बाद बोली, हाँ, ऐसा हो सकता है बशर्ते कि पहले मेरे फ़िरक़े में शामिल होने की रुसूम अदा करो।
चुनाँचे मैंने मंज़ूर कर लिया।
(4)
आधी रात का वक़्त था। चाँद की सीमीं किरनें ज़ैतून के चिराग़ की लौ से आँख मिचौली खेल रही थीं। बाल छल की नशीली ख़ुशबू से मस्ती बरस रही थी। मैं कमरे में अकेला बैठा अपनी क़िस्मत के आख़िरी फ़ैसले का इंतिज़ार कर रहा था। इतने में शगूफ़ा अंदर आई। उसने सियाह कम-ख़्वाब का लिबास पहन रखा था और सियाह ही मोतियों के ज़ेवरात नूरानी जिस्म के ज़ीनत बन रहे थे। ये सोगवार अलामत देख कर मैंने आज़ुर्दगी से कहा,शगूफ़ा शब-ए-उरूसी के लिए काला लिबास बहुत मनहूस है।
शगूफ़ा ने जवाब न दिया और निहायत ख़ामोशी से मेरे क़रीब बैठ कर हसरत नाक निगाहों से देखते हुए कहने लगी,अच्छा तुम्हें मेरी शर्त मंज़ूर है। बाद में पछताओगे तो नहीं? मैंने कहा,हरगिज़ नहीं। क़ौल मुर्दां जान दारद। इस मंज़ूरी के बाद उसने मेरी आँखों पर पट्टी बाँध कर एक रेशमी चादर मेरे हाथ में दे दी और एक मंत्र बताकर मुझे हिदायत की कि मैं शगूफ़ा की सूरत का तसव्वुर करके ये मंत्र पढ़ूँ और मंत्र पढ़ते वक़्त ये चादर अपने दोनों हाथों पर फैलाये रखूँ। चंद बार अमल करने से एक परिंदा आकर मेरे हाथों पर गिरेगा। जिसे मैं इस चादर में लपेट कर बग़ल में दाब लूँ। चुनाँचे मैंने ऐसा ही किया। जिसके अमल से चंद सेकंड ही में एक परिंदा फड़फड़ाता हुआ मेरे हाथों में आ गया और मैंने फ़ौरन उसे चादर में लपेट कर बग़ल में दाब लिया।
बाद अज़ाँ उसने मेरी आँखों से पट्टी खोली और मेरे क़रीब बैठ कर कहने लगी, अच्छा मेरी दास्तान-ए-हयात सुनो ताकि मेरी सच्चाई के इज़हार के साथ ही मेरी दास्तान ख़त्म हो जाए। परिंदा बेचारा मेरी बग़ल से आज़ादी हासिल करने की जद्द-ओ-जहद में मसरूफ़ था। इसलिए मैंने उसकी बात काटते हुए कहा,पहले इस बे-ज़बान की क़िस्मत का फ़ैसला तो करो जो मेरी बग़ल में तड़प रहा है। दास्तान-ए- हयात सुनाने को तो तमाम उम्र पड़ी है। उसने बे परवाई से जवाब दिया,इसका कुछ ख़्याल न करो। इसे तड़पने दो क्योंकि मेरे मज़हब का यही फ़रमान है। मैं बे-दिली से ख़ामोश हो गया।
शगूफ़ा ने कहा, आह! मैं बहुत ही बद-क़िस्मत हूँ। अभी मैंने दहर-ए-ना-पायदार में क़दम ही रखा था कि मेरी माँ मर गई। जब मैंने कुछ होश सँभाला तो सौतेली माँ की झिड़कियों और मलामतों के सिवा कभी मेरे कानों ने नर्म अलफ़ाज़ न सुने। मैं जब छ बरस की हुई तो बाप का साया भी सर से उठ गया। गो बाप ने कभी मुझसे मोहब्बत न की थी, ताहम एक ठिकाना तो था सो वो भी जाता रहा। मगर ख़ुदा मुसब्बब-उल-असबाब है। उसने मेरा ठिकाना इस तरह बनाया कि हमारे मोहल्ले की एक नेक-दिल और अमीर औरत ने मेरी परवरिश का ज़िम्मा ले लिया। उस नेक-दिल ख़ातून का एक ही लड़का था जिसको घर से निकले हुए दस साल का तवील अर्सा गुज़र चुका था।
ख़ुदा की क़ुदरत मुझे अभी उनके घर आए थोड़ा अरसा ही गुज़रा था कि भाई उसमान यानी उस नेक दिल ख़ातून का इकलौता बेटा वापस आ गया। माँ मुझे पहले ही बहुत प्यार करती थी मगर अब मुझे अपने लिए मुबारक ख़्याल करते हुए ज़्यादा क़दर करने लगी। हत्ता कि उनकी नाज़-बरदारियों ने मुझे बहुत शोख़ और शरीर बना दिया। लेकिन जहाँ गुल होता है वहाँ ख़ार भी साथ ही होता है यानी भाई उसमान को मेरी शोख़ियाँ एक आँख न भाती थीं। वो अक्सर मुझे ऐसी क़हर-आलूद निगाहों से देखते कि मेरा ख़ून ख़ुश्क होकर रह जाता है।
भाई उसमान ज़र्द-रू और लाग़र-अंदाम थे। उनके मतीन चेहरे से अज़्म- ओ-इस्तक़लाल टपकता था। और पेशानी की शिकनें दानाई और बुज़ुर्गी की शाहिद थीं। उनकी उम्र तीस साल के क़रीब थी। तबियत में हुकूमत का माद्दा था। वो अपनी हर जायज़-ओ-नाज़ायज़ बात मनवाने के आदी थे। भाई उसमान ने माँ को बताया कि वो कश्मीर के इलाक़े में एक दूर दराज़ वादी में दस साल तक मुक़ीम रहे, और आइन्दा भी अपनी ज़िंदगी वहीं गुज़ारने का इरादा रखते हैं। माँ ने हरचंद मना किया मगर वो न माने, बल्कि माँ को भी अपने साथ चलने के लिए इसरार करना शुरू किया, आख़िरकार माँ को उन्होंने रज़ा-मंद या मजबूर कर लिया। इस तरह हमारा आठ अफ़राद का क़ाफ़िला इस वादी में पहुँचा, यानी एक उसमान भाई ख़ुद, दूसरी मैं, तीसरी माँ, चौथा चचा, दो बूढ़ी ख़ादिमाएं और दो ग़ुलाम। कुछ दिन तक तो हम लोग बहुत उदास रहे। लेकिन क़ुदरत ने इस वादी को हुस्न-ओ-दिलकशी का वाफ़िर हिस्सा दे रखा था। इसलिए हम चंद ही दिन में इस क़ुदरती ज़िंदगी के आदी हो गए।
भाई उसमान फ़ितरतन ख़ुश्क-तबियत और ख़ल्वत-पसंद वाक़ेअ् हुए थे। इस अहाता के दूसरे सिरे पर जो इमारत खड़ी है, ये उनकी लाइब्रेरी थी। वो दिन में एक मर्तबा माँ से मिलने आते, बाक़ी तमाम वक़्त उसी लाइब्रेरी में गुज़ारते और रात को बहुत देर से घर आते। मुझे इस तजुर्बा-गाह की तरफ़ जाने का हुक्म न था। बल्कि घर में भी जब कभी मेरा उनका सामना हो जाता तो ख़्वाह-मख़्वाह ऐसी डाँट बताते जिससे मैं सहम जाती और हमेशा उनकी नज़रों से दूर रहने की कोशिश करती।
दिन गुज़रते गए। मेरी माँ ने मुझे उर्दू-फ़ारसी की किताबें पढ़ाईं और थोड़ा बहुत लिखना भी सिखाया। लेकिन बद-क़िस्मती ने साथ न छोड़ा, जब बारह साल की हुई तो माँ ने इंतिक़ाल किया। थोड़े अर्सा बाद चचा भी मर गया और फिर दोनों मुलाज़िम और एक ख़ादिमा भी यके बाद दिगरे हमेशा के लिए दाग़-ए-मुफ़ारिक़त दे गए। अब भाई उसमान के अलावा सिर्फ़ मैं और बूढ़ी ख़ादिमा घर में बाक़ी रह गये। भाई उसमान ब-दस्तूर अपनी लाइब्रेरी में रहते थे। गो अब उन्होंने अपनी सख़्त-गीरी से हाथ उठा लिया था मगर मुझे मुँह भी न लगाते थे। मैं मजबूरन तन्हाई की ज़िंदगी बसर करती रही। आख़िर जूँ-जूँ मेरी उम्र बढ़ती गई, मुझे एहसास होने लगा कि मैं इस घर में ग़ैर हूँ और इसी वजह से भाई उसमान मुझसे खिंचे-खिंचे से रहते हैं। हालांकि मेरी ज़ात से कभी उन्हें तकलीफ़ नहीं पहुँची।
उम्र के साथ हौसला भी पैदा हो जाता है। चुनाँचे मैंने तहैया कर लिया कि आज ज़रूर भाई उसमान से इस शदीद और नामालूम नफ़रत की वजह दरयाफ़्त करूंगी। अगर मेरा वजूद ही उनके किसी दुख का बाइस हो तो मैं इस घर से रुख़्सत हो जाऊँगी। इसी ख़्याल से मैं रात को देर तक उनका इंतिज़ार करती रही। उन्होंने उस दिन खाना भी न खाया। बूढ़ी ख़ादिमा बेचारी उनका खाना आतिश दान के क़रीब रखे दिवार के सहारे ख़र्राटे भरती रही। उधर मैं उनके इंतज़ार में बिस्तर पर करवटें ले रही थी। हत्ता कि ये इंतिज़ार की घड़ियाँ मेरे लिए ना-क़ाबिल-ए-बर्दाश्त हो गईं, नाचार मैं लाइब्रेरी की तरफ़ चली गई। मगर दरवाज़े पर पहुँच कर कुछ झिजकी। भाई उसमान की ख़फ़ेगी के ख़्याल से काँप गई। ताहम मैंने फ़ौरन ही अपने दिल को मज़बूत किया कि भाई उसमान भी तो आख़िर इंसान ही हैं, कोई हव्वा तो नहीं। मैंने दस्तक देने के इरादे से दरवाज़े की तरफ़ हाथ बढ़ाया तो दरवाज़े का पट हाथ लगते ही चूँ से खुल गया। मैं बौखला कर पीछे हटी। मेरा ख़्याल था कि अभी उसमान भाई अपनी भारी-भरकम आवाज़ में लल्कार कर कहेंगे, कौन है। लेकिन जब ख़िलाफ़-ए-उम्मीद कोई आवाज़ न आई तो मैंने झाँक कर अंदर देखा।
कमरा ख़ाली था। मैं चुपके से अंदर दाख़िल हुई। ताक़चे पर मोमबत्ती जल रही थी। मेज़ पर किताबें बे-तरतीबी से बिखरी हुई थीं। क़रीब ही भाई उसमान की टोपी पड़ी थी और कोट एक तरफ़ खूँटी पर लटक रहा था। कमरे में किसी दुआ की हल्की-हल्की बू फैल रही थी। मैं हैरान थी कि भाई उसमान ऐसे बेसर-ओ-सामानी से कहाँ जा सकते हैं। यक दम मेरी नज़र दिवार से लगे हुए एक बड़े क़ता पर पड़ी जो मुझे कुछ अजीब सा मालूम हुआ। मैंने ग़ौर से देखा तो उसपर लिखी हुई सतरों में हुरूफ़ के बजाए आज़ा की सूरतें दी गईं थीं। मसलन कान, नाक, आँखें, ज़बान, दाँत, दिल, मेदा, तिल्ली, कलेजा, फेफड़े, गुर्दे वग़ैरह। हर एक उज़्व की तस्वीर दे कर इबारत के तरीक़े पर सतरें लिखी गई थीं। न जाने ये कौन सी ज़बान थी। मैं देर तक उसे समझने की कोशिश करती रही। मगर कामयाब न हुई।
क़रीब ही एक अलमारी थी जिसका एक पट खुला हुआ था। इत्तिफ़ाक़न मेरी नज़र उसके अंदरूनी हिस्से तक पहुँची। ये अलमारी दर-अस्ल एक छोटा सा संदूक़-नुमा कमरा था जिसके अंदर एक ज़ीना था। जो नीचे गहराई में जा रहा था। मअन मुझे ख़्याल आया कि हो न हो ज़रूर भाई उसमान ने अपनी तफ़रीह की कोई जगह बना रखी है, लिहाज़ा ये असरार खोलने के लिए मैं दबे पाँव नीचे उतरने लगी तो बहुत सी सीढ़ियाँ उतरने के बाद कुछ रौशनी दिखाई दी।
तहत-उस-सरा में एक छोटा सा तह-ख़ाना था जिसमें अजीब क़िस्म की रौशनी हो रही थी। सीढ़ियों के क़रीब ही लकड़ी का एक बड़ा सा शेल्फ़ पड़ा था जिसमें पत्थर के बड़े-बड़े मर्तबान और टीन के बड़े-बड़े डिब्बे रखे हुए थे। मैं रेंगती हुई उस शेल्फ़ के पीछे छुप गई और शेल्फ़ के कोने से झाँक कर अंदर का नज़ारा करने लगी। तह-ख़ाने के कोने में आग जल रही थी। उस आग का रंग बिल्कुल सब्ज़ था और ये तह-ख़ाना धुएँ से भरा हुआ था मगर उस धुएँ से दम घुटने की बजाए एक तरह की फ़रहत हासिल होती थी। तह-ख़ाने का अंदुरूनी हिस्सा उस धुएं की कसीफ़ चादर में लिपटा हुआ बिल्कुल एक सब्ज़ ग़ुब्बारे की तरह दिखाई देता था। उस ग़ुब्बारे में सामने लकड़ी का एक बड़ा सा मेज़ रखा था जिस पर फूलों की सेज बिछी हुई थी और उस सेज पर कोई सफ़ेद चादर ओढ़े सो रहा था। सोने वाले की पायंती की तरफ़ दो-तीन शीशे के प्याले पड़े थे जिनमें कोई सियाह सी चीज़ पड़ी हुई हिल रही थी, कोने के क़रीब ही आग से थोड़ी दूर दिवार के साथ वैसा ही एक क़ितअ लटक रहा था जैसा कि मैं ऊपर अभी देख चुकी थी। उस क़ितए के सामने भाई उसमान बुत बने खड़े थे। उनकी पुश्त मेरी तरफ़ थी।
यक-लख़्त वो मेज़ की तरफ़ पलटे तो उनके हाथ में फेफड़ों समेत एक कलेजा दिखाई दिया जो उन्होंने साँस वाली नाली के ऊपर वाले सिरे से पकड़ रखा था। उसे देख कर मेरा दिल धक-धक करने लगा। मैं भाग जाना चाहती थी मगर ताक़त ने जवाब दे दिया और लरज़ाँ बर-अंदाम शेल्फ़ के सहारे बैठी हुई सब कुछ देखती रही। भाई उसमान के हाथ में पकड़ा हुआ कलेजा पूरी तरह तड़प रहा था जिसे उन्होंने शीशे के ख़ाली प्याले में डाल दिया। उस कलेजे की हरकत इस क़दर बढ़ चुकी थी कि वो उछल-उछल कर प्याले से बाहर निकलना चाहता था। भाई उसमान ने अब जेब से घड़ी निकाली और देर तक उसकी हरकत का घड़ी की रफ़्तार से मुक़ाबला करते रहे।
इसके बाद वो आहिस्ता-आहिस्ता सोने वाले के सिरहाने पहुँचे और उसके मुँह से कपड़ा हटाकर उस पर झुक गए, और बहुत देर तक उसे देखते रहे। वो कभी आहिस्तगी से उसके जिस्म पर हाथ फेरते, कभी हल्की-हल्की जुंबिश दे कर उसे जगाने की कोशिश करते मगर सोने वाले ने कोई हरकत न की। आख़िर उसकी बेदारी से मायूस होकर भाई उसमान ने उस पर से चादर उतार दी। अब मुझे मालूम हुआ कि ऐसी गहरी नींद सोने वाली एक नीम बरहना औरत थी। गो उसका चेहरा भाई उसमान के साए की ओट में होने से मुझे दिखाई न दिया मगर उसके जिस्म का बाक़ी हिस्सा, जो सूख कर हड्डियों का ढाँचा बन चुका था, साफ़ ज़ाहिर होता था कि कोई मरीज़ा है।
भाई उसमान ने उस मरीज़ा को गोद में उठा लिया और जलती आग के पास खड़े होकर उसके जिस्म को आग की गर्मी पहुँचाने लगे। दफ़्अतन मुझे उस मरीज़ा के चेहरे की थोड़ी सी झलक दिखाई दी। जिससे मुझ पर दहशत तारी हो गई। आह वो एक लाश थी। जिसकी टाँगें एक तरफ़ लटक रही थीं। सर और बाज़ू दूसरी तरफ़, उसकी लाश के लम्बे-लम्बे बिखरे हुए बाल भाई उसमान के पाँव को छू रहे थे। ख़ौफ़-ओ-हिरास से मुझ पर एक तशन्नुजी दौरा पड़ा और तह-ख़ाना एक सब्ज़ ग़ुब्बारे की तरह हवा में उड़ता हुआ मालूम हुआ। एक हौल-नाक चीख़ मेरे मुँह से निकली और बेहोश हो गई।
शगूफ़ा यहाँ तक पहुँच कर यक-दम रुक गई। वो कुछ थकी हुई मालूम होती थी। और उधर परिंदा मेरी बग़ल में दम तोड़ रहा था। मैंने मुज़्तरिब होकर कहा,ख़ुदा के लिए जल्द कहानी ख़त्म करो। तुम्हारी इस तवील कहानी से इस जानवर का ख़्वाह-मख़्वाह ख़ून हो जाएगा। शगूफ़ा ने बुरी तरह हाँप कर कहा,फिर इसी परिंदे का ज़िक्र।
एक दफ़ा मैं कह चुकी हूँ कि ये मारने की ख़ातिर तुम्हारी बग़ल में दिया गया है।
मुझे उसकी संग-दिली पर अफ़सोस हुआ। थोड़े वक़्फ़े के बाद उसने कहना शुरू किया,उस पुर-होल वाक़िए के बाद जब मैं होश में आई तो ख़ुद को अपने बिस्तर पर पड़ा हुआ पाया। मैंने ख़्याल किया कि ये सब कुछ मैंने ख़्वाब में देखा है। चूँकि सर्दी से मेरे बदन में कपकपी हो रही थी लिहाज़ा मैंने बूढ़ी ख़ादिमा को आवाज़ दी ताकि आतिश-दान में आग सुलगाए मगर मेरी मुतअद्दिद आवाज़ों पर भी जब बुढ़िया ने कोई जवाब न दिया तो मैं घबराहट में उठ कर उस दरवाज़े तक गई जो मेरी और बुढ़िया की ख़्वाब-गाह के दरमियान था।
बुढ़िया को कमरे में न पाकर मैं बद-हवासी से बाहर बरामदे में निकल आई। ख़ुदा की पनाह तहतुस्सरा की तारीक रात में मुहीब सुर्ख़ रौशनी के शोले बढ़ते फैलते दिखाई दिए। फ़िज़ा धुएं से भरपूर थी। मैं काँपती हुई आगे बढ़ी तो मालूम हुआ कि भाई उसमान की लाइब्रेरी धड़ाधड़ जल रही है। जिसे देख कर उस तह-ख़ाने का सारा सीन मेरी आँखों के सामने फिर गया और मुझे यक़ीन करना पड़ा कि जो कुछ मैंने देखा वो ख़्वाब न था। मगर ये आग कैसे लगी, क्या भाई उसमान ने ख़ुद लगाई? लेकिन क्यों? कहीं उन्होंने ख़ुदकुशी न कर ली हो। ये ख़्याल आते ही मेरा दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा और मैंने बे-तहाशा चीख़ें मारनी शुरू कीं। मेरी इस चीख़-ओ-पुकार पर बूढ़ी ख़ादिमा भाई उसमान के कमरे से निकली। मैं दौड़ कर उससे लिपट गई और रोते हुए पूछा कि भाई उसमान कहाँ हैं?
उसने कहा,अपने कमरे में। मैंने कहा,तो क्या इनको आतिश-ज़दगी की ख़बर नहीं? बुढ़िया ने जवाब दिया,क्यों नहीं। मैंने कहा,तो वो फिर उसे बुझाने की कोशिश क्यों नहीं करते। बुढ़िया ने कहा,नामुम्किन बात की कोशिश से क्या फ़ायदा? मैंने फिर कहा,मगर कम-अज़कम वो बाहर आकर उसे देख ही लेते। बुढ़िया ने रूखे-पन से कहा,ये उनकी मर्ज़ी पर मुंहसिर है। तुम फ़ौरन अपने कमरे में जाओ। यहाँ धुएँ में बीमार हो जाओगी। मैंने मचलते हुए कहा,मुझे भाई उसमान के पास ले चलो। बुढ़िया ने सख़्ती से कहा,नहीं, तुम्हें अपने कमरे में जाना होगा। इस वक़्त वो तुम्हें नहीं मिल सकते।
मैं मायूस होकर अपने कमरे में आ गई। उस वक़्त मेरे दिल में तरह-तरह के वसवसे उठ रहे थे। जिनका मैंने बूढ़ी ख़ादिमा पर भी इज़हार किया। उसने कहा,नादान लड़की अगर वो सलामत न होते तो तुम्हें यहाँ उठाकर कौन लाता?
तो क्या भाई उसमान मुझे उठाकर लाए हैं? मैंने मुतअज्जिब होकर कहा। बुढ़िया ने कहा,तो क्या मैं लाई हूँ। अब ज़्यादा बातें न बनाओ और सो जाओ। मैं बुढ़िया के इसरार पर बिस्तर पर पड़ रही। मगर ऐसी हालत में सो कौन सकता है। वो आग तमाम रात भड़कती रही। इत्तिफ़ाक़न सुबह के क़रीब बारिश शुरू हो गई जिससे ये मनहूस आग फ़ुरु हुई।
इस वाक़िए के बाद मैं दो माह तक भाई उसमान को न देख सकी लेकिन बूढ़ी ख़ादिमा का उनके कमरे में आना जाना बताता था कि वो अपने कमरे में हैं और गोशा-नशेबी इख़्तियार कर चुके हैं। कई बार मुझे ख़्याल आया कि जाकर उनसे माफ़ी मांगूँ। मगर मैं मुजरिम थी और वो इंतिहाई सख़्त-गीर वाक़ेअ हुए थे, इसलिए जुरअत न हुई और मैं अपनी इस बेवकूफ़ाना हरकत पर बहुत नादिम थी।
ख़िज़ाँ का आग़ाज़ था। निहायत उदास और ख़ुश्क दोपहर थी। मैं आतिश-दान के क़रीब सर-निगूँ बैठी थी कि बूढ़ी ख़ादिमा ने आकर मुझसे कहा, शगूफ़ा जान तुम्हें आग़ा बुला रहे हैं। उस अचानक बुलावे ने मुझे किसी हद तक ख़ौफ़-ज़दा कर दिया। न जाने भाई उसमान अब मुझे क्या सज़ा दें। चुनाँचे मैं सहमी हुई उनके कमरे में गई।
आज पहली दफ़ा मैंने उनका कमरा देखा था। उस नीम तारीक कमरे में गहरे सब्ज़ रंग के ऊनी पर्दे पड़े थे और छत में एक बहुत बड़ी पीतल की क़ंदील लटक रही थी जिसमें रखे हुए एक पीतल के चौमुखे चिराग़ में बीरोज़े की बत्तियाँ जल रही थीं और बीरोज़े की तेज़ बू तमाम कमरे में फैल रही थी। आतिश-दान में एक ख़ास क़िस्म की लकड़ी सुलग रही थी जिसकी रौशनी बिल्कुल सब्ज़ थी। बीरोज़े की गहरे बादामी रंग की रौशनी उस सब्ज़ रौशनी के गिर्द धुएं की तह की तरह लिपटी हुई मालूम होती थी। जिससे ये कमरा भी एक सब्ज़ ग़ुब्बारे की शक्ल इख़्तियार कर चुका था। यहाँ भी वही तस्वीरों की ज़बान में लिखे हुए क़ित्ए लटक रहे थे और क़ालीन पर भी कुछ वैसे ही निशानात थे। उस अनोखे माहौल से मैं बहुत घबराई। भाई उसमान बिस्तर पर नीम-दराज़ थे, मैं उनको देख कर ठिटकी।
आ जाओ शगूफ़ा बहन। उन्होंने नर्मी से कहा। उनके मुँह से ये अलफ़ाज़ सुन कर मेरी जान में जान आ गई, मैं ख़ुशी और तअज्जुब के मिले-जुले एहसास से काँपती हुई आगे बढ़ी, उन्होंने मुझे अपने क़रीब एक तिपाई पर बिठा लिया। वो बहुत लाग़र हो रहे थे और उनकी क्लाइयों पर बहुत बड़े-बड़े सफ़ेद दाग़ दिखाई देते थे। उनको मेहरबान पाकर मैंने दबी ज़बान से पूछा,ये आपकी क्लाइयों पर निशान कैसे हैं?
ये जल गई हैं तुम्हारी मेहरबानी से शगूफ़ा। उन्होंने उदासी से कहा। मुझे अफ़सोस हुआ और मैंने माफ़ी की ग़रज़ से अपना सर इनके पाँव पर रख दिया। उन्होंने मेरा सर आहिस्ता से ऊपर उठाते हुए कहा,शगूफ़ा मैं तुम्हें मलामत नहीं करता। बल्कि अच्छा हुआ कि तुम इस राज़ से वाक़िफ़ हो गईं। मुझे तुमसे बड़ी मदद मिल सकती है।
मैंने हैरत से भाई उसमान का मुँह देखा क्योंकि मैं न जानती थी कि कौन सा राज़ मुझ पर ज़ाहिर हुआ है। आख़िर मैंने हौसला करके कह दिया,मैं तो किसी राज़ से भी वाक़िफ़ नहीं हुई। भाई उसमान ने कहा,तो फिर तुम तह-ख़ाने में क्यों गई थीं? जिसपर मैंने उनसे वहाँ जाने का सारा माजरा बयान किया। भाई उसमान कहने लगे,अच्छा तो मेरा ख़्याल था कि तुम अक्सर वहाँ जाया करती हो। मैंने जवाब दिया,अगर मैं पहले कभी गई होती तो इतनी ख़ौफ़-ज़दा कैसे होती। भाई उसमान ने कहा,बेशक।
फिर कुछ सोच कर कहने लगे,शगूफ़ा अब तुम सियानी हो गई हो और ये भी जानती हो कि तुम्हारा मेरे सिवा इस दुनिया में कोई अज़ीज़ नहीं है और न तुम्हारे सिवा मेरा। इसलिए बहन-भाई की हैसियत से एक दूसरे की मुसीबत में काम आना हमारा फ़र्ज़ है। मैंने कहा,ज़रूर। उन्होंने कहा, अच्छा मुझे क़ौल दो।
आह मैंने उन्हें बे-समझे-बूझे क़ौल दे दिया।
बाद अज़ाँ भाई उसमान ने मुझे बताया कि उस वाक़िआ के अठारह साल पेश्तर वो एक पार्टी के साथ इस इलाक़े में आए थे तो एक ग़रीब लाग़र पहाड़ी ग्वाले की लड़की को दिल दे बैठे। फ़रहा गो एक ग्वाले की लड़की थी मगर इतनी ख़ुद्दार और क़ानेअ् वाक़ेअ् हुई थी कि इंतिहाई कोशिशों के बावजूद उनसे मानूस न हुई। आख़िर उन्होंने इसके बाप को किसी न किसी तरह राम कर लिया और उसने इस शर्त पर उनका निकाह फ़रहा से कर दिया कि वो इसी गाँव में सुकूनत इख़्तियार करें। मगर आह उनकी क़िस्मत में सुख न था। शादी के बाद जल्दी ही उनके सुहाने ख़्वाबों का तसलसुल टूट गया क्योंकि फ़रहा दिक़ की मरीज़ थी और वो उनकी अनथक कोशिशों के बावजूद जाँ-बर न हो सकी।
उन्हें उसकी मौत का इतना सदमा हुआ कि ज़िंदगी दूभर हो गई। वो फ़रहा के इलाज के दौरान में कई एक ऐसी जुड़ी बूटियों से वाक़िफ़ हो चुके थे जिनकी अजीब-ओ-ग़रीब ख़ासियतें थीं, चुनाँचे एक ऐसी जड़ी का भी उन्हें इल्म था जिसके फूलों पर अगर लाश रख दी जाए तो वो ख़राब होने से महफ़ूज़ रहती है। और ये बीरोज़े की बत्तियाँ भी दिक़ के जरासीम को हलाक करती हैं। लिहाज़ा उन्होंने फ़रहा की लाश को महफ़ूज़ रखने के लिए अपने कुतुब-ख़ाने के नीचे एक तह-ख़ाना बनाया और उस ख़ास बूटी के फूलों की सेज बनाकर उस पर फ़रहा को लिटा कर तह-ख़ाने में बंद कर दिया और ख़ुद बैरागी बन कर जंगलों और बनों में आवारा-गर्दी करने लगे। कभी महीने में एक आध दफ़ा यहाँ आते और लाश पर ताज़ा फूल डाल जाते।
उसी दौरान में इत्तिफ़ाक़न उन्हें एक ऐसा सन्यासी मिल गया जो एक ख़ास इल्म जानता था। जिसे डाइनों का इल्म कहा जाता है। ये इल्म एक ख़ास ज़बान में पढ़ा जाता है और उसकी इबारत आज़ा की सूरत में लिखी जाती है जिसका अमल इंसानी या हैवानी आज़ा को आसानी से बदल सकता है या बिल्कुल अलैहिदा कर सकता है।
चुनाँचे सन्यासी से ये इल्म हासिल करके उन्हें इतनी ख़ुशी हुई जैसे उन्होंने कौनैन की दौलत पाली। मोहब्बत की रंगीनियाँ, ज़िंदगी की दिलचस्पियाँ और उम्मीदों का हरा-भरा बाग़ उनकी आँखों के सामने लहलहाने लगा। उन्हें यक़ीन था कि इस अमल के ज़रिए फ़रहा को दोबारा ज़िंदगी दे सकेंगे। ग़रज़ ये कि वो उन्हीं अरमानों को दिल में लिये वापस आए और उस इल्म के ज़रिए उन्होंने बग़ैर किसी क़िस्म के ऑपरेशन के उसके नाकारा फेफड़े कलेजा समेत निकाल दिए और बकरी के ताज़ा फेफड़े उसके जिस्म में दाख़िल किए, लेकिन चूँकि इसको मरे हुए अर्सा गुज़र चुका था। इसलिए उसका जिस्म सड़ कर ज़ाए हो चुका था और गोश्त बिल्कुल सूख कर लकड़ी बन गया था इसलिए वो ज़िंदा न हो सकी। गो उसने चंद साँस लिये मगर फिर जल्दी ख़त्म हो गई।
गो अब उन्हें उसकी ज़िंदगी से बिल्कुल मायूसी हो गई थी लेकिन ख़ब्त का क्या इलाज, जिसके ज़ेर-ए-असर वो बार-बार नाकारा फेफड़े निकाल कर नए डालते थे। वो समझते थे कि शायद बार-बार ऐसा करने से उसका जिस्म भी ताज़ा हो सके। इस जद्द-ओ-जहद में उनकी सेहत ख़राब हो गई, अब उन्हें महसूस हुआ कि ग़ौर पर्दाख़्त करने वाला ज़रूर कोई उनके पास होना चाहिए लिहाज़ा इसीलिए वालिदा को यहाँ ले आए। जिनके आने से उनकी हालत बहुत सँभल गई और इसी तरह उन्होंने अपनी ज़िंदगी का बेशतर हिस्सा गुज़ार दिया। मगर थोड़े अर्सा से वो ख़ुद को दिक़ का मरीज़ तसव्वुर करने लगे। चूँकि वो कई जुड़ी बूटियाँ जानते थे इसलिए उनके ज़रिए उन्होंने मर्ज़ को दबा दिया मगर मरज़ जड़ से न गया।
अब उनके लिए ज़रूर था कि फ़रहा को ज़िंदा करने का ख़्याल छोड़ दें, वो ख़ुद भी उस काम से बेज़ार हो चुके थे। मगर न मालूम क्यों उस काम से बाज़ न आए। आख़िर ख़ुदा ने उनकी मदद की कि उस रोज़ तह ख़ाने में मेरी चीख़ सुन कर ऐसे बौखलाए कि फ़रहा की लाश हाथों से छूट कर जलती आग में जा पड़ी जिससे शोले भड़कने लगे। वो बद-हवासी से भाग रहे थे कि रास्ते में मुझ पर नज़र पड़ी, मुझे वहाँ से उठा लाए लेकिन ख़ुदा जाने उनकी क्लाइयाँ कैसे जल गईं।
अब वो कई दिन से सोच रहे थे कि ये बीमारी जो उन्हें लग चुकी है किस तरह रफ़ा हो। कहाँ तक वो उसे जुड़ी बूटियों के ज़रिए क़ाबू में रख सकेंगे, अगर ज़रा भी बे एहतियाती हो गई तो जान के लाले पड़ जाएंगे, लिहाज़ा उस दिन एक तदबीर इनके ज़ेहन में आई कि अगर मैं ये इल्म उनसे सीख कर उनके फेफड़े बकरी के ताज़ा फेफड़ों से बदल दूँ तो उनकी ज़िंदगी महफ़ूज़ हो सकती है। मैंने हामी भर ली।
ग़रज़ ये कि कुछ दिन बाद मुझे उसी तह ख़ाने में लाए जिसमें कभी फ़रहा की लाश रखी गई थी जो आतिश-ज़दगी के बाद उन्होंने अज़ सर-ए-नौ तामीर किया था। मेज़ पर लेट कर उन्होंने मुझे दो तिलिस्म सिखाए और बकरी के ताज़ा फेफड़े जो ख़ास तौर पर इस काम के लिए तैयार रखे थे, मुझे दिए और हिदायत की कि पहले तिलिस्म के असर से जब उनके फेफड़े बाहर निकल आएं तो दूसरा तिलिस्म बकरी के फेफड़ों पर पढ़ने से ये इनके जिस्म में ख़ुद-ब-ख़ुद दाख़िल हो जाएंगे। आह, मैंने उस काम को मामूली समझ रखा था। लेकिन जूँ ही मैंने तिलिस्म पढ़ा तो भद्द से कोई चीज़ मेरे पाँव के क़रीब आ गिरी। मैंने झुक कर देखा कि एक फेफड़ा मअ जिगर के मेरे पाँव में तड़प रहा था।
मेरा दिल दहल गया। मैंने घबराकर भाई उसमान की तरफ़ देखा। उनका रंग उस वक़्त ऐसा ज़र्द हो रहा था कि मैं हवास-बाख़्ता हो गई। मेरी हालत देख कर उन्होंने मुझे इशारे से बुलाया। मगर मैं बुत बनी खड़ी रही, आख़िर उन्होंने ऊँची आवाज़ से कहा,शगूफ़ा क्या देख रही हो। अपना काम शुरू करो। बीमारी ने पहले ही मुझे निढ़ाल कर रखा है। मैं इस हालत में ज़्यादा देर तक ज़िंदा न रह सकूँगा।
न जाने मुझे उस वक़्त क्या हो गया कि इंतिहाई कोशिश के बावजूद मैं हरकत न कर सकी और मुतवह्हिश निगाहों से उनके ज़र्द और मदक़ूक़ चेहरे को देखती रही आह, बद-बख़्त लड़की। भाई उसमान ने ग़ुस्से से तिलमिलाते हुए कहा और पूरी ताक़त से उठ कर बैठ गये। उफ़! उस वक़्त मुझे ऐसा मालूम हुआ कि एक लाश उठ रही है। ख़ौफ़-ओ-हिरास से ख़ून मेरी रगों में जम गया और बेहोश हो गई।
जब मैं होश में आई तो तह-ख़ाने में मुकम्मल ख़ामोशी थी और भाई उसमान चंद क़दम पर औंधे पड़े थे। मैंने आव देखा न ताव। बे तहाशा सीढ़ियों की तरफ़ भागी और ऊपर जाकर कुतुब-ख़ाने से बाहर निकलते ही धाड़ें मार-मार कर रोने लगी। उसी वक़्त बूढ़ी ख़ादिमा दौड़ती हुई आई और मुझे पुचकारते हुए रोने की वजह पूछने लगी। मैंने सारा माजरा उससे बयान कर दिया। पहले तो उसने मुझे बहुत मलामत की फिर अपने फ़र्ज़ से आगाह करते हुए उस काम को अंजाम देने के लिए मिन्नत समाजत करने लगी। अब खुली हवा में मेरे हवास भी कुछ बजा हुए। मुझे अपनी कमज़ोरी पर सख़्त निदामत हुई और बूढ़ी ख़ादिमा के समझाने से मैं दोबारा तह ख़ाने में जाने के लिए तैयार हो गई।
इस दफ़ा मुझे दिलेरी भी थी क्योंकि बूढ़ी ख़ादिमा मेरे साथ थी। वहाँ पहुँच कर मालूम हुआ कि भाई उसमान ठंडे हो चुके थे। हम दोनों ने उठाकर उन्हें मेज़ पर लिटाया और मैंने बकरी के फेफड़े पर तिलिस्म पढ़ना शुरू क्या। चंद मिनट के बाद वो फेफड़ा हरकत करने लगा। मैंने अपना अमल जारी रखा। आह! वो फेफड़ा सिर्फ़ हरकत ही करता था। मगर भाई उसमान के जिस्म में दाख़िल न होता था। मैं हैरान थी कि ये तिलिस्म अपना असर पूरी तरह काम क्यों नहीं करता। लेकिन मुझे जल्दी ही मालूम हो गया कि मैं तिलिस्म पूरा नहीं पढ़ रही उसका एक आख़िरी हर्फ़ भूल चुकी हूँ। अपनी ग़लती से आगाह होकर मैंने सर पीट लिया। आह अगर मैं दिल को मज़बूत रखती तो अपने अमल में कामयाब हो सकती थी। अब वो मर चुके थे। भूला हुआ हर्फ़ कौन याद दिलाता। उसके बाद जब तक उनकी लाश ठीक थी,मैंने उन्हें ज़िंदा करने की जद्द-ओ-जहद जारी रखी।
भाई उसमान के मरने के बाद गाँव के आवारा लड़के मेरे पीछे पड़ गए और एक दिन रात के वक़्त न जाने किस तरह मेरे झोंपड़े में घुस आए, मैं उस वक़्त एक बंदर के निकाले हुए फेफड़े और कलेजे पर अपना अमल कर रही थी। बंदर की लाश भी सामने पड़ी थी। ये हालत देख कर वो इतने ख़ौफ़-ज़दा हुए कि बजाय सीधे रास्ते भागने के खिड़की से कूद गये, जिनमें से एक तो नीचे गिरते ही मर गया और दूसरे भाग निकले और उन्होंने गाँव में जाकर मुझे डाइन मशहूर कर दिया। उस दिन से किसी ने भी मेरे झोंपड़े की तरफ़ आने की जुर्अत न की।
एक साल गाँव में वबा फैल गई। ये एक नई बीमारी थी यानी पहले ज़ुकाम की शिकायत होती, साथ ही सर में दर्द होता, दूसरे दिन नाक और मुँह से ख़ून आता जिससे मरीज़ फ़ौरन मर जाता। लिहाज़ा उन लोगों ने अपनी जिहालत की वजह से वबा का ख़ालिक़ मुझे ही क़रार दिया और मेरे क़त्ल के मंसूबे होने लगे। अकेली औरत को मारना भला कौन सी बड़ी बात है क्योंकि अब मेरी बूढ़ी ख़ादिमा भी मर चुकी थी। चूँकि मैं उनकी नज़रों में औरत न थी बल्कि एक डाइन थी इसलिए वो उस साज़िश को अमली जामा पहनाने से हिचकिचाते रहे।
नूरी एक यतीम लड़की थी जो कभी-कभी मुझसे फटा पुराना कपड़ा या बचा-खुचा खाना ले जाया करती। एक दिन इसने मुझे गाँव वालों के इरादे से आगाह किया। उसी दिन मैं शाम को ख़ुद गाँव में गई। नंबरदार की हवेली में उस वक़्त महफ़िल जम रही थी। वो मुझे देख कर हैरान रह गए। मैंने गरज कर कहा,मुझे अपने इल्म के ज़ोर से मालूम हुआ है कि गाँव में मेरे ख़िलाफ़ हँडिया पक रही है। इसलिए मैं तुम्हें आगाह करने आई हूँ कि डाइन किसी के मारे नहीं मरती और अगर वो मर भी जाए तो इसकी बददुआ कभी नहीं मर सकती। मेरा ये हर्बा कारगर साबित हुआ। गाँव वालों के हाथ-पाँव फूल गए। वो मेरी मिन्नतें करने लगे वबा से उन्हें बचाऊँ।
मैंने भाई उसमान से सुन रखा था कि यहाँ एक ख़ास क़िस्म का लहसुन पैदा होता है जिसके खाने से हर क़िस्म के ज़ुकाम के जरासीम मर जाते हैं। चुनाँचे मैंने उनसे कहा कि कल गाँव के मोअज़्ज़िज़ीन मेरे डेरे पर आएँ और फुलाँ क़िस्म का लहसुन का एक टोकरा भर कर साथ लाएँ। दूसरे दिन वो लोग लहसुन का टोकरा लेकर मेरे घर आए तो मैंने ये शर्त पेश की कि इन तीनों गाँव के लोग अगर मुझे अपना पीर बनाएँ और नज़राना दिया करें तो मैं वबा दूर कर दूँगी। उन्होंने मेरी शर्त मंज़ूर कर ली।
समझौता होने के बाद मैंने लहसुन पर झूट-मूट दम कर दिया और हुक्म दिया कि ये लहसुन वबा-ज़दा लोगों को खिलाया जाए। जब इस लहसुन के खाने से वबा-ज़दा लोग अच्छे होने लगे तो मेरा सिक्का उनके दिलों पर बैठ गया। उस दिन से ये लोग मुझे नज़राना देने लगे और फ़ारिग़ उल बाली से मेरी गुज़र औक़ात होती रही हत्ता कि वो दिन भी आ पहुँचा कि आपसे मुलाक़ात हुई और आपकी मोहब्बत मेरे मन में बस गई, मगर फिर जब आप मुझे छोड़ कर चले गये तो मेरा बुरा हाल हुआ। मैं ज़िंदगी में बेज़ार रहने लगी। आख़िर एक मुद्दत के बाद मेरी मोहब्बत की कशिश फिर आपको यहाँ खींच लाई तो ज़ालिमों ने आपको बहकाना शुरू किया। आख़िर आप इंसान थे। धोके में आ गये। अब अगर में लाख सफ़ाई पेश करूँ, फिर भी आपकी मोहब्बत और हमदर्दी हासिल नहीं कर सकती। आप हमेशा मशकूक रहेंगे।
(5)
शगूफ़ा ने अपनी कहानी ख़त्म करते ही निहायत ग़मग़ीन अदा से सर झुका लिया और किसी गहरी सोच में पड़ गई। मेरी बग़ल में बद-नसीब परिंदे की तड़प भी दम-ब-दम कम हो रही थी। मैंने उसकी लंबी ख़ामोशी से उकता कर कहा,बस कहानी तो ख़त्म हो गई। अब मुझे इज़ाज़त दो कि इस परिंदे को रिहा करूँ ताकि ये कम-अज़कम आख़िरी साँस तो खुली हवा में ले सके। शगूफ़ा ने कुछ जवाब न दिया और बे-हिस- ओ-हरकत बैठी रही, यकायक मुझे ऐसा महसूस हुआ कि वो काँप रही है, मैंने मोहब्बत से उसके सीमीं हाथ अपने हाथ में ले लिए। उफ़! वो बर्फ़ की तरह सर्द होरहे थे। मैं बे-इख़्तियार उससे लिपट गया। मगर उसकी हालत ब-दस्तूर रही, मैंने उसे झिंझोड़ कर ज़ोर से पुकारा। उसने बड़ी मुश्किल से अपना ख़ुशनुमा सर ऊँचा किया। उसका चेहरा बिल्कुल सफ़ेद हो चुका था और उसकी शराबी आँखें सचमुच बद-मस्तियों की तरह नीम-बाज़ थीं।
उसने आहिस्ता-आहिस्ता अपनी काँपती हुई मरमरीं बाँहें उठा कर मेरे गले में डाल दीं। मैंने उसकी पेशानी चूमते हुए कहा,शगूफ़ा तुम्हारा जिस्म इतना सर्द क्यों है, क्या कुछ बीमार हो? वो ख़ामोश रही। मैंने फिर पुकारा,शगूफ़ा।
मेरे आक़ा। उसने रुकते हुए कहा,मैंने डाइन का ज़लील लफ़्ज़ अपने नाम से हमेशा के लिए मिटा दिया। ये कहते हुए उसका सर ख़ुद-ब-ख़ुद मेरी छाती से लग गया और उसके फूल से लब हमेशा के लिए कुम्हला गये। मैंने समझा कि वो इश्क़ की हालत में है लेकिन मेरी इंतिहाई कोशिशों के बावजूद उसकी दाइमी ग़शी दूर न हो सकी। शगूफ़ा की उस अचानक मौत से मेरा कलेजा फटने लगा और मैं तमाम रात गिरिया-ओ-ज़ारी करता रहा।
सुबह जब गाँव वाले उसकी तजहीज़-ओ-तकफ़ीन की तैयारी करने लगे तो मुझे उस परिंदे का ख़्याल आया जो रात को शगूफ़ा ने मेरी बग़ल में दिया था। देखा तो वो ब-दस्तूर पटके में लिपटा हुआ एक तरफ़ पड़ा था। मैंने बे-ताबी से उठाकर उसे खोला। आह! ये परिंदा दर-अस्ल शगूफ़ा के फेफड़े और कलेजा था।
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