फ़ोटोग्राफ़र
स्टोरीलाइन
उत्तर-पूर्व के एक शांत क़स्बे में स्थित एक डाक-बंगले के फ़ोटोग्राफ़र की कहानी। फ़ोटोग्राफ़र ज़्यादा टूरिस्टों के न होने के बाद भी अपने क़स्बे में जमा रहता है। डाक-बंगले में इक्का-दुक्का टूरिस्ट आते हैं जिनसे काम के लिए उसने डाक-बंगले के माली से समझौता कर लिया है। उन्हीं टूरिस्टों में एक शाम एक नौजवान और एक लड़की डाक-बंगले में आते हैं। नौजवान मशहूर संगीतकार है और लड़की मशहूर-तरीन नृत्यांगना। दोनों खुश हैं और अगले दिन बाहर घूमने जाते वक़्त वे फ़ोटोग्राफ़र से फोटो भी खिंचवाते हैं, लेकिन लड़की उसे ले जाना भूल जाती है। पंद्रह साल बाद इत्तेफ़ाक़ से वह फिर उसी डाक-बंगले में आती है और फ़ोटोग्राफ़र को वहीं पाकर हैरान होती है। फ़ोटोग्राफ़र भी उसे पहचान लेता है और उसके साथी के बारे में पूछता है। साथी, जो ज़िंदगी की भीड़ में कहीं खो गया और उसे खोए हुए भी मुद्दत हो गई है...
मौसम-ए-बहार के फूलों से घिरा बेहद नज़र-फ़रेब गेस्ट हाऊस हरे-भरे टीले की चोटी पर दूर से नज़र आ जाता है। टीले के ऐ'न नीचे पहाड़ी झील है। एक बल खाती सड़क झील के किनारे किनारे गेस्ट हाऊस के फाटक तक पहुँचती है। फाटक के नज़दीक वालरस की ऐसी मूँछों वाला एक फ़ोटोग्राफ़र अपना साज़-ओ-सामान फैलाए एक टीन की कुर्सी पर चुप-चाप बैठा रहता है।
ये गुम-नाम पहाड़ी क़स्बा टूरिस्ट इ'लाक़े में नहीं है। इस वज्ह से बहुत कम सय्याह इस तरफ़ आते हैं। चुनाँचे जब कोई माह-अस्ल मनाने वाला जोड़ा या कोई मुसाफ़िर गेस्ट हाऊस में आ पहुँचता है तो फ़ोटोग्राफ़र बड़ी उम्मीद और सब्र के साथ अपना कैमरा सँभाले बाग़ की सड़क पर टहलने लगता है। बाग़ के माली से उसका समझौता है। गेस्ट हाऊस में ठहरी किसी नौजवान ख़ातून के लिए सुब्ह-सवेरे गुलदस्ता ले जाते वक़्त माली फ़ोटोग्राफ़र को इशारा कर देता है और जब माह-अस्ल मनाने वाला जोड़ा नाश्ते के बा'द नीचे बाग़ में आता है तो माली और फ़ोटोग्राफ़र दोनों उनके इंतिज़ार में चौकस हैं।
फ़ोटोग्राफ़र मुद्दतों से यहाँ मौजूद है, न जाने और कहीं जाकर अपनी दूकान क्यों नहीं सजाता। लेकिन वो इसी क़स्बे का बाशिंदा है। अपनी झील और अपनी पाड़ी छोड़कर कहाँ जाए। इस फाटक की पुलिया पर बैठे-बैठे उसने बदलती दुनिया के रंगा-रंग तमाशे देखे हैं। पहले यहाँ साहिब लोग आते थे। बर्तानवी प्लांटर्ज़, सफ़ेद सोला, हैट पहने, कोलोनियल सर्विस के जुग़ादरी ओहदे-दार, उनकी मेम लोग और बाबा लोग।
रात रात-भर शराबें उड़ाई जाती थीं और ग्रामोफोन रिकार्ड चीख़ते थे और गेस्ट हाऊस के निचले ड्राइंगरूम के चोबी फ़र्श पर डांस होता था। दूसरी बड़ी लड़ाई के ज़माने में अमरीकन आने लगे थे। फिर मुल्क को आज़ादी मिली और इक्का-दुक्का सय्याह आने शुरू’ हुए। या सरकारी अफ़्सर या नए ब्याहे जोड़े या मुसव्विर या कलाकार, जो तन्हाई चाहते हैं, ऐसे लोग जो बरसात की शामों को झील पर झुकी धनक का नज़ारा करना चाहते हैं, ऐसे लोग जो सुकून और मुहब्बत के मुतलाशी हैं, जिसका ज़िंदगी में वजूद नहीं, क्योंकि हम जहाँ जाते हैं फ़ना हमारे साथ है। हम जहाँ ठहरते हैं फ़ना हमारे साथ है। फ़ना मुसलसल हमारी हमसफ़र है।
गेस्ट हाऊस में मुसाफ़िरों की आवक-जावक जारी है। फ़ोटोग्राफ़र के कैमरे की आँख ये सब देखती है और ख़ामोश है।
एक रोज़ शाम पड़े एक नौजवान और एक लड़की गेस्ट हाऊस में आन कर उतरे। ये दोनों अंदाज़ से माह अस्ल मनाने वाले मा'लूम होते थे लेकिन बेहद मसरूर और संजीदा से, वो अपना सामान उठाए ऊपर चले गए। ऊपर की मंज़िल बिल्कुल ख़ाली परी थी। ज़ीने के बराबर में डाइनिंग हाल था और इसके बा'द तीन बेडरूम
“ये कमरा मैं लूँगा!”, नौजवान ने पहले बेडरूम में दाख़िल हो कर कहा, जिसका रुख झील की तरफ़ था। लड़की ने अपनी छतरी और ओवरकोट उस कमरे के एक पलंग पर फेंक दिया था।
“उठाओ अपना बोरिया बिस्तर”, नौजवान ने उससे कहा।
“अच्छा…”, लड़की दोनों चीज़ें उठाकर बराबर के स्टिंग रुम से गुज़रती दूसरे कमरे में चली गई जिसके पीछे एक पुख़्ता गलियारा सा था। कमरे के बड़े-बड़े दरीचों में से वो मज़दूर नज़र आ रहे थे जो एक सीढ़ी उठाए पिछली दीवार की मरम्मत में मसरूफ़ थे।
एक बैरा लड़की का सामान लेकर अंदर आया और दरीचों के पर्दे बराबर करके चला गया। लड़की सफ़र के कपड़े तब्दील करके स्टिंग रुम में आ गई। नौजवान आतिश-दान के पास एक आराम-कुर्सी पर बैठा कुछ लिख रहा था, उसने नज़रें उठा कर लड़की को देखा। बाहर झील पर दफ़अ'तन अँधेरा छा गया था वो दरीचे में खड़ी हो कर बाग़ के धुँदलके को देखने लगी। फिर वो भी एक कुर्सी पर बैठ गई, न जाने वो दोनों क्या बातें करते रहे। फ़ोटोग्राफ़र जो अब भी नीचे फाटक पर बैठा था उसका कैमरा आँख रखता था लेकिन समाअ'त से आरी था।
कुछ देर बा'द वो दोनों खाना खाने के कमरे में गए और दरीचे से लगी हुई मेज़ पर बैठ गए। झील के दूसरे किनारे पर क़स्बे की रौशनियाँ झिलमिला उठी थीं।
उस वक़्त तक एक यूरोपियन सय्याह भी गेस्ट हाऊस में आ चुका था। वो ख़ामोश डाइनिंग हाल के दूसरे कोने में चुप-चाप बैठा ख़त लिख रहा था। चंद पिक्चर पोस्टकार्ड उसके सामने मेज़ पर रखे थे।
“सय्याह अपने घर ख़त लिख रहा है कि मैं इस वक़्त पुर-असरार मशरिक़ के एक पुर-असरार डाक बंगले में मौजूद हूँ। सुर्ख़ सारी में मलबूस एक पुर-असरार हिंदोस्तानी लड़की मेरे सामने बैठी है। बड़ा ही रोमांटिक माहौल है!”, लड़की ने चुपके से कहा। उसका साथी हँस पड़ा।
खाने के बा'द वो दोनों फिर स्टिंग रुम में आ गए। नौजवान अब उसे कुछ पढ़ कर सुना रहा था, रात गहरी होती गई। दफ़अ'तन लड़की को ज़ोर की छींक आई और उसने सूँ-सूँ करते हुए कहा, “अब सोना चाहिए।”
“तुम अपनी ज़ुकाम की दवा पीना न भूलना”, नौजवान ने फ़िक्र से कहा।
“हाँ, शब-ब-ख़ैर”, लड़की ने जवाब दिया और अपने कमरे में चली गई।
पिछ्ला गलियारा घुप अँधेरा पड़ा था। कमरा बेहद पुर-सुकून, ख़ुनुक और आराम-देह था। ज़िंदगी बेहद पुर-सुकून और आराम-देह थी, लड़की ने कपड़े तब्दील करके सिंघार मेज़ की दराज़ खोल कर दवा की शीशी निकाली कि दरवाज़े पर दस्तक हुई। उसने अपना सियाह कीमोनो पहन कर दरवाज़ा खोला। नौजवान ज़रा घबराया हुआ सामने खड़ा था।
“मुझे भी बड़ी सख़्त खांसी उठ रही है”, उसने कहा।
“अच्छा!”, लड़की ने दवा की शीशी और चमचा उसे दिया।
चमचा नौजवान के हाथ से छूट कर फ़र्श पर गिर गया, उसने झुक कर चमचा उठाया और अपने कमरे की तरफ़ चला गया, लड़की रौशनी बुझा कर सो गई।
सुब्ह को वो नाश्ते के लिए डाइंग रुम में गई। ज़ीने के बराबर वाले हाल में फूल महक रहे थे। ताँबे के बड़े-बड़े गुलदान बरासौ से चमकाए जाने के बा'द हाल के झिलमिलाते चोबी फ़र्श पर एक क़तार में रख दिए गए थे और ताज़ा फूलों के अंबार उनके नज़दीक रखे हुए थे। बाहर सूरज ने झील को रौशन कर दिया था और ज़र्द-ओ-सफ़ेद तितलियाँ सब्ज़े पर उड़ती फिर रही थीं। कुछ देर बा'द नौजवान हँसता हुआ ज़ीने पर नुमूदार हुआ, उसके हाथ में गुलाब के फूलों का एक गुच्छा था।
“माली नीचे खड़ा है, उसने ये गुलदस्ता तुम्हारे लिए भिजवाया है।”
उसने कमरे में दाख़िल हो कर मुस्कुराते हुए कहा। और गुलदस्ता मेज़ पर रख दिया। लड़की ने एक शगूफ़ा उठाकर बे-ख़याली से उसे अपने बालों में लगा लिया और अख़बार पढ़ने में मसरूफ़ हो गई।
“एक फ़ोटोग्राफ़र भी नीचे मंडला रहा है, उसने मुझसे बड़ी संजीदगी से तुम्हारे मुतअ'ल्लिक़ दरियाफ़्त किया कि तुम फ़लाँ फ़िल्म स्टार तो नहीं?”
नौजवान ने कुर्सी पर बैठ कर चाय बनाते हुए कहा। लड़की हँस पड़ी। वो एक नामवर रक़्क़ासा थी। मगर इस जगह पर किसी ने उनका नाम भी न सुना था। नौजवान उस लड़की से भी ज़ियादा मशहूर मूसीक़ार था। मगर उसे भी यहाँ कोई न पहचान सका था। उन दोनों को अपनी इस आरिज़ी गुमनामी और मुकम्मल सुकून के ये मुख़्तसर लम्हात बहुत भले मा'लूम हुए।
कमरे के दूसरे कोने में नाश्ते करते हुए अकेले यूरोपियन ने आँखें उठाकर उन दोनों को देखा और ज़रा सा मुस्कुराया। वो भी इन दोनों की ख़ामोश मसर्रत में शरीक हो चुका था।
नाश्ते के बा'द वो दोनों नीचे गए और बाग़ के किनारे गुल महर के नीचे खड़े हो कर झील को देखने लगे। फ़ोटोग्राफ़र ने अचानक छलावे की तरह नुमू-दार हो कर बड़े ड्रामाई अंदाज़ में टोपी उतारी और ज़रा झुक कर कहा, “फ़ोटोग्राफ़ लेडी...?”
लड़की ने घड़ी देखी।
“हम लोगों को अभी बाहर जाना है। देर हो जाएगी।”
“लेडी…”, फ़ोटोग्राफ़र ने पाँव मुंडेर पर रखा और एक हाथ फैला कर बाहर की दुनिया की सिम्त इशारा करते हुए जवाब दिया, “बाहर कारज़ार-ए-हयात में घमसान का रन पड़ा है। मुझे मा'लूम है इस घमसान से निकल कर आप दोनों ख़ुशी के चंद लम्हे चुराने की कोशिश में मसरूफ़ हैं। देखिए इस झील के ऊपर धनक पल की पल में ग़ाइब हो जाती है। लेकिन मैं आपका ज़ियादा वक़्त न लूँगा... इधर आइए।”
“बड़ा लसान फ़ोटोग्राफ़र है”, लड़की ने चुपके से अपने साथी से कहा।
माली जो गोया अब तक अपने क्यू का मुंतज़िर था दूसरे दरख़्त के पीछे से निकला और लपक कर एक और गुलदस्ता लड़की को पेश किया। लड़की खिल-खिला कर हँस पड़ी वो और उस का साथी अमर सुंदरी पार्वती के मुजस्समे के क़रीब जा खड़े हुए। लड़की की आँखों में धूप आ रही थी इसलिए उसने ज़रा मुस्कुराते हुए आँखें ज़रा सी चुन्धियारी थीं।
क्लिक... क्लिक... तस्वीर उतर गई।
“तस्वीर आपको शाम को मिल जाएगी... थैंक यू लेडी... थैंक यू सर…”, फ़ोटोग्राफ़र ने ज़रा सा झुक कर दोबारा टोपी छूई। लड़की और उसका साथी कार की तरफ़ चले गए।
सैर करके वो दोनों शाम पड़े लौटे और संध्या की नारंजी रौशनी में देर तक बाहर घास पर पड़ी कुर्सियों पर बैठे रहे। जब कुहरा गिरने लगा तो अंदर निचली मंज़िल के वसीअ’ और ख़ामोश ड्राइंगरूम में नारंजी क़ुमक़ुमों की रौशनी में आ बैठे। न जाने क्या बातें कर रहे थे जो किसी तरह ख़त्म होने ही में न आती थीं। खाने के वक़्त वो ऊपर चले गए। सुब्ह-सवेरे वो वापिस जा रहे थे और अपनी बातों की महवियत में उनको फ़ोटोग्राफ़र और उसकी खींची हुई तस्वीर याद भी न थी।
सुब्ह को लड़की अपने कमरे ही में थी जब बैरे ने अंदर आ कर एक लिफ़ाफ़ा पेश किया।
“फ़ोटोग्राफ़र साहिब ये रात को दे गए थे”, उसने कहा।
“अच्छा। इस सामने वाली दराज़ में रख दो”, लड़की ने बे-ख़याली से कहा और बाल बनाने में जुटी रही।
नाश्ते के बा'द सामान बाँधते हुए उसे वो दराज़ खोलना याद न रही और जाते वक़्त ख़ाली कमरे पर एक सरसरी सी नज़र डाल कर वो तेज़-तेज़ चलती कार में बैठ गई। नौजवान ने कार स्टार्ट कर दी, कार फाटक से बाहर निकली। फ़ोटोग्राफ़र ने पुलिया पर से उठकर टोपी उतारी। मुसाफ़िरों ने मुस्कुरा कर हाथ हिलाए। कार ढलवान से नीचे रवाना हो गई।
वो वालरस की ऐसी मूँछों वाला फ़ोटोग्राफ़र अब बहुत बूढ़ा हो चुका है और उसी तरह इस गेस्ट हाऊस के फाटक पर टीन की कुर्सी बिछाए बैठा है। और सय्याहों की तस्वीरें उतारता रहता है। जो अब नई फ़िज़ाई सर्विस शुरू’ होने की वज्ह से बड़ी ता'दाद में इस तरफ़ आने लगे हैं।
लेकिन इस वक़्त एयरपोर्ट से जो टूरिस्ट कोच आ कर फाटक में दाख़िल हुई उनमें से सिर्फ़ एक ख़ातून अपना अटैची केस उठाए बरामद हुईं और ठिठक कर उन्होंने फ़ोटोग्राफ़र को देखा, जो कोच को देखते ही फ़ौरन उठ खड़ा हुआ था मगर किसी जवान और हसीन लड़की के बजाए एक उधेड़ उ'म्र की बीबी को देखकर मायूसी से दोबारा जाकर अपनी टीन की कुर्सी पर बैठा था।
ख़ातून ने दफ़्तर में जाकर रजिस्टर में अपना नाम दर्ज किया और ऊपर चली गईं। गेस्ट हाऊस सुनसान पड़ा था। सय्याहों की एक टोली अभी-अभी आगे रवाना हुई थी और बैरे कमरे की झाड़ पोंछ कर चुके थे। ताँबे के गुल दान ताज़ा फूलों के इंतिज़ार में हाल के फ़र्श पर रखे झल-झल कर रहे थे। और ड्राइिंग हाल में दरीचे के नीचे सफ़ेद बुराक़ मेज़ पर छुरी काँटे जगमगा रहे थे।
नौ-वारिद ख़ातून दरमिया'नी बेडरूम में से गुज़र कर पिछले कमरे में चली गईं और अपना सामान रखने के बा'द फिर बाहर आकर झील को देखने लगीं। चाय के बा'द वो ख़ाली स्टिंग रुम में जा बैठीं और रात हुई तो जाकर अपने कमरे में सौ गईं। गलियारे में से कुछ परछाइयों ने अंदर झाँका तो वो उठकर दरीचे में गईं जहाँ मज़दूर दिन-भर काम करने के बा'द सीढ़ी दीवार से लगी छोड़ गए थे। गलियारा भी सुनसान पड़ा था। वो फिर पलंग पर आकर लेटें तो चंद मिनट बा'द दरवाज़े पर दस्तक हुई। उन्होंने दरवाज़ा खोला बाहर कोई न था। स्टिंग रुम भाँय-भाँय कर रहा था, वो फिर आकर लेट रहीं, कमरा बहुत सर्द था।
सुब्ह को उठकर उन्होंने अपना सामान बाँधते हुए सिंघार मेज़ की दराज़ खोली तो उसके अंदर बिछे पीले काग़ज़ के नीचे से एक लिफ़ाफ़े का कोना नज़र आया जिस पर उसका नाम लिखा था।
ख़ातून ने ज़रा तअ'ज्जुब से लिफ़ाफ़ा बाहर निकाला। एक कॉकरोच काग़ज़ की तह में से निकल कर ख़ातून की उँगली पर आ गया उन्होंने दहल कर उँगली झटकी और लिफ़ाफ़े में से एक तस्वीर सरक कर नीचे गिर गई। जिसमें एक नौजवान और एक लड़की अमर सुंदरी पार्वती के मुजस्समे के क़रीब खड़े मुस्कुरा रहे थे। तस्वीर का काग़ज़ पीला पड़ चुका था। ख़ातून चंद लम्हों तक गुम-सुम उस तस्वीर को देखती रहीं फिर उसे अपने बैग में रख लिया।
बैरे ने बाहर से आवाज़ दी कि एयरपोर्ट जाने वाली कोच तैयार है, ख़ातून नीचे गईं। फ़ोटोग्राफ़र नए मुसाफ़िरों की ताक में बाग़ की सड़क पर टहल रहा था उसके क़रीब जाकर ख़ातून ने बे-तकल्लुफ़ी से कहा, “कमाल है पंद्रह बरस में कितनी बार सिंघार मेज़ की सफ़ाई की गई होगी मगर ये तस्वीर काग़ज़ के नीचे इसी तरह पड़ी रही।”
फिर उनकी आवाज़ में झल्लाहट आ गई... “और यहाँ का इंतिज़ाम कितना ख़राब हो गया है। कमरे में कॉकरोच ही कॉकरोच।”
फ़ोटोग्राफ़र ने चौंक कर उनको देखा और पहचानने की कोशिश की। फिर ख़ातून के झुर्रियों वाले चेहरे पर नज़र डाल कर अलम से दूसरी तरफ़ देखने लगा, ख़ातून कहती रहीं…, उनकी आवाज़ भी बदल चुकी थी चेहरे पर दुरुश्ती और सख़्ती थी और अंदाज़ में चिड़चिड़ा-पन और बे-ज़ारी और वो सपाट आवाज़ में कहे जा रही थीं।
“मैं स्टेज से रिटायर हो चुकी हूँ अब मेरी तस्वीरें कौन खींचेगा भला, मैं अपने वतन वापिस जाते हुए रात की रात यहाँ ठहर गई थी। नई हवाई सर्विस शुरू’ हो गई है। ये जगह रास्ते में पड़ती है।”
“और... और... आपके साथी?”, फ़ोटोग्राफ़र ने आहिस्ता से पूछा। कोच ने हॉर्न बजाया।
“आपने कहा था न कि कारज़ार-ए-हयात में घमसान का रन पड़ा है। उसी घमसान में वो कहीं खो गए।”
कोच ने दोबारा हॉर्न बजाया।
“और उनको खोए हुए भी मुद्दत गुज़र गई... अच्छा ख़ुदा-हाफ़िज़!”, ख़ातून ने बात ख़त्म की और तेज़-तेज़ क़दम रखती कोच की तरफ़ चली गईं।
वालरस की ऐसी मूँछों वाला फ़ोटोग्राफ़र फाटक के नज़दीक जाकर अपनी टीन की कुर्सी पर बैठ गया।
ज़िंदगी इंसानों को खा गई। सिर्फ़ कॉकरोच बाक़ी रहेंगे।
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