लक्षमण
स्टोरीलाइन
एक कुंवारे आदमी के भावात्मक शोषण की कहानी है। लछमन काठ गोदाम गाँव का पचपन बरस का आदमी था, जिसे गाँव की औरतें और आदमी शादी का लालच देकर ख़ूब-ख़ूब काम लेते, उसकी बहादुरी के तज़्किरे करते और विभिन्न नामों की लड़कियों से उसके रिश्ते की बात जोड़ते। एक दिन वो गौरी की छत पर काम करते करते अचानक नीचे गिरा और मर गया। उसकी चिता को जब जलाया गया तो गाँव के सब लोग रो रहे थे।
लक्षमण ने कुएँ में से पानी की सत्रहवीं गागर निकाली। इस दफ़ा पानी से भरी हुई गागर को उठाते हुए उस के दाँतों से बे-नियाज़ जबड़े आपस में जम गए। जिस्म पर पसीना छूट गया। उस ने दाहने हाथ से नंदू की बहू.... गौरी की गागर को थामा और चर्ख़ी पर अड़ी हुई रस्सी को दूसरे हाथ से उतारा। एक दफ़ा चौकसी और बीम दर्जा से तीस फुट गहरे कुएँ में झाँका। अपने शानों को झटका दिया। जबड़ों को दबाया तो गाल कुछ फूल से गए। लक्षमन ने फिर ग़ौर से अपने बाएँ हाथ की हथेली को देखा। हथेली में से टीसें उठ रही थीं। उंगलियों के नीचे आज कुछ नए नए सुर्ख़ से निशान बन रहे थे। वो जानता था कि वो निशान आज दोपहर तक उभरते हुए ईज़ा-रसाँ आबले बन जाएँगे और श्राद्ध की ख़ैर खाने के लिए उस की उंगलियाँ यकजा न हो सकेंगी, ताहम नुसरत की एक हल्की सी सुर्ख़ी उस के चेहरे पर फैल गई। उस ने काठ गोदाम की उन बहू बेटियों की तरफ़ देखा और हाँपते हुए बोला।
“राम काली... आज श्राद्ध है किस का?”
नंदू की बहू आगे बढ़ी। उसने एक हाथ से घूँगट को चोटी की तरफ़ खिसकाया, कूल्हे पर से धोती का पल्लू सरक गया। उस ने एहतियात से एक पल्लू सीने पर डाला और लजाती हुई बोली। “मेरे बावा का... और किस का होगा?”
...और फिर सब औरतें लक्षमण की तारीफ़ करने लगीं.... “बहुत बहादुर आदमी है लक्षमण। राठौर है ना, दूसरी बोली। लक्षमण का ब्याह होगा। मैं उस की घोड़ी गाऊँगी। घोड़ी की बाग थामूँगी। जूड़ा गाँव में उस की माँ के मैके हैं। मेरी माँ के मैके भी जोड़ा गाँव में थे। मैं लक्षमण की बहन हुई न। और एक कहने लगी। “मुझे तो भावज का रिश्ता ही पसंद है। मैं उस की आँखों में सलाई डालूँगी। मेरी गागर भरी तो क्या एहसान किया? देवर, भाबियों के सैंकड़ों काम करते हैं। गौरी बहू! चढ़े पोह कोई साहा निकले। गुलाबी सी सर्दी हो। बड़ा मज़ार होगा। इस साल न भी हो तो जल्दी काहे की है। लक्षमण भाई कोई बूढ़ा थोड़े ही हो गया है”......
.....और लक्षमण की उम्र पचपन बरस की थी। सत्रहवीं गागर निकाल चुकने के बाद उस ने अपने फूलते हुए बाज़ुओं की तरफ़ देखा और फिर कनखियों से नंदू की बहू गौरी की तरफ़.... काठ गोदाम के सब आदमियों ने गौरी के हुस्न की तारीफ़ तो सुनी थी, मगर लक्षमण के सिवाए उसे जी भर कर किसी ने न देखा था। उस को देख कर लक्षमण को याद न रहा कि उस के हाथों पर उन ही बड़ी बड़ी, मस्त, नीम-वा आँखों ने कोइले से धर दिए हैं और वो औरत जिसके जूड़ा गाँव ननिहाल थे, उस की माँ को जब लक्षमण के बाप ने साली कहा था, तो अच्छा-ख़ासा कोरोखशीतर छिड़ गया था । और उसी कुएँ पर जब उसने एक दफ़ा भाबी का आँचल थामा, तो भाई ने उस की नाक तोड़ दी थी.... दफ़्फ़अतन लक्षमण ने अपने आपको एक बड़ी सी आँख बनते देखा, जिसमें गोरे गोरे बाज़ू, झंकारते हुए पाज़ेब, सरकते हुए पल्लू और न जाने क्या कुछ समा गया। उसे यूँ महसूस हुआ जैसे यके बाद दीगरे तीस बोझल से ग़िलाफ़ आहिस्ता-आहिस्ता उस के जिस्म पर से उतर गए हों। वो अपने आप को पच्चीस बरस का नौजवान समझने लगा।
लक्षमण ने सोचा। अव़्वल तो औरतें बहादुरी को पसंद करती हैं, क्यूँ कि उनमें इस मादा का फ़ुक़दान होता है, और दूसरे वो उस मर्द की तरफ़ माइल होती हैं जो औरत के सामने मर्द की फ़ित्री कमज़ोरी को ज़ाहिर न होने दे। दूसरे लफ़्ज़ों में मोहब्बत में बस कर भी इज़हार-ए-तअश्शुक़ न हो, क्यूँ कि दूसरी तरह बात कुछ आम सी हो जाती है। आज कुएँ पर छोटी बड़ी उस की बहादुरी का सिक्का मान गईं। आज तो वो बिलकुल शब्द सरूप हो गया था, तभी तो सब राधाएँ उस की तरफ़ खिची चली आती थीं। मगर उस ने कमज़ोर कम-ज़र्फ़ आदमी की तरह उनकी तरफ़ ज़रूरत से ज़्यादा मुतवज्जे हो कर अपने मर्दाना वक़ार को कम नहीं किया और.... सतरह गागरें? समर सिंह की जान निकल जाए, गौरी तो ज़रूर उठती बैठती यही सोचती होगी कि मेरा शौहर लक्षमण के मुक़ाबले में किस क़दर नालायक़ और कमज़ोर है.... काश मैं लक्षमण की बीवी होती! अगर्चे आज उन औरतों में से एक ख़ुद ब-ख़ुद बहन और दूसरी भावज बन गई है। उस वक़्त लक्षमण पल-भर के लिए भी ये न सोच सका कि कोरोखशीतर, किस तरह बपा हुआ था और इस की नाक क्यूँ तोड़ दी गई थी। लक्षमण ने न जाना कि वो खोखली सी आवाज़ें सिर्फ़ गागरें निकालने की क़ीमत हैं। अगर घूँगट को ज़रा सा चुटिया की तरफ़ सरका देने से श्राद्ध के लिए सारा पानी मिल जाता है, तो किसी का बिगड़ता ही क्या है। औरतें अपनी आँखों की हेरा फेरी से सैंकड़ों काम सिद्ध कर लेती हैं। हक़ीक़त तो ये है कि सत्तरह गागरें तो अकेली गौरी के हुस्न की झलक की क़ीमत है और महज़ अदना सी क़ीमत.... और वो मस्त आँखें!... वगरना कौन भाबी है और कौन देवर? गौरी भी एक माया है और माया ही रहेगी!
काठ गोदाम के सभी लोग जानते थे कि लक्षमण को बाबा के नाम से पुकारना कितना ख़तरनाक काम है। लक्षमण बुरी से बुरी गाली बर्दाश्त करने की क़ुव्वत रखता था, मगर बाबा का लफ़्ज़ उस के दिमाग़ी तवाज़ुन को मुख़्तल कर देता। बाबा के जवाब में तो बाबा, तेरी माँ बाबा, तेरा बाबा बाबा और इस क़िस्म की हज़यान बकता और बड़े बड़े पत्थर फेंकता। वो अभी अपने आपको छोकरा क्यूँ समझता था? उसे खटका सा लगा हुआ था कि अगर वो बूढ़ा हो गया तो कौन उसे अपनी लड़की का रिश्ता देने चलेगा। छोटे छोटे लड़के बाबा लक्षमण.... बाबा लक्षमण कह कर तमाशा देखते, मगर वो अपने तजुर्बे की ख़ौफ़नाक नौइयत से वाक़िफ़ थे। ज़ोर से बाबा कह चुकने के बाद वो काठ गोदाम मंडी की बोरियों के पीछे या उस की तंग-गलियों में ग़ायब हो जाते।
जब कोई कहता कि मालिक राम के ब्याह की तारीख़ 15 फागुन मुक़र्रर हुई है, तो लक्षमण एक इज़्तिराब के आलम में सन बाटनी छोड़ देता। अपनी लाठी को उठा कर ज़ोर से ज़मीन पर पटकता और कहता।
“हाँ भाई!.... 15/ फागुन।”
दूसरा कहता। “हाँ भाई.... हम नाबिया है तो कैसे साहे?”
लेकिन लोग उसे ख़ुश करना भी जानते थे। कोई कहता, लक्षमण! आज तो तेरे चेहरे पर सोला बरस के जवान का रूप है। अरे भाई! रधिया की छोकरी जवान हो रही है। ऐसी ही जवान है, जैसे तुम हो। ख़ूब मेल है, बड़ा जोड़ है। अगर तुम उसे हासिल कर सको तो कितना मज़ा रहे।
लक्षमण जवानी में हब्स-ए-बेजा और इग़वा की सज़ाएँ काट चुका था, इसलिए वो ख़ामोशी से दो तीन बार रधिया की बेटी का नाम लेता, और ज़हन में सैंकड़ों बार.... उठते बैठते, खाते पीते,... रधिया की बेटी.... रधिया की बेटी.... दोहराए जाता, हत्ता कि उस की दाढ़ी में खुजली होने लगती।
काठ गोदाम एक छोटा सा गाँव था। आठ नौ सौ के लगभग घर होंगे। तहसील से एक कच्चा रास्ता कीकर और शीशम के तनावर दरख़्तों के दर्मियान साँप की तरह बल खाता हुआ चंद मील जा कर एक बड़े से बड़ के नीचे यक-दम रुक जाता। आम तौर पर मुसाफ़िर वहाँ पहुँच कर शश्दर रह जाते। उन्हें यू नहीं दिखाई देता, गोया रास्ता इस से आगे कहीं ना जाएगा। यानी बावजूद ज़मीन के गोल होने के काठ गोदाम दुनिया का टर्मिनस है। बात दर-अस्ल ये थी कि बड़ की बड़ी बड़ी दाढ़ियों में से हो कर तीन छोटी छोटी गलियाँ गाँव में दाख़िल हो जाती थीं। चंद-ख़स्ता हालत के कच्चे मकानों, एक-आध छोटी ईंट की इमारत जिस में बोर्ड का एक प्राइमरी स्कूल था, शाह रहीम की क़ब्र और काला भैरव के मंदिर के गर्द घूम कर तीनों गलियाँ फिर गाँव के मश्रिक़ की तरफ़ एक कुशादा सी सड़क से मिल जाती थीं। काला भैरव के मंदिर के क़रीब काले काले कुत्ते घूमते रहते थे, और उनकी आँखों से गु़स्सा और दाँतों से ज़हरीला लुआब टपकता था। काला भैरव शिवजी महाराज के अवतार गिने जाते हैं। इन की रिफ़ाक़त में हमेशा एक सियाह-फ़ाम कुत्ता रहा करता था, इसलिए काला भैरव मंदिर के पुजारी चपड़ी हुई रोटियों और पूरियों वग़ैरा से सियाह फ़ाम कुत्तों की ख़ूब तवाज़ो किया करते थे। इस क़िस्म के कित्ते बड़ी इज़्ज़त की निगाह से देखे जाते थे, और सरकारी आदमियों को उन्हें “गोली” डालने की मजाल न थी। कुत्ते मुफ़्त की खाते थे और मोटे होते जा रहे थे। काठ गोदाम में दाख़िल होने वाले रास्ते के पास बड़ के एक तने के नीचे लक्षमण बैठा करता था। वो तीन काम करता था। अव़्वल तो हर ना-वाक़िफ़ मुसाफ़िर को काला भैरव वाले रास्ता से गुज़रने की हिदायत कर के कुत्तों से बचाता। दूसरे उसे अपने कुँए का शीरीं और मुस्फ़ा पानी पिलाता और तीसरे ज़िंदगी का गुज़ारा करने के लिए सन की रस्सियाँ बाटता।
कभी कभी कोई अंजान मुसाफ़िर बड़ के नीचे लक्षमण को चेहरे से दुरवेश सूरत पा कर निहायत तपाक से पूछता। “पानी पिलावोगे बाबा?” तो लक्षमण फ़ौरन लाठी उठा लेता और कहता। “बेटी का रिश्ता तो नहीं मांगता जो मुझे बाबा समझते हो। इसी कुँए से इस दिन सतरह गागरें पानी की खींची थीं। तुम्हारे गाँव की सब औरतों को अपने दाम में गिरफ़्तार कर सकता हूँ। समझते क्या हो। इस बात को विष्णु अत्तार जानता है.... सारा मोहल्ला जानता है, गाँव जानता है.....” और काला भैरव के तमाम कुत्ते मुसाफ़िर पर छोड़ देता। इस बेचारे की ख़ूब ही आओ भगत होती। हत्ता कि विष्णु अत्तार या बाज़ार का कोई और दुकानदार मुसाफ़िर को इस की ग़लती से आगाह कर देता, और अगर वो अपने गाँव से उस के लिए किसी मेघू, जनक दुलारी या रधिया का रिश्ता ला देने का ख़याल ज़ाहिर करता तो उस की मुट्ठी चापी होती। बिस्तर बिछा बिछाया इस्तिराहत के लिए मिल जाता और लक्षमण पूछता।
“गाँजा लाऊँ चाचा.... काला भैरव का गाँजा तो दूर दूर मशहूर है। सभी लोग जानते हैं। तुम नहीं जानते क्या?”
कभी कभी विष्णु और काठ गोदाम की छोटी सी मंडी के लोग दूर से किसी मुसाफ़िर को आता देखते, तो वो कहते। लक्षमण भाई, देखो वो कोई तुम्हें देखने के लिए आ रहा है। शायद सीता मोहरी का बाप है। सीता मोहरी जोड़ा गाँव के नंबर-दार की लड़की है। बहुत ख़ूबसूरत। ज़रा संवर जाओ। हाँ! यूँ, लक्षमण पहले तो गाँजा का कश लगाते हुए कहता.... ओ भाई.... लक्षमण तवज्ती है। जती होना कितनी ऊँची अवस्था है.... मगर फिर फ़ौरन ही लक्षमण अपनी धोती और पटके के बल दुरुस्त करने लग जाता, और अत्तार की दुकान पर धो कर टंगी हुई क़मीस पहन कर जल्दी जल्दी उस के बटन बंद कर लेता और फिर बावजूद निहायत होशियारी से काम लेने के, इस की दाढ़ी में खुजली होने लगती।
विष्णु अत्तार की वसातत से लक्षमण को काला तेल मिल गया था। कम-अज़-कम लक्षमण को इस दवाई का नाम काला तेल ही बताया गया था। इस में ख़ूबी ये थी कि बर्फ़ की तरह सपेद दाढ़ी चंद ही लम्हों में उत्तर से आने वाली घटा की तरह काली हो जाती थी। लक्षमण तो अत्तार की हिक्मत का सका मान गया था। ये विष्णु ही में ताक़त है कि वो पलक झपकने में पचपन बरस के बुड्ढे को बीस बरस का जवान बना दे। लक्षमण ने इस के इवज़ कितनी ही सन की रस्सियाँ बाट कर विष्णु को सामान वग़ैरा बांधने के लिए दी थीं।
विष्णु की दुकान पर कभी गुल-क़ंद के लिए खांड का क़वाम पकाया जाता और कभी अर्क़ गाव ज़बान निकाला जाता। हर-रोज़ भट्टी जलती थी। कभी कभी बहुत से उपलों की आँच में कुश्ते मारे जाते थे और काले तेल का ग़ुलाम बना हुआ लक्षमण, विष्णु के सैंकड़ों कामों के अलावा भट्टी में आग भी झोंका करता था।
लक्षमण थोड़ा बहुत पढ़ना जानता था। वो कभी कभी हैरत से विष्णु की दुकान में रखे हुए डिब्बों पर जली क़लम से लिखे हुए लफ़्ज़ों को पढ़ता। अक़्र करहा, माजून-ए-सरनजान, ख़मीरा आबरेशम अन्नाब वाला, जवारिश आमुला अंबरी... इस के अलावा और भी कई बोतलें थीं। किसी में अर्क़ बिरिंजासफ़ था और किसी में बादियान। एक तरफ़ छोटी छोटी शीशियाँ पड़ी थीं जिनमें कुश्ता संग-ए-यशब, शंगर्फ़ वग़ैरा रखे थे। इन छोटी शीशियों पर लक्षमण की नज़रें जमी रहती थीं।
छुट्टे श्राद्ध के दिन लक्षमण को नंदू के हाँ फिर बुलाया गया। लक्षमण ने काला तेल मिला और नंदू के हाँ जाने की तय्यारी करने लगा। इस की आँखों में गौरी की तस्वीर बिजली की तरह कौंद कौंद जाती थी। अगरचे उस के हाथों पर अभी तक आबले दहकते हुए कोयलों की तरह पड़े हुए दिखाई देते थे। मगर गौरी की मोहिनी मूर्त उस के कलेजा में ठंडक पैदा कर रही थी।
लक्षमण ने रेशमी पटका बाँधा। ये उसे काला भैरव के एक पुरोहित ने दिया था। पुरोहित जी के जिस्म पर आबले फूट जाने पर लक्षमण ने उन की बड़ी सेवा की थी। जेठ, हाड़ और सावन तीन महीने सरदाई, ठंडाई वग़ैरा रगड़ कर पिलाई थी। पुरोहित को वो पटका उनकी किसी मोतक़िद औरत ने दिया था। पुरोहित के इर्द-गिर्द औरतों का ताँता लगा रहता था और औरतें उन्हें थालियों में सीधा और न जाने क्या क्या भेंट करतीं। अक़ीदत ही तो है।
लक्षमण ने पटका बाँधा और ग़ुरूर से विष्णु की दुकान के शीशे में अपनी पगड़ी को देखा। अलमारी में लगे हुए शीशों में उसे अपनी शक्ल और चंद एक गधे दिखाई दिए। गधे उस की पीठ की जानिब कुम्हार के बर्तनों से लदे जा रहे थे। काठ गोदाम के तमाम बर्तन पक कर तहसील में बकते थे। और वो गधे तहसील ही को जा रहे थे। अत्तार की अलमारी के शीशे में लक्षमण को अपना अक्स बहुत ही धुँदला सा नज़र आता था, मगर उस के बावजूद लक्षमण जानता था कि ये उस का अपना अक्स है, और वो क़रीब-तर खड़े हुए गधे का.... विष्णु ने लक्षमण की इम्तियाज़ कर लेने की क़ुव्वत की जी खोल कर दाद दी।
लक्षमण ने गौरी के घर जाने के लिए क़दम उठाया तो इस का दिल धक धक करने लगा। उसे यूँ महसूस हुआ जैसे उस के सारे जिस्म पर कोइले ही कोइले धर दिए गए हों। कुछ देर के लिए हाथ की जलन तो ख़त्म हो गई, क्यूँ कि उस का सारा जिस्म ही एक बड़ा सा हाथ बन गया था। लक्षमण उठा, लड़खड़ाया, लेट गया। चंद लमहात के बाद उसने आँखें खोलें। उसे यूँ महसूस हुआ जैसे उस के कुँए की मुंडेर पर सतरह गागरें एक क़तार में रखी हों। उसने आँखों को मिला। दुकान के अंदर लगे हुए जालों, भड़के दो तीन छतों और एक आराम से लटकती हुई चमगादड़ को देखा। और फिर आँखें बंद कर के हुआ को एक छोटी सी गाली दी, क्यूँ कि वो उस के पटके से छेड़ छाड़ कर रही थी।
गधों पर मज़ीद बोझ लादा जा रहा था। कुम्हार ने छः माह के अरसे में चार पाँच सौ बर्तन, हक़ीक़ी चिलिमें, राहुटों की टिंडें बना रखी थीं। पहिया और पाँव दिन रात चलते रहते थे, और कुम्हार के झोंपड़े से गुनगुनाने, खनकारने, थूकने, हक़ीक़ी गड़ गड़ाहट और ठप ठप की आवाज़ें पैहम सुनाई देती थीं। गधे तो बोझ महसूस ही नहीं करते थे। गोया सारे का सारा काठ गोदाम उठा लेंगे। लक्षमण ने दिल में कहा, यक़ीनन ये गधे मुझसे ज़्यादा बोझ उठा सकते हैं.... अगर्चे सतरह गागरें.....
उस वक़्त कुम्हार ने आवाज़ दी। “ओ गधे के बच्चे!”
लक्षमण ने कहा, आख़िर वो गधे हैं, और मैं आदमी हूँ। अगर ये बात ऊँचे कही जाती तो शायद विष्णु एक दफ़ा फिर उस की इम्तियाज़ करने वाली ग़ैर-मामूली क़ुव्वत की दाद देता.... बाज़ार में एक लड़का, जिसे खाँसी की शिकायत थी, बड़े मज़े से खड़ा पकौड़े खा रहा था, और खाँसे जाता था। इस के पास ही एक निसबतन छोटा लड़का क़मीस का कफ़ मुँह में डाल कर चूस रहा था। कई छोकरे तहसील से मंगवाई हुई बर्फ़ के गोलों पर लाल लाल शर्बत डलवा कर उन्हें चाट रहे थे। गली में चंद औरतें बातें कर रही थीं। एक कहती थी जब मेरा चन्दू पैदा हुआ तो उसी दिन हमारी गाय ने बिछड़ा दिया। और विष्णु पकौड़े वाले से पूछ रहा था, क्यूँ भाई! इस दफ़ा अर्ध कुंभी पर न जाओगे? छोकरों ने लक्षमण को देखा तो इस का हुल्या अजीब ही बना हुआ था। उनका लड़कपन काक की तरह तीर कर सतह पर आ गया। लड़के चिल्लाए। “बाबा लक्षमण..... बाबा लक्षमण”!
लक्षमण बौखला कर उठा। छत पर चमगादड़ चक्कर लगाने लगे। दो तीन भिड़ें भिनभिनाने लगीं। चारपाई के पाए से लक्षमण का घटना टकराया... उसे एक बड़ा सा चक्कर आया। लक्षमण ने हुआ को एक गाली दी, छींका और रोने लगा।
गौरी अर्से तक नए लक्षमण को देख कर हंसती रही। उसे ऐसे दिखाई दे रहा था, जैसे वो लक्षमण के अजीब से रूप को देख कर श्राद्ध तो क्या, अपने पत्रों तक को भूल गई है। भैरव स्थान के पुरोहित भी आए हुए थे। जब गौरी उनकी तवाज़ो करती तो लक्षमण के दिल में ख़लिश सी महसूस होती। फिर वो अपनी कमज़र्फ़ी पर अपने आप ही को कोसता। जब पुरोहित चला गया तो गौरी ने घूंगट चुटिया की तरफ़ सरका दिया। औरतें बच्चों, हिजड़ों और बूढ़ों से पर्दा उठा देती हैं और उस ने लक्षमण से पर्दा उठा दिया था। लक्षमण ने मश्कूक निगाहों से गौरी को देखा। दिल में ये फ़ैसला किया कि मोहब्बत भी तो किसी को बे-पर्दा बना देती है। गौरी नज़दीक आई तो लक्षमण ने यूँ महसूस किया जैसे उस के वजूद का उसे क़तई इल्म नहीं, और जूँ-जूँ वो बे-एतिनाई ज़ाहिर करता, गौरी खिची चली आती थी। लेकिन फिर सोचा कि ये सब खिंच खिचाव काले तेल की वजह से था।
रोटी से फ़ारिग़ होने पर मोहल्ले भर की औरतें लक्षमण के गर्द हो गईं। गौरी उन सबकी तर्जुमानी करती थी। बोली, “सत्तरह गागरें!.... बहन मैं तो मान गई लक्षमण को... अपने मर्द तो बिलकुल किसी काम के नहीं। दो गागरें इतने गहरे कुँए से न निकाल सकें। लक्षमण राठौर है, आदमी थोड़े है... उनके बड़ों ने हमारी तुम्हारी लाज रखी थी। अब कल की ही तो बात है। कितनी आन वाले आदमी थे राठौर!”
लक्षमण का मुंह कान तक सुर्ख़ हो गया। उसने अपनी ख़ुशी को छिपाने की कोशिश की, मगर ना-कामियाब रहा। वो औरत जिसके जोड़ा गाँव ननिहाल थे और जिससे गागर की बहन, का रिश्ता था। बोली “मैं तो भाबी के आने पर ख़ूब रंग-रलियाँ मनाऊँगी। नाचूँगी... गाऊँगी... सगरी रैन मोहे संग जागा। भोर भई तो बिछड़न लागा... और भाबी कितनी ख़ुश होगी?”
गागर की भाबी बोली “मैं ने तो अपने लिए देवरानी ढूँढ भी ली है।” लक्षमण के कान खड़े हो गए। जब भाबी ने कहा, मुझे तो उस का नाम भी मालूम है तो लक्षमण बहुत ख़ुश हुआ। ज़ब्त न कर सका। बोला।
“क्या नाम है भला उसका?”
“नाम बड़ा सुंदर है।”
“कहोगी भी?”
“ज़रा मिज़ाज की सख़्त है।”
“मैं जो नर्म हूँ।”
“गौरी भी जानती है।”
“कोई कहेगी भी?”
“काऊ देवी!” गौरी ने कहा।
“काऊ देवी?” लक्षमण ने पूछा। दो दफ़ा नाम को दोहराया और ज़हन में सैंकड़ों बार उस का जाप किया, हत्ता कि उस की दाढ़ी में खुजली होने लगी।
गौरी बोली “तुम एतिबार नहीं करते, तो मैं काला भैरव की सौगन्द लेती हूँ। काऊ देवी से ब्याह करवाने का मेरा ज़िम्मा। सारा ख़र्च मैं अपनी गिरह से दूँगी।”
अब लक्षमण के पाँव ज़मीन पर न पड़ते थे। शब-ओ-रोज़ वो नंदू के घर का तवाफ़ करने लगा। उस के ज़रा से इशारे पर तहसील चला जाता। कुम्हारों के गधों से ज़्यादा बोझ उठा लेता। काला भैरव के कुत्तों से ज़्यादा शोर मचाता और काठ गोदाम के पंडितों से ज़्यादा खाता।
इस दफ़ा बरसात में गौरी के घर का परनाला ऊपर की मंज़िल पर बंद हो गया था। गौरी ने लक्षमण को कहा कि वो छज्जे पर चढ़ कर परनाला तो साफ़ कर दे। लक्षमण ने कोठे पर चढ़ कर देखा, तो परनाले में एक कुत्ते का पिल्ला मरा पड़ा था और पिल्ले का सर परनाले में बे-तौर फंस गया था। अब पिल्ला काले रंग का था। उस की इज़्ज़त मल्हूज़-ए-ख़ातिर थी। मार काट कर बाहर निकालना काला भैरव की बे-इज़्ज़ती करना था। मगर पिल्ला न ऊपर आता था न नीचे जाता था।
लक्षमण अपने आप में एक नई जवानी पा रहा था, और अनक़रीब ही शादी की ख़ुशी में उस ने जवान बनने के लिए विष्णु अत्तार की कई दवाइयाँ कातईं। आज दवाई ज़्यादा खा लेने की वजह से उस का सर फट रहा था, और उसे तमाम जिस्म में से शोले निकलते दिखाई देते थे। जोश में वो सब काम किए जाता था। तक़रीबन दो घंटा तक वो सख़्त धूप में छज्जे पर बैठा परनाले को साफ़ करता रहा। नीचे से चंद बच्चों और औरतों ने आवाज़ें दीं।
“बाबा.... बाबा... काऊ देवी आई।”
लक्षमण ने घबरा कर चारों तरफ़ देखा। बच्चों को गालियाँ दीं। कुत्ते के पिल्ले को दम से पकड़ कर ज़ोर से खींचा, तो वो झटके से बाहर निकल आया, मगर साथ ही लक्षमण को इस ज़ोर से झटका लगा कि वो ऊपर की मंज़िल से ज़मीन पर आ रहा।
सारे का सारा काठ गोदाम नंदू के घर पल पड़ा। लोगों को लक्षमण के यूँ मजरूह होने का बहुत अफ़सोस था। ख़ुसूसन जब कि काऊ देवी से उस की शादी का चर्चा छोटे बड़े की ज़बान पर था। नर्म-दिल लोगों ने बेचारे की मुसीबत पर आँसू भी बहाए।
शाम के क़रीब ख़बर मिली कि चोट वोट की अब कोई बात नहीं रही। लक्षमण शादी के लिए बिलकुल तय्यार है। आज शाम को उस की शादी होगी। “गागर की भाबी तो कहती थी, इतनी भी जल्दी काहे की है.... लक्षमण कोई बूढ़ा थोड़े ही हो गया है?”
शाम को बाजा बजने लगा। काठ गोदाम के बहुत से आदमी बराती बन कर शादी में शामिल हुए। लक्षमण को बहुत अच्छे पहनावे पहनाए गए। सहरे बाँधे गए। वो और भी जवान हो गया था। लोगों ने शमशान में एक बड़े पुराने पीपल के पेड़ तले नौजवान लक्षमण को रख दिया। एक तरफ़ से आवाज़ आई। “हट जाओ.... दुल्हन आ रही है”.... एक आदमी छकड़ा घसीटता हुआ लाया। छकड़े में से लकड़ियाँ उतार कर ज़मीन पर चिता की सूरत में चुन दी गईं। ऊपर लक्षमण को रक्खा और आग लगा दी... ये अजब शादी थी जिसमें सब बराती रो रहे थे, और जब नंदू की बहू गौरी ने काऊ की इन तमाम लक्ड़ियों का ख़र्च अपनी गिरह से दिया, तो उस की चीख़ ही निकल गई।
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.