Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

राम खेलावन

सआदत हसन मंटो

राम खेलावन

सआदत हसन मंटो

MORE BYसआदत हसन मंटो

    खटमल मारने के बाद, मैं ट्रंक में पुराने काग़ज़ात देख रहा था कि सईद भाई जान की तस्वीर मिल गई। मेज़ पर एक ख़ाली फ़्रेम पड़ा था। मैंने इस तस्वीर से उसको पुर कर दिया और कुर्सी पर बैठ कर धोबी का इंतिज़ार करने लगा।

    हर इतवार को मुझे इसी तरह इंतिज़ार करना पड़ता था क्योंकि हफ़्ते की शाम को मेरे धुले हुए कपड़ों का स्टाक ख़त्म हो जाता था। मुझे स्टाक तो नहीं कहना चाहिए, इसलिए कि मुफ़लिसी के उस ज़माने में मेरे सिर्फ़ इतने कपड़े थे जो बमुश्किल छः सात दिन तक मेरी वज़ा’दारी क़ायम रख सकते थे।

    मेरी शादी की बातचीत हो रही थी और इस सिलसिले में पिछले दो तीन इतवारों से मैं माहिम जा रहा है। धोबी शरीफ़ आदमी था, या’नी धुलाई मिलने के बावजूद हर इतवार को बाक़ायदगी के साथ पूरे दस बजे मेरे कपड़े ले आता था, लेकिन फिर भी मुझे खटका था कि ऐसा हो मेरी नादहिंदगी से तंग आकर किसी रोज़ मेरे कपड़े चोर बाज़ार में फ़रोख़्त कर दे और मुझे अपनी शादी की बातचीत में बग़ैर कपड़ों के हिस्सा लेना पड़े जो कि ज़ाहिर है बहुत ही मा’यूब बात होती।

    खोली में मरे हुए खटमलों की निहायत ही मकरूह बू फैली हुई थी। मैं सोच रहा था कि उसे किस तरह दबाऊं कि धोबी गया, “साब, सलाम।” करके उसने अपनी गठड़ी खोली और मेरे गिनती के कपड़े मेज़ पर रख दिए। ऐसा करते हुए उसकी नज़र सईद भाई जान की तस्वीर पर पड़ी। एक दम चौंक कर उसने उसको ग़ौर से देखना शुरू कर दिया और एक अ’जीब और ग़रीब आवाज़ हलक़ से निकाली, “है है है हैं?”

    मैंने उससे पूछा, “क्या बात है धोबी?”

    धोबी की नज़रें उस तस्वीर पर जमी रहीं, “ये तो साईद शालीम बालिशटर है?”

    “कौन?”

    धोबी ने मेरी तरफ़ देखा और बड़े वसूक़ से कहा, “साईद शालीम बालिशटर।”

    “तुम जानते हो इन्हें?”

    धोबी ने ज़ोर से सर हिलाया, “हाँ, दो भाई होता... उधर कोलाबा में इनका कोठी होता, साईद शालीम बालिशटर... मैं इनका कपड़ा धोता होता।”

    मैंने सोचा ये दो बरस पहले की बात होगी क्योंकि सईद हसन और मोहम्मद हसन भाई जान ने फिजी आईलैंड जाने से पहले तक़रीबन एक बरस बम्बई में प्रैक्टिस की थी। चुनांचे मैंने उससे कहा, “दो बरस पहले की बात करते हो तुम।”

    धोबी ने ज़ोर से सर हिलाया, “हाँ, साईद शालीम बालिशटर जब गया तो हमको एक पगड़ी दिया, एक धोती दिया, एक कुर्ता दिया, नया... बहुत अच्छा लोग होता। एक का दाढ़ी होता... ये बड़ा।” उसने हाथ से दाढ़ी की लंबाई बताई और सईद भाई जान की तस्वीर की तरफ़ इशारा करके कहा, “ये छोटा होता... इसका तीन बावा लोग होता... दो लड़का, एक लड़की। हमारे संग बहुत खेलता होता... कोलाबे में कोठी होता, बहुत बड़ा...”

    मैंने कहा, “धोबी ये मेरे भाई हैं।”

    धोबी ने हलक़ से अ’जीब-ओ-ग़रीब आवाज़ निकाली, “है है है हैं?... साईद शालीम बालिशटर?”

    मैंने उसकी हैरत दूर करने की कोशिश की और कहा, “ये तस्वीर सईद हसन भाई जान की है... दाढ़ी वाले मोहम्मद हसन हैं, हम सबसे बड़े।”

    धोबी ने मेरी तरफ़ घूर के देखा, फिर मेरी खोली की ग़लाज़त का जायज़ा लिया। एक छोटी सी कोठड़ी थी, बिजली लाईट से महरूम। एक मेज़ था, एक कुर्सी और एक टाट की गोट जिसमें हज़ारहा खटमल थे। धोबी को यक़ीन नहीं आता था कि मैं साईद शालीम बालिशटर का भाई हूँ, लेकिन जब मैंने उस को उनकी बहुत सी बातें बताईं तो उसने सर को अ’जीब तरीक़े से जुंबिश दी और कहा, “साईद शालीम बालिशटर कोलाबे में रहता और तुम इस खोली में!”

    मैंने बड़े फ़ल्सफ़ियाना अंदाज़ में कहा, “दुनिया के यही रंग हैं धोबी... कहीं धूप कहीं छाओं। पाँच उंगलियां एक जैसी नहीं होतीं।”

    “हाँ साब... तुम बरोबर कहता है।” ये कह कर धोबी ने गठड़ी उठाई और बाहर जाने लगा। मुझे उस के हिसाब का ख़याल आया। जेब में सिर्फ़ आठ आने थे जो शादी की बातचीत के सिलसिले में माहिम तक आने जाने के लिए बमुश्किल काफ़ी थे। सिर्फ़ ये बताने के लिए मेरी नीयत साफ़ है मैंने उसे ठहराया और कहा, “धोबी, कपड़ों का हिसाब याद रखना, ख़ुदा मालूम कितनी धुलाईयां हो चुकी हैं।”

    धोबी ने अपनी धोती का लॉंग दुरुस्त किया और कहा, “साब, हम हिसाब नहीं रखत। साईद शालीम बालिशटर का एक बरस काम किया... जो दे दिया, ले लिया... हम हिसाब जानत ही नाहींन।”

    ये कह वो चला गया और मैं शादी की बातचीत के सिलसिले में माहिम जाने के लिए तैयार होने लगा।

    बातचीत कामयाब रही... मेरी शादी हो गई। हालात भी बेहतर हो गए और मैं सेकेंड पीर ख़ान स्ट्रीट की खोली से जिसका किराया नौ रुपये माहवार था, क्लीयर रोड के एक फ़्लैट में जिसका किराया, पैंतीस रुपय माहवार था, उठ आया और धोबी को माह बमाह बाक़ायदगी से उसकी धुलाइयों के दाम मिलने लगे।

    धोबी ख़ुश था कि मेरे हालात पहले की बनिस्बत बेहतर हैं चुनांचे उसने मेरी बीवी से कहा, “बेगम साब, साब का भाई साईद शालीम बालिशटर बहुत बड़ा आदमी होता... उधर कोलाबा में रहता होता... जब गया तो हम को एक पगड़ी, एक धोती, एक कुर्ता दिया होता... तुम्हारा साब भी एक दिन बड़ा आदमी बनता होता।”

    मैं अपनी बीवी को तस्वीर वाला क़िस्सा सुना चुका था और उसको ये भी बता चुका था कि मुफ़लिसी के ज़माने में कितनी दरिया दिली से धोबी ने मेरा साथ दिया था। जब दे दिया, जो दे दिया, उसने कभी शिकायत की ही थी... लेकिन मेरी बीवी को थोड़े अ’र्से के बाद ही उससे ये शिकायत पैदा हो गई कि वो हिसाब नहीं करता। मैंने उससे कहा, “चार बरस मेरा काम करता रहा... उसने कभी हिसाब नहीं किया।”

    जवाब ये मिला, “हिसाब क्यों करता... वैसे दोगुने चौगुने वसूल कर लेता होगा।”

    “वो कैसे?”

    “आप नहीं जानते... जिनके घरों में बीवीयां नहीं होतीं उनको ऐसे लोग बेवक़ूफ़ बनाना जानते हैं।”

    क़रीब क़रीब हर महीने धोबी से मेरी बीवी की चख़ चख़ होती थी कि वो कपड़ों का हिसाब अलग अपने पास क्यों नहीं रखता। वो बड़ी सादगी से सिर्फ़ इतना कह देता, “बेगम साब, हम हिसाब जानत नाहीं, तुम झूट नाहीं बोलेगा... साईद शालीम बालिशटर जो तुम्हारे साब का भाई होता, हम एक बरस उसका काम किया होता... बेगम साब बोलता, धोबी तुम्हारा इतना पैसा हुआ... हम बोलता, ठीक है!”

    एक महीने ढाई सौ कपड़े धुलाई में गए। मेरी बीवी ने आज़माने के लिए उससे कहा, “धोबी, इस महीने साठ कपड़े हुए।”

    उसने कहा, “ठीक है, बेगम साब, तुम झूट नाहीं बोलेगा।”

    मेरी बीवी ने साठ कपड़ों के हिसाब से जब उसको दाम दिए तो उसने माथे के साथ रुपे छुवा कर सलाम किया और चलने लगा।

    मेरी बीवी ने उसे रोका, “ठेरो धोबी... साठ नहीं ढाई सौ कपड़े थे,लो अपने बाक़ी रूपे, मैंने मज़ाक़ किया था।”

    धोबी ने सिर्फ़ इतना कहा, “बेगम साब, तुम झूट नाहीं बोलेगा।” बाक़ी के रूपे अपने माथे के साथ छुआ कर सलाम किया और चला गया।

    शादी के दो बरस बाद मैं दिल्ली चला गया। डेढ़ साल वहां रहा, फिर वापस बम्बई आगया और माहिम में रहने लगा। तीन महीने के दौरान में हमने चार धोबी तबदील किए क्योंकि बेहद बेईमान और झगड़ालू थे। हर धुलाई पर झगड़ा खड़ा हो जाता था। कभी कपड़े कम निकलते थे, कभी धुलाई निहायत ज़लील होती थी। हमें अपना पुरानी धोबी याद आने लगा।

    एक रोज़ जब कि हम बिल्कुल बग़ैर धोबी के रह गए थे वो अचानक आगया और कहने लगा, “साब को हमने तक दिन बस में देखा, हम बोला, ऐसा कैसा... साब तो दिल्ली चला गया था। हमने उधर बाई खल्ला में तपास किया। छापा वाला बोला, उधर माहिम में तपास करो... बाजू वाली चाली में साब का दोस्त होता... उससे पूछा और गया।”

    हम बहुत ख़ुश हुए और हमारे कपड़ों के दिन हंसी ख़ुशी गुज़रने लगे।

    कांग्रेस बरसर-ए-इक्तदार आई तो इम्तना-ए-शराब का हुक्म नाफ़िज़ हो गया। अंग्रेज़ी शराब मिलती थी लेकिन देसी शराब की कशीद और फ़रोख़्त बिल्कुल बंद हो गई। निन्नानवे फ़ीसदी धोबी शराब के आदी थे। दिन भर पानी में रहने के बाद शाम को पाव आध पाव शराब उनकी ज़िंदगी का जुज़्व बन चुकी थी, हमारा धोबी बीमार हो गया। इस बीमारी का ईलाज उसने उस ज़हरीली शराब से किया जो नाजायज़ तौर पर कशीद करके छुपे चोरी बिकती थी। नतीजा ये हुआ कि उसके मे’दे में ख़तरनाक गड़बड़ पैदा हो गई जिसने उसको मौत के दरवाज़े तक पहुंचा दिया।

    मैं बेहद मसरूफ़ था। सुबह छः बजे घर से निकलता था और रात को दस साढ़े दस बजे लौटता था। मेरी बीवी को जब उसकी ख़तरनाक बीमारी का इ’ल्म हुआ तो वो टैक्सी लेकर उसके घर गई। नौकर और शोफ़र की मदद से उसको गाड़ी में बिठाया और डाक्टर के पास ले गई। डाक्टर बहुत मुतास्सिर हुआ, चुनांचे उसने फ़ीस लेने से इनकार कर दिया, लेकिन मेरी बीवी ने कहा, “डाक्टर साहिब, आप सारा सवाब हासिल नहीं कर सकते।”

    डाक्टर मुस्कुराया, “तो आधा आधा कर लीजिए।”

    डाक्टर ने आधी फ़ीस क़बूल कर ली।

    धोबी का बाक़ायदा ईलाज हुआ। मे’दे की तकलीफ़ चंद इंजेक्शनों ही से दूर हो गई। नक़ाहत थी, वो आहिस्ता आहिस्ता मुक़व्वी दवाओं के इस्तेमाल से ख़त्म हो गई। चंद महीनों के बाद वो बिल्कुल ठीक ठाक था और उठते बैठते हमें दुआ’एं देता था, “भगवान साब को साईद शालीम बालिशटर बनाए, उधर कोलाबे में साब रहने को जाये, बावा लोग हों... बहुत बहुत पैसा हो। बेगम साब धोबी को लेने आया, मोटर में... उधर किले(क़िले) में बहुत बड़े डाक्डर के पास ले गया जिसके पास मेम होता... भगवान बेगम साब को ख़ुस रख्खे...”

    कई बरस गुज़र गए। इस दौरान में कई सियासी इन्क़लाब आए। धोबी बिला नाग़ा इतवार को आता रहा। उसकी सेहत अब बहुत अच्छी थी। इतना अ’र्सा गुज़रने पर भी वो हमारा सुलूक नहीं भूला था, हमेशा दुआ’एं देता था। शराब क़तई तौर पर छूट चुकी थी। शुरू में वो कभी कभी उसे याद किया करता था, पर अब नाम तक लेता था। सारा दिन पानी में रहने के बाद थकन दूर करने के लिए अब उसे दारू की ज़रूरत महसूस नहीं होती थी।

    हालात बहुत ज़्यादा बिगड़ गए थे। बटवारा हुआ तो हिंदू-मुस्लिम फ़सादात शुरू हो गए। हिंदुओं के इलाक़ों में मुसलमान और मुसलमानों के इलाक़ों में हिंदू दिन की रोशनी और रात की तारीकी में हलाक किए जाने लगे। मेरी बीवी लाहौर चली गई।

    जब हालात और ज़्यादा ख़राब हुए तो मैंने धोबी से कहा, “देखो धोबी, अब तुम काम बंद कर दो... ये मुसलमानों का महल्ला है, ऐसा हो कोई तुम्हें मार डाले।”

    धोबी मुस्कुराया, “साब, अपन को कोई नहीं मारता।”

    हमारे मुहल्ले में कई वारदातें हुईं मगर धोबी बराबर आता रहा।

    एक इतवार, मैं घर में बैठा अख़बार पढ़ रहा था। खेलों के सफ़्हे पर क्रिकेट के मैचों का स्कोर दर्ज था और पहले सफ़हात पर फ़सादात के शिकार हिंदुओं और मुसलमानों के आदाद-ओ-शुमार... मैं उन दोनों की ख़ौफ़नाक मुमासलत पर ग़ौर कर रहा था कि धोबी आगया। कापी निकाल कर मैंने कपड़ों की पड़ताल शुरू कर दी तो धोबी ने हंस हंस के बातें शुरू कर दीं, “साईद शालीम बालिशटर बहुत अच्छा आदमी होता... यहां से जाता तो हमको एक पगड़ी, एक धोती, एक कुर्ता दिया होता। तुम्हारा बेगम साब भी एक दम अच्छा आदमी होता, बाहर गाम गया है ना? अपने मुल्क में? उधर कागज लिख्खो तो हमारा सलाम बोलो। मोटर लेकर आया हमारी खोली में... हमको इतना जुलाब आया होता, डाक्डर ने सुई लगाया... एक दम ठीक हो गया। उधर कागज लिख्खो तो हमारा सलाम बोलो... बोलो राम खिलावन बोलता है, हमको भी कागज लिख्खो...”

    मैंने उसकी बात काट कर ज़रा तेज़ी से कहा, “धोबी, दारू शुरू कर दी?”

    धोबी हंसा, “दारू?...

    दारू कहाँ से मिलती है साब?”

    मैंने और कुछ कहना मुनासिब समझा। उसने मैले कपड़ों की गठड़ी बनाई और सलाम कर के चला गया।

    चंद दिनों में हालात बहुत ही ज़्यादा ख़राब हो गए। लाहौर से तार पर तार आने लगे कि सब कुछ छोड़ो और जल्दी चले आओ। मैंने हफ़्ते के रोज़ इरादा कर लिया कि इतवार को चल दूंगा, लेकिन मुझे सुबह सवेरे निकल जाना था, कपड़े धोबी के पास थे। मैंने सोचा, कर्फ्यू से पहले पहले उसके हाँ जा कर ले आऊं, चुनांचे शाम को विक्टोरिया लेकर महालक्ष्मी रवाना हो गया।

    कर्फ्यू के वक़्त में अभी एक घंटा बाक़ी था, इसलिए आमद-ओ-रफ़्त जारी थीं। ट्रेनें चल रही थीं। मेरी विक्टोरिया पुल के पास पहुंची तो एक दम शोर बरपा हुआ। लोग अंधा धुंद भागने लगे। ऐसा मालूम हुआ जैसे सांडों की लड़ाई हो रही ये। हुजूम छिदरा हुआ तो देखा, दो भैंसों के पास बहुत से धोबी लाठीयां हाथ में लिए नाच रहे हैं और तरह तरह की आवाज़ें निकाल रहे हैं। मुझे उधर ही जाना था मगर विक्टोरिया वाले ने इनकार कर दिया। मैंने उसको किराया अदा किया और पैदल चल पड़ा, जब धोबियों के पास पहुंचा तो वो मुझे देख कर ख़ामोश हो गए।

    मैंने आगे बढ़ कर एक धोबी से पूछा, “राम खिलावन कहाँ रहता है?”

    एक धोबी जिसके हाथ में लाठी थी, झूमता हुआ उस धोबी के पास आया जिससे मैंने सवाल किया था, “क्या पूछत है?”

    “पूछत है, राम खिलावन कहाँ रहता है?”

    शराब से धुत धोबी ने क़रीब क़रीब मेरे ऊपर चढ़ कर पूछा, “तुम कौन है?”

    “मैं?... राम खिलावन मेरा धोबी है।”

    “राम खिलावन तोहार धोबी है... तू किस धोबी का बच्चा है?”

    एक चिल्लाया, “हिंदू धोबी या मुस्लिमीन धोबी का?”

    तमाम धोबी जो शराब के नशे में चूर थे, मुक्के तानते और लाठीयां घुमाते मेरे इर्दगिर्द जमा हो गए। मुझे उनके सिर्फ़ एक सवाल का जवाब देना था। मुसलमान हूँ या हिंदू? मैं बेहद ख़ौफ़ज़दा हो गया। भागने का सवाल ही पैदा नहीं होता था, क्योंकि मैं उनमें घिरा हुआ था। नज़दीक कोई पुलिस वाला भी नहीं था जिसको मदद के लिए पुकारता... और कुछ समझ में आया तो बेजोड़ अलफ़ाज़ में उन से गुफ़्तगू शुरू कर दी।

    “राम खिलावन हिंदू है... हम पूछता है वो किधर रहता है? उसकी खोली कहाँ है, दस बरस से वो हमारा धोबी है। बहुत बीमार था... हमने उसका ईलाज कराया था। हमारी बेगम, हमारी मेम साहब यहां मोटर लेकर आई थी...” यहां तक मैंने कहा कि तो मुझे अपने ऊपर बहुत तरस आया। दिल ही दिल में बहुत ख़फ़ीफ़ हुआ कि इंसान अपनी जान बचाने के लिए कितनी नीची सतह पर उतर आता है, इस एहसास ने जुरअत पैदा करदी चुनांचे मैंने उनसे कहा, “मैं मुस्लिमीन हूँ।”

    “मार डालो... मार डालो” का शोर बलंद हुआ।

    धोबी जो कि शराब के नशे में धुत था एक तरफ़ देख कर चिल्लाया, “ठहरो... इसे राम खिलावन मारेगा।”

    मैंने पलट कर देखा, राम खिलावन मोटा डंडा हाथ में लिए लड़खड़ा रहा था। उसने मेरी तरफ़ देखा और मुसलमानों को अपनी ज़बान में गालियां देना शुरू करदीं। डंडा सर तक उठा कर गालियां देता हुआ वो मेरी तरफ़ बढ़ा। मैंने तहक्कुमाना लहजे में कहा, “राम खिलावन।”

    राम खिलावन दहाड़ा, “चुप कर बे राम खिलावन के...”

    मेरी आख़िरी उम्मीद भी डूब गई। जब वो मेरे क़रीब पहुंचा तो मैंने ख़ुश्क गले से हौले से कहा, “मुझे पहचानते नहीं राम खिलावन?”

    राम खिलावन ने वार करने के लिए डंडा उठाया... एक दम उसकी आँखें सिकुड़ें, फिर फैलीं, फिर सिकुड़ें। डंडा हाथ से गिरा कर उसने क़रीब आकर मुझे ग़ौर से देखा और पुकारा, “साब!”

    फिर वो अपने साथियों से मुख़ातिब हुआ, “ये मुस्लिमीन नहीं... साब है। बेगम साब का साब... वो मोटर लेकर आया था, डाक्डर के पास ले गया था... जिसने मेरा जुलाब ठीक किया था।”

    राम खिलावन ने अपने साथियों को बहुत समझाया मगर वो माने... सब शराबी थे। तू तू मैं मैं शुरू हो गई। कुछ धोबी राम खिलावन की तरफ़ हो गए और हाथापाई पर नौबत गई। मैंने मौक़ा ग़नीमत समझा और वहां से खिसक गया।

    दूसरे रोज़ सुबह नौ बजे के क़रीब मेरा सामान तैयार था। सिर्फ़ जहाज़ के टिकटों का इंतिज़ार था जो एक दोस्त ब्लैक मार्किट से हासिल करने गया था।

    मैं बहुत बेक़रार था। दिल में तरह तरह के जज़्बात उबल रहे थे। जी चाहता था कि जल्दी टिकट आजाऐं और मैं बंदरगाह की तरफ़ चल दूं। मुझे ऐसा महसूस होता था कि अगर देर हो गई तो मेरा फ़्लैट मुझे अपने अंदर क़ैद कर लेगा।

    दरवाज़े पर दस्तक हुई, मैंने सोचा टिकट आगए। दरवाज़ा खोला तो बाहर धोबी खड़ा था।

    “साब सलाम!”

    “सलाम!”

    “मैं अंदर आजाऊँ?”

    “आओ!”

    वो ख़ामोशी से अंदर दाख़िल हुआ। गठड़ी खोल कर उसने कपड़े निकाल पलंग पर रखे। धोती से अपनी आँखें पोंछीं और ग्लूगीर आवाज़ में कहा, “आप जा रहे हैं साब?”

    “हाँ!”

    उसने रोना शुरू कर दिया, “साब, मुझे माफ़ करदो... ये सब दारू का क़सूर था... और दारू... दारू आजकल मुफ़्त मिलती है। सेठ लोग बांटता है कि पी कर मुस्लिमीन को मारो। मुफ़्त की दारू कौन छोड़ता है साब? हमको माफ़ करदो... हम पिए ला था, साईद शालीम बालिशटर हमारा बहुत मेहरबान होता... हमको एक पगड़ी, एक धोती, एक कुर्ता दिया होता। तुम्हारा बेगम साब हमारा जान बचाया होता, जुलाब से हम मरता होता... वो मोटर लेकर आता, डाक्डर के पास ले जाता। इतना पैसा ख़र्च करता। तुम मुल्क जाता... बेगम साब से मत बोलना। राम खिलावन...”

    उसकी आवाज़ गले में रुंध गई। गठड़ी की चादर कांधे पर डाल कर चलने लगा तो मैंने रोका, “ठेरो राम खिलावन।”

    लेकिन वो धोती का लॉंग सँभालता तेज़ी से बाहर निकल गया।

    स्रोत :
    • पुस्तक : خالی بوتلیں،خالی ڈبے

    यह पाठ नीचे दिए गये संग्रह में भी शामिल है

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    Jashn-e-Rekhta | 13-14-15 December 2024 - Jawaharlal Nehru Stadium , Gate No. 1, New Delhi

    Get Tickets
    बोलिए