स्टोरीलाइन
एक ऐसे शख़्स की कहानी, जो तन्हा है और वक़्त गुज़ारी के लिए हर रोज शाम को शराब-ख़ाने में जाता है। वहाँ अपने रोज़ के साथियों से उसकी बातचीत होती है और फिर वह पेड़ों के झुरमुट के पीछे छुपे अपने मकान में आ जाता है। मकान उसे किसी क़ैदख़ाने की तरह लगता है। वह मकान से निकल पड़ता है और क़ब्रिस्तान, पहाड़ियों और दूसरी जगहों से गुज़रते, लोगों के मिलते और उनके साथ वक़्त गुज़ारते हुए वह इस नतीजे पर पहुँचता है कि यह ज़िंदगी ही एक क़ैदख़ाना है।
अबे ओ राम लाल, ठहर तो सही। हम भी आ रहे हैं।
दो आदमी हाथों में डंडे लिए नशे में चूर झूमते आ रहे थे, राम लाल जो आगे-आगे चल रहा था, डंडा सँभालता हुआ उनकी तरफ़ मुड़ा, जो अब मस्ती से गले लग रहे थे। हवा बंद थी और गर्मी से दम घुटा जाता था। वो सब ताड़ी ख़ाना से लौट रहे थे।
अबे समझता क्या है। ऐसा डंडा रसीद करूँगा कि सिर फट जाए।
ओहो! ठहर तू। बदल पैतरा। बच...
अँधेरे में मुझे उनकी सूरतें तो न दिखाई दीं लेकिन हड्डी पर लकड़ी के बजने की आवाज़ आई। उनकी आवाज़ें बुलंद हुईं और फिर धीमी हो गईं। सड़क के दोनों तरफ़ मर्द और औरतें चारपाइयों पर पड़े सो रहे थे। मेरी निगाह टाँगों, छातियों और सोए हुए चेहरों पर पड़ी। क़िस्मत के क़ैदी मर्द और औरतें साथ सोते, सड़क पर ही बच्चे पैदा होते और इंसान मर जाते थे।
मैं नुक्कड़ पर मुड़ा। सामने मेरा आली शान मकान सियाह दरख़्तों की आड़ में ख़ामोश खड़ा था। उसके अंदर मैं बमों और गोला बारी से महफ़ूज़ ज़िंदगी बसर करता हूँ। क़रीब ही सड़क के मोड़ पर पिलाओ नाम का शराब ख़ाना है। जब बारिश होती है तो मैं उसके अंदर अपनी कोफ़्त शराब से दूर करने चला जाता हूँ। चौड़ी सियाह सड़क आईना की तरह चमकती है और पानी में दुकानों और मकानों के अक्स उसकी सत्ह पर खिड़कियों और दीवारों का गुमान पैदा कर देते हैं। जब मैं रात स्टेशन से वापस आता हूँ तो नुक्कड़ वाली दुकान एक जहाज़ की तरह सड़क के पानी पर चलती हुई मालूम होती है और उसकी नोक मेरे ख़्यालात के चप्पुओं से हिलती है। सर्दी से मैं अपने हाथ गर्म कोट की जेब में घुसा लेता हूँ और शाने सिकोड़े काँपता हुआ पटरी पर तेज़-तेज़ चलने लगता हूँ। बूँदें मेरी सियाह टोपी पर ज़ोर-ज़ोर से गिरती हैं और हल्की-हल्की फुवार मेरी ऐनक पर पड़ने लगती है। अंधी नगरी के सबब कुछ दिखाई नहीं देता। एक कार मेरे जहाज़ को काटती हुई गुज़र जाती है और उसकी मद्धम रौशनियों के अक्स से सड़क जगमगा उठती है। मैं पिलाओ में दाख़िल हो जाता हूँ। कमरा धुएँ और पसीने और शराब की बू से भरा हुआ है। ऐनक पर भाप जम जाने की वजह से हर चीज़ धुँधली नज़र आने लगी। मैं ऐनक को साफ़ करने के लिए उतार लेता हूँ।
सामने एनी एक लंबी मेज़ के पीछे खड़ी लकड़ी के पीपों में से मशीन से खींच-खींच कर शराब के ग्लास पीने वालों की तरफ़ बढ़ा रही है। उसके जिस्म पर सिवाय हड्डियों के अब कुछ बाक़ी नहीं। उसके सर पे सफ़ेद बाल हैं लेकिन कमर अभी तक एक सर्व की तरह सीधी है। उसकी आँखों से रूशनासी के तौर और उसके होंटों से ख़ैर-मक़दम का तबस्सुम टपक रहा है। लेकिन दस बजते ही वो चिल्लाना शुरू करेगी, ख़त्म करो भाई, ख़त्म करो। ये आख़िरी दौर है। चलो ख़त्म करो।
मगर हँसी और मज़ाक़ और शोर उसी तरह क़ायम रहेगा। वो उसी तरह कल से शराब खींचती रहेगी और उसकी आवाज़ मेरे कानों में रात को ख़्वाबों में गूँजेगी, ख़त्म करो, ख़त्म करो, ये आख़िरी दौर है। मुझे तेरी आवाज़ से सख़्त नफ़रत है, एनी। क्या तू ज़रा भी अपना लहजा नहीं बदल सकती? तेरी आवाज़ तो अपने तीसरे शौहर की क़ब्र में भी उसका दिल हिला देती होगी। क्या तुझे याद है वो अपना शौहर जो शराब की मस्ती में राही-ए-मुल्क-ए-बक़ा हुआ? अगर तो अपने टूटे हुए हारमोनियम की आवाज़ में उस पर न चिल्लाती तो शायद वो आज तक ज़िंदा होता। लेकिन तू तो मर्दों पर हुकूमत करने को पैदा हुई थी, शेरों को सधाने के लिए।
कैसा बुरा मौसम है। नैनियट ने मेज़ के पीछे वाले दरवाज़े से निकल कर कहा और एक शोख़ी भरी मुस्कुराहट उसके होंटों पर खेल गई। मैं बोला, तौबा। तौबा। ये औरत एक देवनी मा'लूम होती है। इसका क़द लंबा है और बदन पर सियाह कपड़े हैं, छाती पर एक सुर्ख़ गुलाब चमक रहा है और कानों में झूटे बुंदे।
अच्छे तो हो? उसने मोहब्बत भरे लहजे में मेरे कान के क़रीब आ कर कहा, हाँ। तुम सुनाओ।
तुम्हारी दुआ है। लेकिन ये तो कहो आज यहाँ कैसे बैठे हो? तुम तो हमेशा अपने मख़सूस कोने ही में बैठा करते थे।
मैंने मुड़ कर आतिश-दान की तरफ़ देखा। वहाँ हडसन बैठा हुआ था। हडसन पेशे का दर्ज़ी है, जिस्म का तोंदल और सर का तामड़ा। वो एक और महल्ले में रहता है लेकिन उसका मा'मूल है कि हर रात को दो ग्लास कड़वी के पीने पिलाओ में ज़रूर आता है। आँधी जाए, मेंह जाए लेकिन उसका यहाँ आना नहीं जाता। एक ज़माने में उसको एनी से मोहब्बत थी और उसके तीनों शौहर यके-बाद-दीगरे मैदान-ए-इश्क़ में हडसन को पीछे छोड़ते चले गए। लेकिन उसकी वज़ाअ'दारी देखिए कि अभी तक पुरानी रविश के मुताबिक़ उसी पाबंदी से यहाँ आता है, मगर एनी उसकी तरफ़ निगाह उठा के भी नहीं देखती।
हडसन बड़े कड़वे मिज़ाज़ का आदमी है। न जाने क्यों उसको मुझसे इस बात पर चिढ़ हो गई है कि मैं हमेशा उसी कोने में बैठता हूँ। एक रात वो बोला, क्यों जी, तुम हमेशा यहीं बैठते हो।
तो क्या तुम्हारा देना आता है? मैंने कहा, अगर तुम्हारा जी चाहे तो तुम बैठ जाया करो।
और तुम अपनी कुर्सी औरतों को भी नहीं देते।
देखो मियाँ! मैंने कहा, इस सदी के तीस साल बीत गए चालीसवाँ लगा है। अब रिक़्क़त-आमोज़ निसवानियत के दिन गए।
ताहम तुम्हें यहाँ बैठने का कोई हक़ नहीं।
अगर तुम्हें ये कोना इतना ही पसंद है तो शौक़ से बैठा करो। लेकिन तुम तो एनी ही के क़रीब बैठना चाहते हो।
यही बात है तो देखा जाएगा। उसने दांत पीस कर कहा और मुझे ग़ज़ब से देखा... और मैंने हडसन की तरफ़ इशारा किया।
तुमने उसकी भी भली फ़िक्र की। नैनियट ने कहा, वो तो पागल है। उसने तुम्हें अपनी तस्वीरें भी ज़रूर दिखाई होंगी?
उससे कहीं ऐसी भी ग़लती हो सकती थी?
और हम दोनों मिल कर हँसने लगे।
उसी रोज़ का वाक़िया है। मैं खड़ा कुभड़े से बातें कर रहा था कि हडसन ने मेरे कोहनी मारी। जब मैंने उसकी कोई परवाह न की तो उसने मुझे दोबारा टहोका। मैं उसकी तरफ़ मुड़ा,
हेलो।
गुड ईवनिंग वो मुस्कुरा के बोला, कैसा मिज़ाज़ है?
आपकी नवाज़िश है। और ये कह के मैं फिर कुभड़े की तरफ़ मुख़ातिब हो गया। हडसन ने फिर कोहनी मारी। मैं ग़ुस्से से उसकी तरफ़ मुड़ा। वो अपनी जेब में कुछ टटोल रहा था।
तुमने ये भी देखी है? और उसने मेरी तरफ़ एक सड़ी सी तस्वीर बढ़ा दी। तीन मिटे-मिटे आदमी कुर्सियों पर बैठे थे और उनमें से एक हडसन था।
ये जंग-ए-अज़ीम में खींची थी, समझे, जब मैं सार्जेंट था। ये कह कर वो हँसा और ख़ुशी से उसकी बाँछें खिल गईं। मैंने कहा, तो अब क्यों नहीं भरती हो जाते?
अब तो मेरी उम्र अस्सी साल की है। ये कह कर उसने एक आह भरी।
तुम्हारी उम्र तो बहुत कम मा'लूम होती है। तुम बड़ी आसानी से भरती हो जाओगे। आज-कल सिपाहियों की बहुत कमी है। उसके बाद मैंने मुँह मोड़ लिया। हडसन ने बुरा सा मुँह बनाया और अपने बराबर वाले को जंग-ए-अज़ीम में अपनी बहादुरी के क़िस्सा सुनाने लगा। लोगों को चीरता-फाड़ता मैं अपने कोने की तरफ़ गया और कॉर्नेस पर ग्लास रख के एक पाँव दिवार से लगा इस इंतिज़ार में खड़ा हो गया कि कोई कुर्सी ख़ाली करे तो बैठूँ।
तो तुम मेरे कोने में आ ही गए? मैंने हडसन से कहा। उसने बत्तीसी दिखाई और एक क़हक़हा लगाया। आज वो ज़रा ख़ुश-ख़ुश मा'लूम होता था। वो इसरार करने लगा कि बेंच पर बैठ जाओ। मुझे बेंच पर बैठने से सख़्त नफ़रत थी, लेकिन जब वो न माना तो मैं बैठ ही गया। वो भी कुर्सी छोड़ कर मेरे पास आन बैठा।
आज इत्तिफ़ाक़ से मेरी एक दोस्त से मुडभेड़ हो गई। हडसन लगा कहने, वो बड़ा फ़लसफ़ी है, समझे, तो मैंने कहा कि भई तुम बड़े फ़िलॉस्फ़र बनते हो, हमें भी एक बात बताओ। उसने कहा अच्छा। मैंने पूछा कि दुनिया कैसे अपनी जगह क़ायम है?
क्या मतलब? मैंने कहा।
क्या मतलब? जो कुछ मैंने कहा। यानी चाँद, तारे, सूरज और ज़मीन सब अपने-अपने काम में मशग़ूल हैं। आख़िर वो क्या ताक़त है जो इनको अपना फ़र्ज़ पूरा करने पर मजबूर करती है... वो तो कोई मा'क़ूल जवाब दे न सका। तुम बताओ कि कौन-सी चीज़ इन सब सितारों को अपनी जगह क़ायम रखती है।
बहस करने को मेरा जी न चाहता था इसलिए मैंने जवाब दिया, ख़ुदा।
नहीं, ग़लत।
तो फिर क्या चीज़ है? मैंने पूछा।
मैं तो ख़ुद तुमसे पूछ रहा हूँ।
तो फिर यगानगत सब तारों और सारे आलम को अपनी जगह क़ायम रखती है।
ग़लत उसने जमा कर कहा, मा'लूम होता है तुमने बस घास ही खोदी है।
तो फिर तुम ही बताओ ना?
अच्छा लो मैं बताए देता हूँ। ये सब तारे जो आसमान में जग-मग जग-मग करते हैं, ये चाँद जिसकी रक़्साँ किरनें ठंडक पहुँचाती हैं, वो सूरज जो अपनी रौशनी से दुनिया को गर्मी और उजाला बख़्शता है, ये ख़ूबसूरत ज़मीन जिस पर हम सब बसते हैं, इन सबको एक अजीब-ओ-ग़रीब और लाजवाब ताक़त अपनी-अपनी जगह क़ायम रखती है और ये ताक़त बिजली है।
मैं बे-साख़्ता हँस पड़ा। हडसन ग़ुस्से से चिल्लाने लगा, तो तुम्हें यक़ीन नहीं आया? तुम इस बात को नहीं मानते कि बिजली वो ताक़त है जो इन सब सितारों को यकजा रखती है? क्या तुम्हें ये भी मा'लूम नहीं कि तुम कैसे पैदा हुए?
बहुत महज़ूज़ हो कर मैंने कहा, नहीं।
अच्छा तो मैं बताए देता हूँ। तुम्हारे बाप ने तुम्हारी माँ के पेट में बिजली डाली, समझे और फिर तुम पैदा हुए...
मैं ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगा और ख़्याल किया कि शायद हडसन ने आज मा'मूल से ज़्यादा पी ली है। वो अपनी बिजली के राग अलापता रहा यहाँ तक कि मैं आजिज़ आ गया और एक दम से खड़ा हो घर की तरफ़ चल दिया। मुझे इस अजीब-ओ-ग़रीब नज़रिये और इसके हामी पर हँसी आ रही थी। फिर ख़्याल आया कि वो अपनी अंदुरूनी दुनिया के हाथों क़ैद है और ये सोचते-सोचते मैं तन्हाई और कोफ़्त के समुंद्र में डूब गया।
मेरे कमरे किताबों, अलमारियों और कुर्सियों से भरे हुए हैं। मैं अक्सर कोफ़्त से यहाँ टहलता हूँ, तन्हाई मुझे खाने लगती है और मैं बेज़ार हो जाता हूँ। मेरा मकान, उसके बड़े-बड़े कमरे और सलाख़ों-दार खिड़कियाँ एक क़ैदख़ाना मा'लूम होती हैं। मैं खिड़कियों से झाँकता हूँ। मेरी निगाह कुशादा मैदानों, मर्ग-ज़ारों और पहाड़ों पर पड़ती है। रात को आसमान तारों से भर जाता है और उसकी वुसअत की कोई थाह नहीं मिलती। ज़िंदगी आसमान की तरह आज़ाद है। लेकिन ज़िंदगी की उफ़ुक़ से दूर और दुनियाएँ हैं और सितारों से परे और भी जहाँ हैं जो इन सितारों और इस दुनिया से कहीं ज़्यादा ख़ुशनुमा और रंगीन हैं। मेरी हड्डियाँ और जिस्म, मेरे ख़्यालात भी इस क़ैदख़ाने की सलाख़ें हैं जिस को हम ज़िंदगी कहते हैं। लेकिन मैं अपने जिस्मानी रूप से आज़ाद नहीं हो सकता, उसी तरह जैसे मेरा जिस्म इस मकान के क़ैदख़ाने से आज़ादी हासिल नहीं कर सकता। अपने कमरों की चहार दीवारी में अपने तख़य्युल के अंदर में भी उसी तरह चक्कर लगाता हूँ जैसे चिड़िया घर के पिंजरों में रीछ।
कभी-कभी में तन्हाई से पागल होजाता हूँ और सलाख़ों को पकड़ कर दर्द से चीख़ने लगता हूँ और मेरी फटी हुई आवाज़ में ग़ुलामी और उस रूह की तकलीफ़ों का नग़मा सुनाई देता है जो सदियों से आज़ादी के लिए जान तोड़ कोशिश कर रही है। जब लोग मेरी चीख़ सुनते हैं तो तमाशा देखने को इकट्ठे हो जाते हैं। वो भी सलाख़ें पकड़ लेते हैं और मेरी नक़्ल करते हैं। उनका मुँह चिढ़ाना मेरे दिल में एक तीर की तरह लगता है और मेरा दिमाग़ इंसान के लिए नफ़रत से भर जाता है। अगर मैं अपने पिंजरे से निकल सकता तो इनको एक-एक करके मार डालता और इनके खोखले सीनों पर फ़त्ह के जज़्बे में चढ़ बैठता। काश कि मैं सिर्फ़ एक ही दफ़ा इंसान को बता सकता कि वो अज़हद ज़लील है और उसकी रूह कमीनी और सड़ाँदी। पहले तो वो आदमी को एक पिंजरे में बन्द कर देता है और फिर इस बुज़दिलाना हरकत पर ख़ुश होता है।
क़फ़स के बाहर वो आज़ाद है (नहीं आज़ाद नहीं बल्कि अपनी ही बनाई हुई ज़ंज़ीरों में जकड़ा हुआ है जैसे साए जकड़े हुए होते हैं) और बाहर से एक बुज़दिल की तरह मूँगफली दिखाता है और मेरी तड़पन और भूक पा ख़ुश होता है। लेकिन अक्सर जब वो मूँगफली दिखाता है और मैं उसे लपकने को अपना मुँह खोलता हूँ तो वो सिर्फ़ एक कंकरी फेंक देता है। मैं ग़ुस्से से चीख़ उठता हूँ लेकिन मेरी कोई भी नहीं सुनता। मगर वो जो मेरी रूह को ईज़ा पहुँचाते हैं, मेरे दर्द पर ख़ुशी से तालियाँ बजाते और मेरे ज़ख़्मों पर नमक छिड़क के ख़ुश होते हैं। उन्हें क्या मा'लूम कि मुझ पा क्या गुज़रती है, वो क्या जानें कि रूह किसे कहते हैं, वो शायद अपनी सफ़ेद चमड़ी पर ग़ुरूर करता है और मुझे इस लिए ईज़ा पहुँचाता है कि मैं काला हूँ और मेरे जिस्म पर लम्बे-लम्बे बाल हैं। लेकिन मेरा ही जी जानता है कि मुझे इससे कितनी नफ़रत है।
हर रोज़ एक शख़्स दूर से मेरे पिंजरे में ग़िज़ा रख देता है। वो नज़दीक आने से शायद इसलिए डरता है कि मैं कहीं उसका गला न घोंट दूँ। कभी-कभी वो मुझसे बातें भी कर लेता है, लेकिन सलाख़ों के बाहर से। अक्सर वो अच्छी तरह पेश आता है और मेरी आज़ादी और रिहाई का तज़किरा करता है। ऐसे मौक़ों पर वो अच्छा मा'लूम होता है और मैं हिमालय की बर्फ़ानी चोटियों, चीड़ के जंगलों और शहद के छत्तों के ख़्वाब देखने लगता हूँ। उसने जब पहली बार मुझसे शफ़क़त से बातें कीं तो मेरी ख़ुशी की कोई इंतिहा न रही।
कैसा है तू, अबे काले ग़ुलाम, रात को ख़ूब सोया? हाँ? शाबाश।
मैंने इज्ज़-ओ-मोहब्बत से उसकी तरफ़ देखा और ख़ुशी के मारे अपना मुँह खोल दिया।
अच्छा अगर मैं तुझको आज़ाद कर दूँ तो कैसा हो?
मैं ख़ुशी के मारे फूला न समाता था और वज्द से छाती पीटने लगा।
लेकिन तू आज़ादी ले कर करेगा क्या? मैं तुझको खाना देता हूँ, तेरा घर साफ़ रखता हूँ। ज़रा इन बंदरों को तो देख। तूने कभी इस बात पर भी ग़ौर किया है कि वो सर्दी में सिकुड़ते और बारिश में भीगते हैं? दिन को ग़िज़ा की तलाश में मारे-मारे फिरते हैं। रात को जहाँ कहीं जगह मिल गई बसेरा ले लिया। इनकी ज़िंदगी वबाल है। अगर तू भी आज़ाद होता तो इनकी तरह मारा-मारा फिरता। क्यों बे-ग़ुलाम, यही बात है ना?
मेरा दिल बैठ गया और मैंने एक आह भरी।
अरे जा भी, मैं तो मज़ाक़ कर रहा था, तू बुरा मान गया। मैं सच-मुच तुझे रिहा कर दूँगा।
ख़ुशी की कैफ़ियत फिर लौट आई और मैं उसके लिए जान तक क़ुर्बान करने को तैयार था। मगर ऐसे वा'दे तो उसने बारहा किए हैं और अब तो उस का एतबार तक उठ गया है। वो तो कह के भूल जाता है, लेकिन मैं अपने क़फ़स में नहीं भूलता और ख़ुशी और आज़ादी के ख़्वाब देखने लगता हूँ, उस वक़्त कि जब कि मैं अपनी ज़िंदगी का ख़ुद मालिक हूँगा। अब तो वो जब कभी मुझसे बातें करता है तो मेरे दिल में नफ़रत भर आती है और कोई भी इसकी आग को नहीं बुझा सकता लेकिन मैं उसके हाथों क़ैद हूँ और सब्र-ओ-मजबूरी के अलावा कुछ और चारा नहीं।
इस ज़ुल्म और तशद्दुद से मैं इस क़दर मजबूर हो जाता हूँ कि अपने मकान की खिड़कियों की सलाख़ों को पकड़ कर कराहने लगता हूँ। सिर्फ़ उसी तरह दुनिया के मुँह चिड़ाने और जग-हँसाई से निजात मिल सकती है और मेरे दिल को क़दरे सुकून होता है। मगर जब मेरा ग़ुस्सा कम हो जाता है तो कोफ़्त अपने पंजों में जकड़ लेती है और मैं अपने कमरों और मकान की काल-कोठरी में टहलने लगता हूँ और जब इससे भी आजिज़ आ जाता हूँ तो कुर्सियों पर बैठ के घंटों टूटे हुए फ़र्श या दीवारों को घूरा करता हूँ। कोफ़्त से आजिज़ आ कर एक रात मैं बाहर आया। जाड़ों का मौसम था और सड़कों पर बर्फ़ पड़ी हुई थी। यकायक मुझे क्लेरा का ख़्याल आ गया और उससे मिलने की निय्यत से स्टेशन की तरफ़ चल दिया।
जब मैंने घंटी बजाई तो नौकरानी ने दरवाज़ा खोला और मुझे देख कर इस तरह मुस्कुराई जैसे उसको इल्म था कि मैं किस लिए आता हूँ। उसकी हँसी में एक मुरझाई हुई बुढ़िया की वो ख़ुशी थी जो एक नौजवान मर्द और औरत के इकट्ठा होने के ख़्याल से पैदा हो जाती है। फिर उसके चेहरे पर एक और ही कैफ़ियत नुमायाँ हुई और उसने मुझे शिकायत की नज़र से इस तरह देखा जैसे उसकी नीलगूँ आँखें कह रही हों, तुम कितने ख़राब इंसान हो। एक लड़की को इतनी देर तक इंतिज़ार करवा दिया। उसके जज़्बा-ए-निसवानियत को ठेस पहुँची थी, इस जज़्बे को जिसके सबब जिंस एक लाजवाब और रूमानी शय मालूम होने लगती है और उसने भर्राई हुई आवाज़ से कहा,
तुमने बड़ी देर लगा दी।
हाँ, ज़रा देर हो गई। वैसे तो ख़ैरियत है?
वो फिर हँसने लगी और सीढ़ियों पर चढ़ते वक़्त मेरी कमर पर एक मा'नी-ख़ेज़ तरीक़े से धप रसीद किया।
मैंने क्लेरा के कमरे का दरवाज़ा खोला। रेडियो पर कोई चीख़-चीख़ कर हिज़्यानी लहजे में तक़रीर कर रहा था। आतिश-दान में गैस की आग जल रही थी और एक कुर्सी पे सियाह टोपी रखी थी जिस पर सुनहरी फूल टँका हुआ था। नीले रंग की कुर्सियाँ और तकिये और सुर्ख़ क़ालीन बिजली की रौशनी में उदास-उदास मा'लूम हो रहे थे। और क्लेरा का कहीं पता न था। मुझे एक कोने से सिसकियों की आवाज़ आई। झाँक के जो देखा तो क्लेरा पलंग पर औंधी पड़ी रो रही थी। ये बात मुझे सख़्त नागवार हुई। माना कि मुझे देर हो गई लेकिन इस रोने के क्या मा'नी थे? मुझे उससे इश्क़ तो था नहीं।
क्या बात हुई? मैंने पूछा, रोती क्यों हो?
थोड़ी देर तक तो वो सुब्कियाँ लेती रही फिर डबडबाई हुई आँखों से शिकायत करने लगी।
तुम कभी वक़्त पर नहीं आते। रोज़-रोज़ देर करते हो। तुम्हें मेरी ज़रा भी चाह नहीं।
मैं बोला, देर ज़रूर हो गई, इसकी माफ़ी चाहता हूँ। लेकिन आख़िर इस तरह क्यों पड़ी हो?
तबियत ख़राब है। ये कह कर वो आँसू पोंछती हुई उठ बैठी और अपना हाल बयान करने लगी।
वो बातें कर रही थी लेकिन मेरे दिल में तरह-तरह के ख़्याल आ रहे थे। मेरी कोफ़्त कम न हुई थी। इसमें शक नहीं कि अव्वल तो वो हव्वा की औलाद थी और फिर औरत, लेकिन वो मुझसे क्या चाहती थी? उसका ख़्याल था कि मुझको अपने क़ब्ज़े में कर लेगी लेकिन उसको ये न मा'लूम था कि मुझ पर किसी का भी जादू नहीं चल सकता। वो अपनी ही जगह पर रह जाएगी और मैं दूसरी औरतों की तरफ़ दूसरी दुनियाओं में बढ़ जाऊँगा। मेरे लिए औरत महज़ एक खिलौना है, ऐसा ही बहलावा जैसे बाज़ीगर का तमाशा। जिस तरह बच्चे का दिल एक खिलौने से भर कर दूसरे खेलों में लग जाता है उसी तरह मैं भी एक ही बला में गिरफ़्तार होना नहीं चाहता। औरत एक सय्याद है और मर्द की रूह और जिस्म दोनों पर क़ब्ज़ा करना चाहती है। मैं अपने ख़्याल में खोया हुआ था। इस बात से उसके जज़्बा-ए-ख़ुद-नुमाई को इसलिए ठेस लगी कि मैं उसकी तरफ़ मुतवज्जेह न था।
छत मुझसे ज़्यादा दिलचस्प मा'लूम होती है। वो जल के बोली।
तुम भी कैसी बातें करती हो। मैं तुम्हारी बातें ग़ौर से सुन रहा हूँ।
तुम हमेशा यही करते हो। उसके इन अलफ़ाज़ में जलन का एहसास था।
मैं कितनी ही कोशिश क्यों न करूँ तुमको जान न पाऊँगी।
तुम ठीक कहती हो। मैं अपने आपको एक मुअम्मा मा'लूम होता हूँ। मैं बड़ा ख़ुद्दार हूँ।
हाँ तुम मग़रूर हो। औरतों ने तुम्हारा दिमाग़ ख़राब कर दिया है। मगर तुम इतने बुरे तो नहीं हो। तुम अपने आप में छिपे रहते हो, मैं निकालने की कोशिश करूँगी।
वो अपने को महज़ धोका दे रही थी। वो तो क्या मुझे निजात दिलाती मैं ख़ुद अपने से हार मान चुका हूँ। एक औरत ने मुझे अपने अंदर पनाह लेने पर मजबूर कर दिया था और अब मुझे कोई नहीं निकाल सकता।
अब तो ये मुमकिन नहीं, मैंने कहा, अपने तहफ़्फ़ुज़ के लिए क़िला बनाया था, ख़ुद ही मैंने इस क़ैदख़ाने की दीवारें खड़ी की थीं। अब मैं न तो इनको ढा ही सकता हूँ और न आज़ादी हासिल कर सकता हूँ।
मुझे उसकी आँखों में एक लम्हे के लिए परेशानी की झलक दिखाई दी। फिर उसने मुझे अपनी आग़ोश में ले लिया। न उसने मुँह से एक लफ़्ज़ निकाला न मैंने कुछ कहा। वो मुझे तस्कीन देना चाहती थी, इस बात का एहसास पैदा करा रही थी और मुझे अपनी हिफ़ाज़त में रखना चाहती थी। मुझे उस पर तरस आने लगा और अपनी हालत पर भी अफ़सोस हुआ।
मुझे अफ़सोस इस बात का है कि तुम्हारी मुलाक़ात ग़लत आदमी से हुई।
नहीं। ठीक आदमी से। और ये कह कर उसने मुझे ज़ोर से भींच लिया। मैं उसकी पीठ को थपकने लगा, उसने अपनी बाँहें ढीली कर दीं। लेकिन फिर उसने मुझे सीने से चिमटा लिया और मोहब्बत से कहा, मेरी जान! और बड़ी नर्मी और शफ़क़त से मुझे इस तरह झुलाने लगी जैसे मैं एक नन्हा बच्चा था, वो मामता भरी माँ और उसकी आग़ोश एक झूला जिस में आराम की नींद सो सकता था और दुनिया को भुला कर सब ख़ौफ़-ओ-ख़तर से निजात पा लेता।
बड़ी देर के बाद उसने मुझको जाने दिया। जब मैं स्टेशन पहुँचा तो बारह बज चुके थे और आख़िरी रेल छूट रही थी। मैं जब रेल से उतर के बाहर आया तो चौधवीं रात का चाँद ढले हुए आसमान पर चमक रहा था और उसकी रौशनी में सड़कें सफ़ेद बुर्राक़ बर्फ़ की रज़ाई ओढ़े पड़ी थीं। दरख़्तों के साए एक अजीब कैफ़ियत पैदा कर रहे थे और चाँदनी में बर्फ़ एक ख़्वाब की तरह ग़ैर हक़ीक़ी और ता'ज्जुब-ख़ेज़ मा'लूम होती थी। दासताने उतार कर मैंने ये देखने को बर्फ़ हाथ में उठाई कि कहीं रोई के गाले तो ज़मीन पर इसलिए नहीं बिछा दिये गए हैं कि इसको गर्म रखें। लेकिन वो मेरे हाथ की गर्मी से पिघल गई। मैं और उठाने को झुका। मेरे पैरों तले वो चर-मर कर के टूटी। मैंने जूते की नोक से ठोकर मारी। क्या वो सख़्त थी या नर्म? एक शख़्स जो पास से गुज़र रहा था, मुड़ के देखने लगा कि मैं कहीं पागल तो नहीं हूँ। फिर ये सोचता हुआ कि शायद कोई ख़ब्ती है, चला गया। मैं भी ताज़ी हवा के घूँट लेता हुआ आगे बढ़ा। दूर-दूर जिस तरफ़ भी निगाह उठती थी, हर चीज़ एक ख़्वाब की तरह अनोखी और ख़ूबसूरत मा'लूम हो रही थी।
मकान के दाएं तरफ़ क़ब्रिस्तान है। इसके अंदर क़ब्रें हैं, लेकिन क़ैदियों का अब नाम-ओ-निशान भी बाक़ी नहीं। सिर्फ़ पत्थर और तारीक कोठरियाँ ज़िंदगी की ना-पायदारी और दुनिया की बे-सबाती की याद दिलाने को अभी तक मौजूद हैं।
पुश्त पर डरावना और भयानक जंगल है। उसमें अजीब-अजीब आवाज़ें और ख़्वाब छिपे हुए हैं। अक्सर शेरों के दहाड़ने की आवाज़ आती है और शाम को लाखों कव्वे काँय-काँय करके आसमान सर पर उठा लेते हैं। मगर उसके अंदर आज़ादी और इस ला-मुतनाही क़ैद ख़ाने से रिहाई की उम्मीद भी झलकती है। एक दिन मैं भी उसमें क़दम रखूँगा। लेकिन अगर ये भी क़ैद-ख़ाना साबित हुआ तो फिर मैं किधर जाऊँगा? यहाँ कम से कम आज़ादी की उम्मीद तो है। जंगल में शायद ये भी न हो। ये ख़्यालात मुझे अक्सर परेशान किया करते हैं।
एक रात मैं उस बरामदे में सो रहा था जो जंगल से मुल्हिक़ है। कोई आधी रात गए ऊपर की मंज़िल पर किवाड़ों के धड़-धड़ाने की आवाज़ से मेरी आँख खुल गई। मैंने सोचा शायद नौकर किवाड़ बंद करने भूल गए और आँधी चल रही है। मैं लेट गया, लेकिन धड़-धड़ कम न हुई। मैं फिर उठ बैठा। उसी वक़्त ऊपर किसी के चलने की आवाज़ आई। मैंने अपने दिल में कहा कि जौन होगा। वो अक्सर मिलने आ जाता है।
जौन ईस्ट इंडिया कम्पनी का सिपाही है और 1857 में मारा गया। मैं उससे पहली मर्तबा एक पार्टी में मिला था। उस पार्टी में कुछ लड़के-लड़कियाँ, मुसन्निफ़ और मुसव्विर और चेकोस्लोवाकिया के दो-एक गोशे मौजूद थे। जौन ख़ुद बहुत सादा-लौह, नर्म-दिल और ख़ामोश तबियत था। वो एक छोटे से कमरे में रहता था और मक्खन-डबल रोटी पर गुज़ारा करता था। कभी-कभी हम चीनी खाना खाते और पकेडेली में घूमते। हम दोनों ने लंदन की गलियों की ख़ाक छानी है और दुकानों में काम करने वाली लड़कियों और तवायफ़ों के थके हुए पज़मुर्दा चेहरों का मुतालेआ किया है, या लेस्टर स्ट्रीट में छोटे-छोटे गंदे लौंडों का। वो आहिस्ता-आहिस्ता अटक-अटक कर नर्मी से बातें करता था। उसके चेहरे पर बच्चों की सी मासूमियत थी। उसकी परवरिश दूध और शहद पर हुई थी।
जौन, किस बेवक़ूफ़ ने तुमको इस बात की सलाह दी कि फ़ौज में भरती हो कर इस दर्द-अंगेज़ मुल्क में आओ? तुम्हें तो चाहिए था कि वहीं रहते और दोस्तों को चाय पिलाया करते।
इसके बाद ही उसे मुक़ाबले पर आना पड़ा। जैसे ही वो रेज़ीडेन्सी की दिवार फाँद के मैदान में आया तो उसका सामना एक हिन्दुस्तानी सिपाही से हुआ। वो निशाना लेने को झुका। सिपाही जिसकी चढ़ी हुई डाढ़ी और लाल-लाल आँखें ख़ौफ़नाक मा'लूम होती थीं, बड़ा नर्म-दिल था और उसने जौन पर रहम खाया। जैसे ही जौन ने घुटना टेक के शिस्त ली, सिपाही बोला,
क़िब्ला गोरे सँभल कर, कहीं तुम्हारी गोरी-गोरी टाँग मैली न हो जाए। और फिर तारीकी थी। जौन, तुम्हारी टाँग कहीं मैली तो नहीं हो गई...? दरवाज़ा खुला हुआ था। लकड़ी की सीढ़ियों पर खटपट करता हुआ मैं ऊपर चढ़ा। बिल्ली खिड़की में बैठी थी, आतिश-दान में गैस की आग जल रही थी, लेकिन कमरे में इंसान का नाम-ओ-निशान ही न था। गर्म-कोट उतार के मैं अंदर दाख़िल हुआ। लकड़ी की आराम कुर्सी प मेगी बैठी थी। उसका चेहरा सुता हुआ, बाल सुर्ख़, उंगलियाँ सिगरेट से लाल और दिल मुलायम था।
हेलो मेगी, तुम भी हो? और सब कहाँ हैं?
शराब ख़ाना गए हुए हैं। उसने भारी आवाज़ से बग़ैर होंट हिलाए हुए कहा। उसके ज़र्द दाँत चमक रहे थे और उसकी आँखें कहीं दूर परे देख रही थीं।
मेगी ख़ामोश बैठी रही। उसके ख़्यालात अफ़्रीक़ा या मिस्र की सैर कर रहे थे और वहाँ मर्दों के ख़्वाब देख रही थी जिनको आशिक़ बनाने की तमन्ना उसके दिल में थी मगर पूरी न हो सकती थी। वो साकित बैठी सिगरेट पीती रही। मैं भी ख़्यालों की दुनिया में खो गया। मेरी आँखें गोगाँ की तस्वीर पर पड़ीं और चल के कॉर्नेस पर घड़ी पर ठहरीं और मेगी के चेहरे पे आ कर रुक गईं। उसके चेहरे पर हड्डियाँ ही हड्डियाँ, बाल पके हुए भुट्टे की तरह सुर्ख़ और सख़्त हैं, होंट इलायची के पत्तों की तरह बारीक और दाँत बड़े-बड़े और ज़र्द हैं। मुझे ऐसा मा'लूम हुआ कि मैं हड्डियों के ढेर को देख रहा हूँ। यकायक मुझे ख़्याल आया कि मेगी तो एक हवाई हमले में काम आ गई थी और मैंने कहा,
मेगी तुम तो एक हवाई हमले में काम आ गई थीं।
हल्की सी मुस्कुराहट उसके चेहरे पर दौड़ गई। उसकी आवाज़ कहीं दूर से एक ढोल की तरह आई, हाँ, मैं मर तो गई थी।
हाय बेचारी मेगी। क्या ज़ख़्मों से बहुत तकलीफ़ हुई?
हाँ शुरू-शुरू में, बस ख़फ़ीफ़ सी और फिर तो कुछ मा'लूम भी नहीं हुआ।
अच्छा ये तो बताओ तुम्हें वो आशिक़ भी मिले या नहीं?
मुस्कुराहट उसके होंटों पर फिर खेलने लगी और बढ़ते-बढ़ते सारे चेहरे पर फैल गई।
हाँ सबके सब मिल गए।
तो अब तो ख़ुश हो, मेगी? वो अच्छे हैं ना?
वो फिर कहीं दूर देखने लगी। उसके चेहरे पर संजीदगी और मतानत आ गई। मेगी सोच में पड़ गई।
जो सच पूछो तो मायूस-कुन निकले। मेरे अपने दिमाग़, मेरे तख़य्युल में वो बहुत अच्छे थे, लेकिन हक़ीक़त में गोश्त और हड्डियों के ढंचर निकले।
हाँ मैंने कहा, वो चीज़ जो तख़य्युल में बस्ती है, उससे ब-दरजहा ख़ुशनुमा और लाजवाब होती है जिस को इन्सान छू सकता है और महसूस कर सकता है, लेकिन मुझे ये सुन कर बहुत ही अफ़सोस हुआ कि तुम ख़ुश नहीं हो।
उसकी आँखों में ऐसा तरस झलक उठा जो इंसान अपने लिए ख़ुद महसूस करता है। वो आग की तरफ़ घूरने लगी और मुझसे और दुनिया से बहुत दूर अपने ख़्याल में खो गई। लेकिन अब ग़ुब्बारे आसमान पर चढ़ चुके थे। सड़क सुनसान थी और शह्र पर सन्नाटा छा चला था। ईस्ट एंड के रहने वाले अँधेरे के सबब घरों को चल दिए थे। सिर्फ़ दो-एक ही अपनी-अपनी माशूक़ाओं की कमरों में हाथ डाले कहीं-कहीं कोनों में खड़े थे या बंद दुकानों के दरवाज़ों में खड़े प्यार कर रहे थे। शफ़क़ आसमान पर फूली हुई थी।
अच्छा मेगी, मैं अब चल दिया। ज़रा टहलने को जी चाहता है।
और मैं भी शराब-ख़ाने में उन सबके साथ एक ग्लास पियूँगी। ख़ुदा हाफ़िज़।
ख़ुदा हाफ़िज़, मेगी।
मकान के बाएँ तरफ़ हिमालय की बर्फ़ानी चोटियाँ आसमान से बातें करती हैं। शफ़क़ उनको सुर्ख़, गुलाबी और नारंजी रंगों में रंग देती है। उनके दामन में दरिया-ए-व्यास का ज़मर्रुदी पानी एक सुरीला नग़मा गाता, चट्टानों, दरख़्त और रेत के छोटे-छोटे ख़ुशनुमा जज़ीरे बनाता, पहाड़ों, बर्फ़ और मैदानों की क़ैद से आज़ादी हासिल करने और समुंद्र की मुहब्बत-भरी आग़ोश में अपने रंजों को भुलाने की तमन्ना में बहता हुआ चला जाता है।
सामने देव बन है और उसके परे पहाड़ की चोटी पर बिजली के देवता पर साल में एक दफ़ा बिजली कड़कती है और बादल गरजते हैं। मंदिर में एक के बाद दो सात कमरे हैं। सातवें कमरे में पुजारी का लड़का आँखों पे पट्टी बाँधे बैठा एक पत्थर की हिफ़ाज़त करता है। जब बिजली कड़क के पत्थर पर गिरेगी तो उसके हज़ार-हा टुकड़े हो जाएँगे। लेकिन पुजारी का लड़का उनको समेट कर इकट्ठा कर लेगा और वो फिर जुड़ जाएँगे।
पहाड़ियों के अंदर एक दर्रा है। उसके दोनों तरफ़ ढालों पर चीड़ के ख़ुशबू-दार दरख़्त उगे हुए हैं और एक रास्ता बल खाता हुआ ख़ामोश अनजान में खो जाता है। मेरे क़दम दर्रे की तरफ़ उठते हैं। पहाड़ियों के बीच से निकल कर एक सूखी हुई गुमनाम नदी वादी में बहती है। एक पन-चक्की के बराबर पहाड़ के दामन में सात खेत हैं। दिन-भर उनमें मर्द और औरतें धान बो रहे थे। सबसे नीचे के खेत से शुरू करके वो सबसे ऊपर के खेत तक पहुँच चुके थे। मैंने सोचा कि वो अब भी धान बो रहे होंगे लेकिन ऊपर का खेत पानी से भरा हुआ है और छ: औरतें और एक मर्द घुटनों-घुटनों कीचड़ में खड़े हैं। मा'लूम होता है कि जंग पर आमादा हैं। यकायक मर्द एक औरत पे झपटा और उसे कमर पर उठा कर पानी में फेंक दिया। औरतें मिल कर उसकी तरफ़ बढ़ीं लेकिन वो उनसे एक-एक करके मुक़ाबला करता रहा। ये खेल बड़ी देर तक जारी रहा। वो उनको मअ कपड़ों के पानी में ग़ोते देता और वो कुछ न बोलतीं। मैं खड़ा हुआ जिंस और बोने के मौसम की इस रस्म का तमाशा देखता रहा।
जब मैं टहल के वापस आया तो क्या देखता हूँ कि उन सब ने मैले कपड़े उतार के सफ़ेद कपड़े पहन लिए हैं। फिर वादी मौसीक़ी की आवाज़ से गूँजने लगी। बहुत से मर्द और औरतें इस तरह नमूदार हो गये जैसे कि सब पहाड़ से निकल आए हों। वो जुलूस बना कर एक पगडंडी से पहाड़ पर चढ़ने लगे। ढोल, मजीरों और बांसुरियों की आवाज़ फ़िज़ा में फैल गई और राग एक वहशियाना वज्द से भरा नाच का राग था। रगों में ख़ून इस तरह रुकता और फिर बहने लगता था जैसे जवानी में महबूबा की एक झलक देख लेने पर दिल की हरकत।
जुलूस बल खाता हुआ एक झोंपड़ी के सामने चबूतरे पर रुक गया। जब सब बैठ गए तो मौसीक़ी फिर अठखेलियाँ करने लगी और एक मर्द हाथ फैला के कूल्हे मटका-मटका कर इस तरह नाचने लगा जैसे जंगल में मोर जज़्बे में मस्त। फिर और लोग भी नाच रंग में शरीक हो गये और गाने बजाने की आवाज़ पहाड़ों की चोटियों से टकराने लगी। लेकिन अब साए लम्बे हो चले और रात की आमद है और मैं भी अपने क़ैद-ख़ाने की तरफ़ रवाना हो गया।
रास्ते में लीला का मकान पड़ा और मैं उससे मिलने ठहर गया। उसके कमरे में एक ख़ास निसवानी बू रची हुई थी और मेज़ों पर काग़ज़ और किताबें फैली थीं। मैं बैठा ही था कि वो ख़ुद दौड़ती हुई बरामदे में से नमुदार हुई। वो एक सादी सफ़ेद रंग की साड़ी पहने हुए थी और बालों में सुर्ख़ गुलाब लगा रखे थे। उसकी आवाज़ में एक ला-मुतनाही दर्द था और उसके लहजे में नर्मी और मोहब्बत।
मैंने तुम्हारा ड्रामा पढ़ा था वो कहने लगी, और बे-हद पसंद आया। मैंने सरला से कहा मुझे मुसन्निफ़ से मिला दो। वो बोली, क्यों, क्या तुम्हें उससे मोहब्बत हो गई है? और मैंने बिल्कुल उसी तरह कहा। तुम तो मुझे जानते ही हो। हाँ। ये कह कर उसने दिल-रुबाई से पहलू बदला, अपनी ख़ूबसूरत नाज़ुक उँगलियों को बल दिए और अपनी दिल-फ़रेब आँखों से मुझे देखा। उसकी मस्ती मेरी रूह तक उतर गई।
एक मर्तबा तो मैं बस पागल ही हो गई थी। रातों की नींद हराम थी और अगर आँख लग भी जाती थी तो उठते ही वहशत और तन्हाई मुझे अपने फंदों में जकड़ लेते थे। बारबार यही ख़्याल आता कि मैं पागल हो जाऊँगी और अगर पागल न होती तो ज़रूर अपने को कुछ कर लेती। मेरे दिमाग़ की हालत कुछ ऐसी हो गई थी कि ज़िंदगी अजीरन हो गई। कुछ ऐसी ही बात थी जो मेरी जान पर बन गई। मैं इसका तज़किरा नहीं कर सकती और न इसका हाल कभी किसी पर खुलेगा।
लेकिन फिर भी मेरी उससे मुलाक़ात हो गई। वो दिक़ का मरीज़ था और मैं हर रोज़ बिला नाग़ाँ उससे मिलने इस निय्यत से जाती कि मुझे भी दिक़ हो जाए। ये माना कि मैं बहुत ही बुज़दिल हूँ लेकिन ख़ुदकुशी की हिम्मत मुझमें न थी और बीमारी से बा-आसानी काम तमाम हो जाता... अगर मैं उससे मिलने न जाती तो यक़ीनन पागल हो जाती। मैंने उसी ज़माने में एक किताब पढ़ी थी, फ़ेयरी रोमाँस। तुमने तो पढ़ी होगी। नहीं। तो ज़रूर पढ़ना और बताना कि तुम्हें कौन-से हिस्से पसंद आए और जब ही मैं भी बताऊँगी कि मुझे कौन-कौन से पसंद थे। ये किताब मैंने उसे भी पढ़ने को दी थी, लेकिन उसने वापस तक न की।
मैं एक ख़्वाब में रहती थी और अभी तक एक ख़्वाब में रहती हूँ, बड़ा प्यारा और दिलकश ख़्वाब। दरख़्तों की परियाँ होती हैं, हर दरख़्त एक परी है और मेरे ख़्वाब में सब दोस्त ख़ास-ख़ास दरख़्तों से वाबस्ता हो गए थे। जब तुम किताब पढ़ लोगे तो बताऊँगी। मुझे दरख़्तों से मोहब्बत हो गई। घंटों बैठी हुई दरख़्तों को देखा करती थी। मुझे अब तक दरख़्तों से उंस है। मगर अब तो सिर्फ़ ख़्वाब ही ख़्वाब रह गया है। मैं बुज़दिल ज़रूर हूँ, लेकिन बताओ तो मैं करूँ भी तो क्या। मैं मजबूर हूँ।
लेकिन मैंने बहुत कुछ देखा है। मैंने दुनिया में क्या कुछ नहीं देखा मगर हर चीज़ ने इसी बात पर मजबूर किया कि मैं अपने ख़्वाब ही में पनाह लूँ। अगर मेरा ख़्वाब न होता तो न जाने मैं क्या कर गुज़रती। मैं सचमुच मरना चाहती थी... मगर अभी तक मुझे कुछ और नहीं मिला है। अब भी सिर्फ़ अपने ख़्वाब ही के लिए ज़िंदा हूँ... न जाने मैं तुमसे ये बातें क्यों कर रही हूँ। लेकिन तुम बड़े फ़हीम हो और मेरी बात समझ जाओगे। तुम हसीन हो और मेरे ख़्वाब में एक और दोस्त का इज़ाफ़ा हो गया...
बड़ी देर तक वो इसी तरह बातें करती रही। जब मैं बाहर आया तो ठंडी-ठंडी हवा चल रही थी। इलायची के दरख़्त मस्ती से अपने सीने पीट रहे थे और उनकी लाजवाब ख़ुशबू हवा में बसी हुई थी। रात का जादू दुनिया पर फैल चुका था और तारे जग-मग जग-मग कर रहे थे। ख़्याल में खोया हुआ, अपने ख़्वाब में मुक़य्यद, मैं घर की तरफ़ चला। दो सिपाही एक क़ैदी के हाथ में हथकड़ियाँ डाले लिए जा रहे थे और सात मज़दूर क़तार बाँधे हुए, सरों पर गैस के हंडे रखे गाते जा रहे थे,
कुरबान तुम्हारे अल्लाह पार लगा दो नय्या जान...
उनकी आवाज़ एक टीस की तरह मेरे कानों में बज रही थी। जब मैं सड़क पर मुड़ा तो मेरा मकान रात की तारीकी में छुपा खड़ा था और चंद ही लम्हों में उसके अंदर दुनिया की मुसीबतों से महफ़ूज़ पर मुक़य्यद हो गया।
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.