Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

टेढ़ी लकीर

सआदत हसन मंटो

टेढ़ी लकीर

सआदत हसन मंटो

MORE BYसआदत हसन मंटो

    स्टोरीलाइन

    "एक आज़ादी पसंद, अज़ियत पसंद, साफ़-गो और डगर से हट कर कुछ अनोखा करने की धुन रखने वाले व्यक्ति की कहानी है जो अपनी इन्फ़िरादियत पसंदी के हाथों मजबूर हो कर एक रात अपनी निकाही बीवी को ही ससुराल से भगा ले जाता है।"

    अगर सड़क सीधी हो... बिल्कुल सीधी तो उसपर उसके क़दम मनों भारी हो जाते थे। वो कहा करता था। ये ज़िंदगी के ख़िलाफ़ है, जो पेच दर पेच रास्तों से भरी है। जब हम दोनों बाहर सैर को निकलते तो इस दौरान में वो कभी सीधे रास्ते पर चलता। उसे बाग़ का वो कोना बहुत पसंद था। जहां लहराती हुई रविशें बनी हुई थीं।

    एक बार उसने अपनी टांगों को सीने के साथ जोड़ कर बड़े दिलकश अंदाज़ में मुझसे कहा था, “अब्बास अगर मुझे और कोई काम हो तो बख़ुदा मैं अपनी सारी ज़िंदगी कश्मीर की पहाड़ी सड़कों पर चढ़ने-उतरने में गुज़ार दूँ...क्या पेच हैं... अभी तुम मुझे नज़र रहे हो और एक मोड़ मुड़ने के बाद मेरी नज़रों से ओझल हो जाते हो... कितनी पुर इसरार चीज़ है...सीधे रास्ते पर तुम हर आने वाली चीज़ देख सकते हो, मगर यहां आने वाली चीज़ें तुम्हारी आँखों के सामने बिल्कुल अचानक आजाऐंगी... मौत की तरह अचानक... इसमें कितना मज़ा है!”

    वो एक दुबला पतला नौजवान था। बेहद दुबला। उसको एक नज़र देखने से अक्सर औक़ात मालूम होता कि हस्पताल के किसी बिस्तर से कोई ज़र्द रू बीमार उठ कर चला आया है।

    उसकी उम्र बमुश्किल बाईस बरस के क़रीब होगी। मगर बा'ज़ औक़ात वो उससे बहुत ज़्यादा उम्र का मालूम होता था और अजीब बात है कि कभी-कभी उसको देख कर मैं ये ख़याल करने लगता कि वो बच्चा बन गया है। उसमें एका एकी इस क़दर तबदीली हो जाया करती थी कि मुझे अपनी निगाहों की सेहत पर शुबहा होने लग जाता था।

    आख़िरी मुलाक़ात से दस रोज़ पहले जब वो मुझे बाज़ार में मिला तो मैं उसे देख कर हैरान रह गया। वो हाथ में एक बड़ा सेब लिए उसे दाँतों से काट कर खा रहा था। उसका चेहरा बच्चों की मानिंद एक नाक़ाबिल-ए-बयान ख़ुशी के बाइस तमतमाया हुआ था। उसका चेहरा गवाही दे रहा था कि सेब बहुत लज़ीज़ है।

    सेब के रस से भरे हुए हाथों को बच्चों की मानिंद अपनी पतलून से साफ़ करके उसने मेरा हाथ बड़े जोश से दबाया और कहा, “अब्बास वो दो आने मांगता था, मगर मैंने भी एक ही आने में ख़रीदा।”

    उसके होंट ज़फ़रमंदाना हंसी के बाइस थरथराने लगते, फिर उसने जेब से एक चीज़ निकाली और मेरे हाथ में दे कर कहा, “तुम ने लट्टू तो बहुत देखे होंगे पर ऐसा लट्टू कभी देखने में आया होगा... ऊपर का बटन दबाओ... दबाओ... अरे दबाओ!”

    मैं सख़्त मुतहय्यर हो रहा था लेकिन उसने मेरी तरफ़ देखे बग़ैर लट्टू का बटन दबा दिया जो मेरी हथेली पर से उछल कर सड़क पर लंगड़ाने लगा... इस पर ख़ुशी के मारे मेरे दोस्त ने उछलना शुरू कर दिया।

    “देखो, अब्बास, देखो, इसका नाच।”

    मैंने लट्टू की तरफ़ देखा जो मेरे सर के मानिंद घूम रहा था। हमारे इर्द-गिर्द बहुत से आदमी जमा हो गए थे। शायद वो ये समझ रहे थे कि मेरा दोस्त दवाईयां बेचेगा।

    “लट्टू उठाओ और चलें... लोग हमारा तमाशा देखने के लिए जमा हो रहे हैं!”

    मेरे लहजे में शायद थोड़ी सी तेज़ी थी क्योंकि उसकी सारी ख़ुशी मांद पड़ गई और उसके चेहरे की तमतमाहट ग़ायब हो गई। वो उठा और उसने मेरी तरफ़ कुछ इस अंदाज़ से देखा कि मुझे ऐसा मालूम हुआ जैसे एक नन्हा सा बच्चा रोनी सूरत बना कर कह रहा है, मैंने तो कोई बुरी बात नहीं की फिर मुझे क्यों झिड़का गया है?

    उसने लट्टू वहीं सड़क पर छोड़ दिया और मेरे साथ चल पड़ा, घर तक मैंने और उसने कोई बात की। गली के नुक्कड़ पर पहुंच कर मैंने उसकी तरफ़ देखा... इस क़लील अर्से में उसके चेहरे पर इन्क़िलाब पैदा हो गया था। वो मुझे एक तफ़क्कुर ज़दा बूढ़ा नज़र आया।

    मैंने पूछा, “क्या सोच रहे हो?”

    उसने जवाब दिया, “मैं ये सोच रहा हूँ, अगर ख़ुदा को इंसान की ज़िंदगी बसर करनी पड़ जाये तो क्या हो?”

    वो इसी क़िस्म की बेढंगी बातें सोचा करता था। बा'ज़ लोग ये समझते थे कि वो अपने आपको निराला ज़ाहिर करने के लिए ऐसे ख़यालात का इज़हार करता है मगर ये बात ग़लत थी। दरअसल उसकी तबीयत का रुजहान ही ऐसी चीज़ों की तरफ़ रहता था जो किसी और दिमाग़ में नहीं आती थीं।

    आप यक़ीन नहीं करेंगे मगर उसको अपने जिस्म पर रिस्ता हुआ ज़ख़्म बहुत पसंद था। वो कहा करता था, अगर मेरे जिस्म पर हमेशा के लिए कोई ज़ख़्म बन जाये तो कितना अच्छा हो... मुझे दर्द में बड़ा मज़ा आता है।

    मुझे अच्छी तरह याद है कि स्कूल में एक रोज़ उसने मेरे सामने अपने बाज़ू को उस्तरे के तेज़ ब्लेड से ज़ख़्मी किया। सिर्फ़ इसलिए कि कुछ रोज़ उसमें दर्द होता रहे। टीका उसने कभी इस ख़याल से नहीं लगवाया था कि इससे हैज़े, प्लेग या मलेरिया का ख़ौफ़ नहीं रहता।

    उसकी हमेशा ये ख़्वाहिश होती थी कि दो-तीन रोज़ उसका बदन बुख़ार के बाइस तप्ता रहे। चुनांचे जब कभी वो बुख़ार को दावत दिया करता था तो मुझसे कहा करता था, “अब्बास, मेरे घर में एक मेहमान आने वाला है। इसलिए तीन रोज़ तक मुझे फ़ुर्सत नहीं मिलेगी।”

    एक रोज़ मैंने उससे पूछा कि “तुम आए दिन टीका क्यों लगवाते हो।”

    उस ने जवाब दिया, “अब्बास, मैं तुम्हें बता नहीं सकता कि टीका लगवाने से जो बुख़ार चढ़ता है उसमें कितनी शायरी होती है। जब जोड़-जोड़ में दर्द होता है और आज़ा शिकनी होती है तो बख़ुदा ऐसा मालूम होता है कि तुम किसी निहायत ही ज़िद्दी आदमी को समझाने की कोशिश कर रहे हो और फिर बुख़ार बढ़ जाने से जो ख़्वाब आते हैं। अल्लाह, किस क़दर बेरब्त होते हैं... बिल्कुल हमारी ज़िंदगी की मानिंद! अभी तुम ये देखते हो कि तुम्हारी शादी किसी निहायत हसीन औरत से हो रही है। दूसरे लम्हे यही औरत तुम्हारी आग़ोश में एक क़वी हैकल पहलवान बन जाती है।”

    मैं उसकी इन अजीब-ओ-ग़रीब बातों का आदी हो गया था, लेकिन इसके बावजूद एक रोज़ मुझे उसके दिमाग़ी तवाज़ुन पर शुबहा होने लगा। गुज़श्ता मई में मैंने उससे अपने उस्ताद का तआरुफ़ कराया जिसकी मैं बेहद इज़्ज़त करता था। डाक्टर शाकिर ने उसका हाथ बड़ी गर्मजोशी से दबाया और कहा, “मैं आप से मिल कर बहुत ख़ुश हुआ हूँ।”

    “इसके बरअक्स, मुझे आपसे मिल कर कोई ख़ुशी नहीं हुई।” ये मेरे दोस्त का जवाब था। जिस ने मुझे बेहद शर्मिंदा किया।

    आप क़यास फ़रमाईए की उस वक़्त मेरी क्या हालत हुई होगी। शर्म के मारे मैं अपने उस्ताद के सामने गढ़ा जा रहा था और वो बड़े इत्मिनान से सिगरेट के कश लगा कर हाल में एक तस्वीर की तरफ़ देख रहा था।

    डाक्टर शाकिर ने मेरे दोस्त की इस हरकत को बुरा समझा और तख़लिए में मुझसे बड़े तेज़ लहजे में कहा, “मालूम होता है, तुम्हारे दोस्त का दिमाग़ ठिकाने नहीं।”

    मैंने उसकी तरफ़ से माज़रत तलब की और मुआमला रफ़ा -दफ़ा हो गया, मैं वाक़ई बेहद शर्मिंदा था कि डाक्टर शाकिर को मेरी वजह से ऐसा सख़्त फ़िक़रा सुनना पड़ा।

    शाम को मैं अपने दोस्त के पास गया। इस इरादे के साथ कि उससे अच्छी तरह बाज़पुर्स करूंगा और अपने दिल की भड़ास निकालूंगा। वो मुझे लाइब्रेरी के बाहर मिला।

    मैंने छूटते ही उससे कहा, “तुम ने आज डाक्टर शाकिर की बहुत बेइज़्ज़ती की... मालूम होता है तुम ने मजलिसी आदाब को ख़ैरबाद कह दिया है।”

    वो मुस्कुराया, “अरे छोड़ो उस क़िस्से को... आओ कोई और काम की बात करें।”

    ये सुन कर मैं उस पर बरस पड़ा। ख़ामोशी से मेरी तमाम बातें सुन कर उसने साफ़ साफ़ कह दिया, “अगर मुझसे मिलकर किसी शख़्स को ख़ुशी हासिल होती है तो ज़रूरी नहीं कि उससे मिल कर मुझे भी ख़ुशी हासिल हो...और फिर पहली मुलाक़ात पर सिर्फ़ हाथ मिलाने से मैंने उसके दिल में ख़ुशी पैदा कर दी...मेरी समझ में नहीं आता...तुम्हारे डाक्टर साहब ने उस रोज़ पच्चीस आदमियों से तआरुफ़ किया और हर शख़्स से उन्होंने यही कहा, कि आप से मिल कर मुझे बड़ी मसर्रत हासिल हुई है। क्या ये मुम्किन है कि हर शख़्स एक ही क़िस्म के तास्सुरात पैदा करे... तुम मुझसे फ़ुज़ूल बातें करो... आओ अंदर चलें!”

    मैं एक सहरज़दा आदमी की तरह उसके साथ हो लिया और लाइब्रेरी के अंदर जा कर अपना सब ग़ुस्सा भूल गया। बल्कि ये सोचने लगा कि मेरे दोस्त ने जो कुछ कहा था, सही है, लेकिन फ़ौरन ही मेरे दिल में एक हसद सा पैदा हुआ कि इस शख़्स में इतनी क़ुव्वत क्यों है कि वो अपने ख़यालात का इज़हार बेधड़क कर देता है।

    पिछले दिनों मेरे एक अफ़सर की दादी मर गई थी और मुझे उसके सामने मजबूरन अपने ऊपर ग़म की कैफ़ियत तारी करनी पड़ी थी और उससे अपनी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ दस-पंद्रह मिनट तक अफ़सोस ज़ाहिर करना पड़ा था। उसकी दादी से मुझे कोई दिलचस्पी थी। उसकी मौत की ख़बर ने मेरे दिल पर कोई असर किया था। लेकिन इसके बावजूद मुझे नक़ली जज़्बात तैयार करने पड़े थे।

    इसका साफ़ मतलब ये था कि मेरा करेक्टर अपने दोस्त के मुक़ाबले में बहुत कमज़ोर है, इस ख़्याल ही ने मेरे दिल में हसद की चिंगारी पैदा की थी और मैं अपने हलक़ में एक नाक़ाबिल-ए-बर्दाश्त तल्ख़ी महसूस करने लगा था। लेकिन ये एक वक़्ती और हंगामी जज़्बा था जो हवा के एक तेज़ झोंके के मानिंद आया और गुज़र गया। मैं बाद में इस पर भी नादिम हुआ।

    मुझे उससे बेहद मुहब्बत थी। लेकिन इस मुहब्बत में ग़ैर इरादी तौर पर कभी कभी नफ़रत की झलक भी नज़र आती थी। एक रोज़ मैंने उसकी साफगोई से मुतास्सिर हो कर कहा था, “ये क्या बात है कि बा'ज़ औक़ात मैं तुम से नफ़रत करने लगता हूँ।”

    और उसने मुझे ये जवाब दे कर मुतमइन कर दिया था, “तुम्हारा दिल जो मेरी मुहब्बत से भरा हुआ है एक ही चीज़ को बार बार देख कर कभी कभी तंग जाता है और किसी दूसरी शय की ख़्वाहिश करने लग जाता है... और फिर अगर तुम मुझसे कभी-कभी नफ़रत करो तो मुझ से हमेशा मुहब्बत भी नहीं कर सकते... इंसान इसी क़िस्म की उलझनों का मजमूआ है।”

    मैं और वो अपने वतन से बहुत दूर थे। एक ऐसे बड़े शहर में जहां ज़िंदगी तारीक क़ब्र सी मालूम होती है। मगर उसे कभी उन गलियों की याद सताती थी। जहां उसने अपना बचपन और अपने शबाब का ज़माना-ए-आग़ाज़ गुज़ारा था। ऐसा मालूम होता था कि वो इसी शहर में पैदा हुआ है।

    मेरे चेहरे से हर शख़्स ये मालूम कर सकता है कि मैं ग़रीब-उल-वतन हूँ। मगर मेरा दोस्त इन जज़्बात से यकसर आरी है। वो कहा करता है, वतन की याद बहुत बड़ी कमज़ोरी है, एक जगह से ख़ुद को चिपका देना ऐसा ही है जैसे एक आज़ादी पसंद सांड को खूंटे से बांध दिया जाये।

    इस क़िस्म के ख़यालात के मालिक की जो हर शय को टेढ़ी ऐनक से देखता हो और मुरव्वजा रूसूम के ख़िलाफ़ चलता हो, बाक़ायदा निकाह ख़्वानी हो, यानी पुरानी रूसूम के मुताबिक़। उसका अक़्द अमल में आए तो क्या आप को तअज्जुब होगा?...मुझे यक़ीन है कि ज़रूर होगा।

    एक रोज़ शाम को जब वो मेरे पास आया और बड़े संजीदा अंदाज़ में उसने मुझे अपने निकाह की ख़बर सुनाई तो आप यक़ीन करें मेरी हैरत की कोई इंतिहा रही। उस हैरत का बाइस ये चीज़ थी कि वो शादी कर रहा है नहीं, मुझे तअज्जुब इस बात पर था कि उसने लड़की बग़ैर देखे, पुराने ख़ुतूत के मुताबिक़ निकाह की रस्म में शामिल होना क़बूल कैसे कर लिया। जब कि वो हमेशा उन मौलवियों का मज़हका उड़ाया करता था जो लड़की और लड़के को रिश्ता-ए-इज़दवाज में बांधते हैं?

    वो कहा करता था, “ये मौलवी मुझे बुड्ढे और गठिया के मारे पहलवान मालूम होते हैं, जो अपने अखाड़े में छोटे छोटे लड़कों की कुश्तियां देख कर अपनी हिर्स पूरी करते हैं।”

    और फिर वो शादी या निकाह पर लोगों के जमघटे का भी तो क़ाइल था मगर... उसका निकाह पढ़ा गया। मेरी आँखों के सामने मौलवी ने... उस मौलवी ने जिससे उसको सख़्त चिड़ थी और जिसको वो बूढ़ा तोता कहा करता था, उसका निकाह पढ़ा। छोहारे बांटे गए और मैं सारी कार्रवाई यूं देख रहा था गोया सोते में कोई सपना देख रहा हूँ।

    निकाह हो गया। दूसरे लफ़्ज़ों में अनहोनी बात हो गई और जो तअज्जुब मुझे पहले पैदा हुआ था। बाद में भी बरक़रार रहा। मगर मैंने उसके मुतअल्लिक़ अपने दोस्त से ज़िक्र किया। इस ख़याल से कि शायद उसे नागवार गुज़रे। लेकिन दिल ही दिल में इस बात पर ख़ुश था कि आख़िरकार उसे इस दायरे में लौटना पड़ा जिसमें दूसरे ज़िंदगी बसर कर रहे हैं।

    निकाह करके मेरा दोस्त अपने उसूलों के टेढ़े मिनार से बहुत बुरी तरह फिसला था और उस गढ़े में सर के बल गिरा था जिसको वो बेहद ग़लीज़ कहा करता था। जब मैंने ये सोचा तो मेरे जी में आई कि अपने कज रफ़्तार दोस्त के पास जाऊं और इतना हंसूं इतना हंसूं कि पेट में बल पड़ जाएं। मगर जिस रोज़ मेरे दिल में ये ख़्वाहिश पैदा हुई, उसी रोज़ वो दोपहर को मेरे घर आया।

    निकाह को तीन महीने गुज़र गए थे और इस दौरान में वो हमेशा उदास उदास रहता था। उसका चेहरा चमक रहा था और नाक जो चंद रोज़ पहले भद्दी नियाम के अंदर छुपी हुई तलवार का नक़्शा पेश करती थी। उसपर सब से नुमायां नज़र रही थी।

    वो मेरे कमरे में दाख़िल हुआ और सिगरेट सुलगा कर मेरे पास बैठ गया। उसके होंटों के इख़्तितामी कोने कपकपा रहे थे। ज़ाहिर था कि वो मुझे कोई बड़ी अहम बात सुनाने वाला है। मैं हमातन गोश हो गया।

    उसने सिगरेट के धुएँ से छल्ला बनाया और उसमें अपनी उंगली गाड़ते हुए मुझसे कहा, “अब्बास! मैं कल यहां से जा रहा हूँ।”

    “जा रहे हो?” मेरी हैरत की कोई इंतिहा रही।

    “मैं कल यहां से जा रहा हूँ, शायद हमेशा के लिए। मैं इस ख़बर से तुम्हें मुत्तला करने के लिए आता। मगर मुझे तुमसे कुछ रुपय लेना हैं जो तुमने मुझ से क़र्ज़ ले रखे हैं...क्या तुम्हें याद है?”

    मैंने जवाब दिया, “याद है, पर तुम जा कहाँ रहे हो?...और फिर हमेशा के लिए...?”

    “बात ये है कि मुझे अपनी बीवी से इश्क़ हो गया है। और कल रात मैं उसे भगा कर अपने साथ लिए जा रहा हूँ... वो तैयार हो गई है!”

    ये सुन कर मुझे इस क़दर हैरत हुई कि मैं बेवक़ूफ़ों की मानिंद हँसने लगा और देर तक हँसता रहा। वो अपनी मनकूहा बीवी को जिसे वो जब चाहता उंगली पकड़ कर अपने साथ ला सकता था, अग़वा करके ले जा रहा था...भगा कर ले जा रहा था। जैसे जैसे...मैं क्या कहूं कि उस वक़्त मैंने क्या सोचा... दरअसल मैं कुछ सोचने के क़ाबिल ही रहा था।

    मुझे हँसता देख कर उसने मलामत भरी नज़रों से मेरी तरफ़ देखा, “अब्बास! ये हँसने का मौक़ा नहीं। कल रात वो अपने मकान के साथ वाले बाग़ में मेरा इंतिज़ार करेगी, और मुझे सफ़र के लिए कुछ रुपया फ़राहम करके उसके पास ज़रूर पहुंचना चाहिए। वो क्या कहेगी अगर मैं अपने वादे पर क़ायम रहा... तुम्हें क्या मालूम, मैंने किन किन मुश्किलों के बाद रसाई हासिल करके उसको इस बात पर आमादा किया है!”

    मैंने फिर हंसना चाहा। मगर उसको ग़ायत दर्जा संजीदा मतीन देख कर मेरी हंसी दब गई और मुझे क़तई तौर पर मालूम हो गया कि वो वाक़ई अपनी मनकूहा बीवी को भगा कर ले जा रहा है। कहाँ?...ये मुझे मालूम था।

    मैं ज़्यादा तफ़सील में गया और उसे वो रुपये अदा कर दिए जो मैंने अर्सा हुआ उससे क़र्ज़ लिए थे और ये समझ कर अभी तक दिए थे कि वो लेगा। मगर उसने ख़ामोशी से नोट गिन कर अपनी जेब में डाले और बग़ैर हाथ मिलाए रुख़्सत होने ही वाला था कि मैंने आगे बढ़ कर उससे कहा, “तुम जा रहे हो... लेकिन मुझे भुला देना!”

    मेरी आँखों में आँसू गए। मगर उसकी आँखें बिल्कुल ख़ुश्क थीं।

    “मैं कोशिश करूंगा।” ये कह कर वो चला गया। मैं बहुत देर तक जहां खड़ा था बुत बना रहा।

    जब उधर उसके सुसराल वालों को पता चला कि उन की लड़की रात रात में कहीं ग़ायब हो गई है तो एक हैजान बरपा हो गया। एक हफ़्ते तक उन्होंने उसे इधर-उधर तलाश किया और किसी को इस वाक़िया की ख़बर तक होने दी। मगर बाद में लड़की के भाई को मेरे पास आना पड़ा और मुझे अपना हमराज़ बना कर उसे सारी राम कहानी सुनानी पड़ी।

    वो बेचारे ये ख़याल कर रहे थे कि लड़की किसी और आदमी के साथ भाग गई है और लड़की का भाई मेरे पास इस ग़रज़ से आया था कि उनकी तरफ़ से मैं अपने दोस्त को इस तल्ख़ वाक़े से आगाह करूं। वो बेचारा शर्म के मारे ज़मीन में गढ़ा जा रहा था।

    जब मैंने उसको असल वाक़िया से आगाह किया तो हैरत के बाइस उसकी आँखें खुली की खुली रह गईं। इस बात से तो उसे बहुत ढारस हुई कि उसकी बहन किसी ग़ैर मर्द के साथ नहीं गई बल्कि अपने शौहर के पास है। लेकिन उसकी समझ में नहीं आता था कि मेरे दोस्त ने ये फ़ुज़ूल और नाज़ेबा हरकत क्यों की?

    “बीवी उसी की थी जब चाहता ले जाता। मगर इस हरकत से तो ये मालूम होता है जैसे...जैसे...”

    वो कोई मिसाल पेश कर सका और मैं भी उसे कोई इत्मिनानदेह जवाब दे सका।

    कल सुबह की डाक से मुझे उसका ख़त मिला जिसको मैंने काँपते हुए हाथों से खोला। लिफाफे में एक काग़ज़ था जिस पर एक टेढ़ी लकीर खींची हुई थी.... ख़ाली लिफ़ाफ़ा एक तरफ़ रख कर मैं उस उमूद की तरफ़ देखने लगा.... जो मैंने बोर्ड पर चिपके हुए काग़ज़ पर गिराया था।

    स्रोत :
    • पुस्तक : منٹو کےافسانے

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    Jashn-e-Rekhta | 13-14-15 December 2024 - Jawaharlal Nehru Stadium , Gate No. 1, New Delhi

    Get Tickets
    बोलिए