गुरमुख सिंह की वसीयत
स्टोरीलाइन
सरदार गुरूमुख सिंह को अब्द-उल-हई जज ने एक झूठे मुक़द्दमे से नजात दिलाई थी। उसी एहसान के बदले में गुरूमुख सिंह ईद के दिन जज साहब के यहाँ सेवइयाँ लेकर आता था। एक साल जब दंगों ने पूरे शहर में आतंक फैला रखा था, जज अबदुलहई फ़ालिज की वजह से मृत्यु शैया पर थे और उनकी जवान बेटी और छोटा बेटा हैरान परेशान थे कि इसी ख़ौफ़ व परेशानी के आलम में सरदार गुरूमुख सिंह का बेटा सेवइयाँ लेकर आया और उसने बताया कि उसके पिता जी का देहांत हो गया है और उन्होंने जज साहब के यहाँ सेवइयाँ पहुँचाने की वसीयत की थी। गुरूमुख सिंह का बेटा जब वापस जाने लगा तो बलवाइयों ने रास्ते में उससे पूछा कि अपना काम कर आए, उसने कहा कि हाँ, अब जो तुम्हारी मर्ज़ी हो वो करो।
पहले छुरा भोंकने की इक्का दुक्का वारदात होती थीं, अब दोनों फ़रीक़ों में बाक़ायदा लड़ाई की ख़बरें आने लगी जिनमें चाक़ू-छुरियों के इलावा कृपाणें, तलवारें और बंदूक़ें आम इस्तेमाल की जाती थीं। कभी-कभी देसी साख़्त के बम फटने की इत्तिला भी मिलती थी।
अमृतसर में क़रीब क़रीब हर एक का यही ख़्याल था कि ये फ़िर्क़ावाराना फ़सादात देर तक जारी नहीं रहेंगे। जोश है, जूंही ठंडा हुआ, फ़िज़ा फिर अपनी असली हालत पर आजाएगी। इससे पहले ऐसे कई फ़साद अमृतसर में हो चुके थे जो देर पा नहीं थे। दस से पंद्रह रोज़ तक मार कटाई का हंगामा रहता था, फिर ख़ुद बख़ुद फ़िरो हो जाता था। चुनांचे पुराने तजुर्बे की बिना पर लोगों का यही ख़याल था कि ये आग थोड़ी देर के बाद अपना ज़ोर ख़त्म करके ठंडी हो जाएगी। मगर ऐसा न हुआ, बलवों का ज़ोर दिन ब दिन बढ़ता ही गया।
हिंदुओं के मुहल्ले में जो मुसलमान रहते थे भागने लगे। इसी तरह वो हिंदू जो मुसलमानों के मुहल्ले में थे, अपना घर-बार छोड़ के महफ़ूज़ मुक़ामों का रुख़ करने लगे। मगर ये इंतिज़ाम सब के नज़दीक आरिज़ी था, उस वक़्त तक के लिए जब फ़िज़ा फ़सादात के तकद्दुर से पाक हो जाने वाली थी।
मियां अब्दुलहई रिटायर्ड सब जज को तो सौ फ़ीसदी यक़ीन था कि सूरत-ए-हाल बहुत जल्द दुरुस्त हो जाएगी, यही वजह है कि वो ज़्यादा परेशान नहीं थे, उनका एक लड़का था ग्यारह बरस का। एक लड़की थी सत्रह बरस की। एक पुराना मुलाज़िम था जिसकी उम्र सत्तर के लगभग थी। मुख़्तसर सा ख़ानदान था। जब फ़सादात शुरू हुए तो मियां साहिब ने बतौर हिफ़्ज़-ए-मातक़द्दुम काफ़ी राशन घर में जमा कर लिया था।
इस तरह से वो बिल्कुल मुतमइन थे कि अगर ख़ुदा-ना-ख़ास्ता हालात कुछ ज़्यादा बिगड़ गए और दुकानें वग़ैरा बंद होगईं तो उन्हें खाने-पीने के मुआमले में तरद्दुद नहीं करना पड़ेगा। लेकिन उनकी जवान लड़की सुग़रा बहुत मुतरद्दिद थी। उनका घर तीन मंज़िला था। दूसरी इमारतों के मुक़ाबले में काफ़ी ऊंचा। उसकी ममटी से शहर का तीन चौथाई हिस्सा बख़ूबी नज़र आता था। सुग़रा अब कई दिनों से देख रही थी कि नज़दीक दूर कहीं न कहीं आग लगी होती है। शुरू शुरू में तो फ़ायर ब्रिगेड की टन टन सुनाई देती थी पर अब वो भी बंद होगई थी, इसलिए कि जगह जगह आग भड़कने लगी थी।
रात को अब कुछ और ही समां होता। घुप्प अंधेरे में आग के बड़े-बड़े शोले उठते जैसे देव हैं जो अपने मुँह से आग के फव्वारे से छोड़ रहे हैं। फिर अजीब-अजीब सी आवाज़ें आतीं जो हर हर महादेव और अल्लाह अकबर के नारों के साथ मिल कर बहुत ही वहशतनाक बन जातीं।
सुग़रा बाप से अपने ख़ौफ़-ओ-हरास का ज़िक्र नहीं करती थी। इसलिए कि वो एक बार घर में कह चुके थे कि डरने की कोई वजह नहीं। सब ठीक ठाक हो जाएगा। मियां साहिब की बातें अक्सर दुरुस्त हुआ करती थीं। सुग़रा को इससे एक गो न इत्मिनान था। मगर जब बिजली का सिलसिला मुनक़ते होगया और साथ ही नलों में पानी आना बंद होगया तो उसने मियां साहिब से अपनी तशवीश का इज़हार किया और डरते-डरते राय दी थी कि चंद रोज़ के लिए शरीफ़पुरे उठ जाएं जहां अड़ोस-पड़ोस के सारे मुसलमान आहिस्ता आहिस्ता जा रहे थे।
मियां साहिब ने अपना फ़ैसला न बदला और कहा, “बेकार घबराने की कोई ज़रूरत नहीं। हालात बहुत जल्द ठीक हो जाऐंगे।”
मगर हालात बहुत जल्दी ठीक न हुए और दिन बदिन बिगड़ते गए। वो मुहल्ला जिसमें मियां अब्दुलहई का मकान था मुसलमानों से ख़ाली होगया। और ख़ुदा का करना ऐसा हुआ कि मियां साहिब पर एक रोज़ अचानक फ़ालिज गिरा जिसके बाइस वो साहब-ए-फ़िराश हो गए। उनका लड़का बशारत भी जो पहले अकेला घर में ऊपर-नीचे तरह तरह के खेलों में मसरूफ़ रहता था अब बाप की चारपाई के साथ लग कर बैठ गया और हालात की नज़ाकत समझने लगा।
वो बाज़ार जो उनके मकान के साथ मुल्हिक़ था सुनसनान पड़ा था। डाक्टर ग़ुलाम मुस्तफ़ा की डिस्पेंसरी मुद्दत से बंद पड़ी थी। उससे कुछ दूर हट कर डाक्टर गौर अंदता मल थे। सुग़रा ने शहनशीन से देखा था कि उनकी दुकान में भी ताले पड़े हैं। मियां साहब की हालत बहुत मख़दूश थी। सुग़रा इस क़दर परेशान थी कि उसके होश-ओ-हवास बिल्कुल जवाब दे गए थे। बशारत को अलग ले जा कर उसने कहा, “ख़ुदा के लिए, तुम ही कुछ करो। मैं जानती हूँ कि बाहर निकलना ख़तरे से ख़ाली नहीं, मगर तुम जाओ... किसी को भी बुला लाओ। अब्बा जी की हालत बहुत ख़तरनाक है।”
बशारत गया, मगर फ़ौरन ही वापस आगया। उसका चेहरा हल्दी की तरह ज़र्द था। चौक में उसने एक लाश देखी थी, ख़ून से तरबतर... और पास ही बहुत से आदमी ठाटे बांधे एक दुकान लूट रहे थे।
सुग़रा ने अपने ख़ौफ़ज़दा भाई को सीने के साथ लगाया और सब्र-शुक्र के बैठ गई। मगर उससे अपने बाप की हालत नहीं देखी जाती थी। मियां साहब के जिस्म का दाहिना हिस्सा बिल्कुल सुन होगया था जैसे उसमें जान ही नहीं। गोयाई में भी फ़र्क़ पड़ गया था और वो ज़्यादातर इशारों ही से बातें करते थे जिसका मतलब ये था कि सुग़रा घबराने की कोई बात नहीं। ख़ुदा के फ़ज़ल-ओ-करम से सब ठीक हो जाएगा।
कुछ भी न हुआ। रोज़े ख़त्म होने वाले थे, सिर्फ़ दो रह गए थे। मियां साहब का ख़याल था कि ईद से पहले पहले फ़िज़ा बिल्कुल साफ़ हो जाएगी मगर अब ऐसा मालूम होता था कि शायद ईद ही का रोज़ रोज़-ए-क़ियामत हो, क्योंकि ममटी पर से अब शहर के क़रीब क़रीब हर हिस्से से धुंए के बादल उठते दिखाई देते थे। रात को बम फटने की ऐसी ऐसी हौलनाक आवाज़ें आती थीं कि सुग़रा और बशारत एक लहज़े के लिए भी सो नहीं सकते थे।
सुग़रा को यूं भी बाप की तीमारदारी के लिए जागना पड़ता था, मगर अब ये धमाके, ऐसा मालूम होता था कि उसके दिमाग़ के अंदर हो रहे हैं। कभी वो अपने मफ़लूज बाप की तरफ़ देखती और कभी अपने वहशतज़दा भाई की तरफ़... सत्तर बरस का बुढ्ढा मुलाज़िम अकबर था जिसका वजूद होने न होने के बराबर था। वो सारा दिन और सारी रात पर अपनी कोठड़ी में खाँसता खंकारता और बलग़म निकालता रहता था।
एक रोज़ तंग आकर सुग़रा उस पर बरस पड़ी, “तुम किस मर्ज़ की दवा हो। देखते नहीं हो, मियां साहब की क्या हालत है। असल में तुम परले दर्जे के नमक हराम हो। अब ख़िदमत का मौक़ा आया है तो दमे का बहाना करके यहां पड़े रहते हो... वो भी ख़ादिम थे जो आक़ा के लिए अपनी जान तक क़ुर्बान कर देते थे।”
सुग़रा अपना जी हल्का करके चली गई। बाद में उसको अफ़सोस हुआ कि नाहक़ उस ग़रीब को इतनी लानत-मलामत की। रात का खाना थाल में लगा कर उसकी कोठड़ी में गई तो देखा ख़ाली है। बशारत ने घर में इधर उधर तलाश किया मगर वो न मिला। बाहर के दरवाज़े की कुंडी खुली थी जिसका ये मतलब था कि वो मियां साहब के लिए कुछ करने गया है। सुग़रा ने बहुत दुआएं मांगीं कि ख़ुदा उसे कामयाब करे लेकिन दो दिन गुज़र गए और वो न आया।
शाम का वक़्त था। ऐसी कई शामें सुग़रा और बशारत देख चुके थे। जब ईद की आमद-आमद के हंगामे बरपा होते थे, जब आसमान पर चांद देखने के लिए उनकी नज़रें जमी रहती थीं। दूसरे रोज़ ईद थी। सिर्फ़ चांद को इसका ऐलान करना था। दोनों इस ऐलान के लिए कितने बेताब हुआ करते थे।
आसमान पर चांद वाली जगह पर अगर बादल का कोई हटीला टुकड़ा जम जाता तो कितनी कोफ़्त होती थी उन्हें, मगर अब चारों तरफ़ धुंए के बादल थे। सुग़रा और बशारत दोनों ममटी पर चढ़े। दूर कहीं कहीं कोठों पर लोगों के साये धब्बों की सूरत में दिखाई देते थे, मगर मालूम नहीं ये चांद देख रहे थे या जगह जगह सुलगती और भड़कती हुई आग।
चांद भी कुछ ऐसा ढीट था कि धुंए की चादर में से भी नज़र आगया। सुग़रा ने हाथ उठा कर दुआ मांगी कि ख़ुदा अपना फ़ज़ल करे और उसके बाप को तंदुरुस्ती अता फ़रमाए। बशारत दिल ही दिल में कोफ़्त महसूस कर रहा था कि गड़बड़ के बाइस एक अच्छी भली ईद ग़ारत हो गई।
दिन अभी पूरी तरह ढला नहीं था, यानी शाम की स्याही अभी गहरी नहीं हुई थी। मियां साहब की चारपाई छिड़काव किए हुए सहन में बिछी थी। वो उस पर बेहिस-ओ-हरकत लेटे थे और दूर आसमान पर निगाहें जमाए जाने क्या सोच रहे थे।
ईद का चांद देख कर जब सुग़रा ने पास आकर उन्हें सलाम किया तो उन्हों ने इशारे से जवाब दिया। सुग़रा ने सर झुकाया तो उन्होंने वो बाज़ू जो ठीक था उठाया और उस पर शफ़क़त से हाथ फेरा।
सुग़रा की आँखों से टप टप आँसू गिरने लगे तो मियां साहब की आँखें भी नमनाक हो गईं, मगर उन्होंने तसल्ली देने की ख़ातिर बमुश्किल अपनी नीम मफ़लूज ज़बान से ये अल्फ़ाज़ निकाले,“अल्लाह तबारक-ओ-ताला सब ठीक करदेगा।”
ऐन उसी वक़्त बाहर दरवाज़े पर दस्तक हुई। सुग़रा का कलेजा धक से रह गया। उसने बशारत की तरफ़ देखा जिसका चेहरा काग़ज़ की तरह सफ़ेद होगया था।
दरवाज़े पर दस्तक हुई। मियां साहब सुग़रा से मुख़ातिब हुए, “देखो, कौन है!”
सुग़रा ने सोचा कि शायद बुढ्ढा अकबर हो। इस ख़याल ही से उसकी आँखें तमतमा उठीं। बशारत का बाज़ू पकड़ कर उसने कहा, “जाओ देखो... शायद अकबर आया है।”
ये सुन कर मियां साहब ने नफ़ी में यूं सर हिलाया जैसे वो ये कह रहे हैं, “नहीं... ये अकबर नहीं है।”
सुग़रा ने कहा, “तो और कौन हो सकता है अब्बा जी?”
मियां अब्दुलहई ने अपनी क़ुव्वत-ए-गोयाई पर ज़ोर दे कर कुछ कहने की कोशिश की कि बशारत आगया। वो सख़्त ख़ौफ़ज़दा था। एक सांस ऊपर, एक नीचे, सुग़रा को मियां साहब की चारपाई से एक तरफ़ हटा कर उसने हौले से कहा, “एक सिख है!”
सुग़रा की चीख़ निकल गई, “सिख...? क्या कहता है?”
बशारत ने जवाब दिया, “कहता है दरवाज़ा खोलो।”
सुग़रा ने काँपते हुए बशारत को खींच कर अपने साथ चिमटा लिया और बाप की चारपाई पर बैठ गई और अपने बाप की तरफ़ वीरान नज़रों से देखने लगी।
मियां अब्दुलहई के पतले पतले बेजान होंटों पर एक अजीब सी मुस्कुराहट पैदा हो गई, “जाओ... गुरमुख सिंह है!”
बशारत ने नफ़ी में सर हिलाया, “कोई और है?”
मियां साहब ने फ़ैसलाकुन अंदाज़ में कहा, “जाओ सुग़रा वही है!”
सुग़रा उठी। वो गुरमुख सिंह को जानती थी। पेंशन लेने से कुछ देर पहले उसके बाप ने इस नाम के एक सिख का कोई काम किया था। सुग़रा को अच्छी तरह याद नहीं था। शायद उसको एक झूटे मुक़द्दमे से नजात दिलाई थी। जब से वो हर छोटी ईद से एक दिन पहले रूमाली सिवैयों का एक थैला लेकर आया करता था।
उसके बाप ने कई मर्तबा उससे कहा था, “सरदार जी, आप ये तकलीफ़ न किया करें।” मगर वो हाथ जोड़ कर जवाब दिया करता था, “मियां साहब, वाहगुरु जी की कृपा से आपके पास सब कुछ है। ये तो एक तोहफ़ा ये जो मैं जनाब की ख़िदमत में हर साल लेकर आता हूँ। मुझ पर जो आपने एहसान किया था। उसका बदला तो मेरी सौ पुश्त भी नहीं चुका सकती... ख़ुदा आपको ख़ुश रखे।”
सरदार गुरमुख सिंह को हर साल ईद से एक रोज़ पहले सिवैयों का थैला लाते इतना अर्सा होगया था कि सुग़रा को हैरत हुई कि उसने दस्तक सुन कर ये क्यों ख़याल न किया कि वही होगा, मगर बशारत भी तो उसको सैंकड़ों मर्तबा देख चुका था, फिर उसने क्यों कहा कोई और है... और कौन हो सकता है। ये सोचती सुग़रा डेयोढ़ी तक पहुंची।
दरवाज़ा खोले या अंदर ही से पूछे, उसके मुतअल्लिक़ वो अभी फ़ैसला ही कररही थी कि दरवाज़े पर ज़ोर से दस्तक हुई। सुग़रा का दिल ज़ोर ज़ोर से धड़कने लगा। बमुश्किल तमाम उसने हलक़ से आवाज़ निकाली, “कौन है?”
बशारत पास खड़ा था। उसने दरवाज़े की एक दर्ज़ की तरफ़ इशारा किया और सुग़रा से कहा, “इसमें से देखो?”
सुग़रा ने दर्ज़ में से देखा। गुरमुख सिंह नहीं था। वो तो बहुत बूढ़ा था, लेकिन ये जो बाहर थड़े पर खड़ा था जवान था। सुग़रा अभी दर्ज़ पर आँख जमाए उसका जायज़ा ले रही थी कि उसने फिर दरवाज़ा खटखटाया। सुग़रा ने देखा कि उसके हाथ में काग़ज़ का थैला था वैसा ही जैसा गुरमुख सिंह लाया करता था।
सुग़रा ने दर्ज़ से आँख हटाई और ज़रा बुलंद आवाज़ में दस्तक देने वाले से पूछा, “कौन हैं आप?”
बाहर से आवाज़ आई, “जी... जी मैं... मैं सरदार गुरमुख सिंह का बेटा हूँ... संतोख!”
सुग़रा का ख़ौफ़ बहुत हद तक दूर होगया। बड़ी शाइस्तगी से उसने पूछा, “फ़रमाईए। आप कैसे आए हैं?”
बाहरसे आवाज़ आई, “जी... जज साहब कहाँ हैं।”
सुग़रा ने जवाब दिया, “बीमार हैं।”
सरदार संतोख सिंह ने अफ़सोस आमेज़ लहजे में कहा, “ओह... फिर उसने काग़ज़ का थैला खड़खड़ाया। जी, ये सिवय्यां हैं... सरदार जी का देहांत हो गया है... वो मर गए हैं!”
सुग़रा ने जल्दी से पूछा, “मर गए हैं?”
बाहर से आवाज़ आई, “जी हाँ... एक महीना होगया है... मरने से पहले उन्होंने मुझे ताकीद की थी कि देखो बेटा, मैं जज साहब की ख़िदमत में पूरे दस बरसों से हर छोटी ईद पर सिवय्यां ले जाता रहा हूँ.. ये काम मेरे मरने के बाद अब तुम्हें करना होगा... मैंने उन्हें वचन दिया था जो मैं पूरा कररहा हूँ... ले लीजिए सिवय्यां।”
सुग़रा इस क़दर मुतास्सिर हुई कि उसकी आँखों में आँसू आगए। उसने थोड़ा सा दरवाज़ा खोला। सरदार गुरमुख सिंह के लड़के ने सिवय्यों का थैला आगे बढ़ा दिया जो सुग़रा ने पकड़ लिया और कहा, “ख़ुदा सरदार जी को जन्नत नसीब करे।”
गुरमुख सिंह का लड़का कुछ तवक्कुफ़ के बाद बोला, “जज साहब बीमार हैं?”
सुग़रा ने जवाब दिया, “जी हाँ!”
“क्या बीमारी है?”
“फ़ालिज !”
“ओह... सरदार जी ज़िंदा होते तो उन्हें ये सुन कर बहुत दुख होता... मरते दम तक उऩ्हें जज साहब का एहसान याद था। कहते थे कि वो इंसान नहीं देवता है... अल्लाह मियां उन्हें ज़िंदा रखे... उन्हें मेरा सलाम।”
और ये कह कर वो थड़े से उतर गया... सुग़रा सोचती ही रह गई कि वो उसे ठहराए और कहे कि जज साहब के लिए किसी डाक्टर का बंदोबस्त कर दे।
सरदार गुरमुख सिंह का लड़का संतोख जज साहब के मकान से थड़े से उतर कर चंद गज़ के आगे बढ़ा तो चार ठाटा बांधे हुए आदमी उसके पास आए। दो के पास जलती मशालें थीं और दो के पास मिट्टी के तेल के कनस्तर और कुछ दूसरी आतिशख़ेज़ चीज़ें। एक ने संतोख से पूछा, “क्यों सरदार जी, अपना काम कर आए?”
संतोख ने सर हिला कर जवाब दिया, “हाँ कर आया।”
उस आदमी ने ठाटे के अंदर हंस कर पूछा, “तो करदें मुआमला ठंडा जज साहब का।”
“हाँ... जैसी तुम्हारी मर्ज़ी!” ये कह कर सरदार गुरमुख सिंह का लड़का चल दिया।
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