नफ़रत
स्टोरीलाइन
यह एक ऐसी औरत की कहानी है जिसकी एक मामूली से वाक़िआ ने पूरी ज़िंदगी ही बदल दी। उसे ज़र्द रंग जितना पसंद था उतना ही बुर्क़ा ना-पसंद। उस दिन जब वह अपनी ननद के साथ एक सफ़र पर जा रही थी तो उसने ज़र्द रंग की ही साड़ी पहन रखी थी और बुर्क़े को उतार कर एक तरफ़ रख दिया था। मगर लाहौर स्टेशन पर बैठी हुई जब वे दोनों गाड़ी का इंतेज़ार कर रही थी वहाँ उन्होंने एक मैले-कुचैले आदमी की पसंद-नापसंद सुनी तो उन्होंने ख़ुद को पूरी तरह ही बदल लिया।
अजीब वाक़ियात तो दुनिया में होते ही रहते हैं मगर एक मामूली सा वाक़िया नाज़ली की तबीअत को यक-लख़्त क़तई तौर पर बदल दे, ये मेरे लिए बेहद हैरान-कुन बात है। उसकी ये तब्दीली मेरे लिए मुअम्मा है। चूँकि इस वाक़ये से पहले मुझे यक़ीन था कि उसकी तबीअत को बदलना क़तई ना-मुमकिन है। इ लिए अब मैं ये महसूस कर रही हूँ कि नाज़ली वो नाज़ली ही नहीं रही जो बचपन से अब तक मेरी सहेली थी। जैसे उसकी इस तब्दीली में इन्सान की रूह की हक़ीक़त का भेद छुपा है। तअज्जुब की बात तो ये है कि वो एक बहुत ही मामूली वाक़िया था यानी किसी भद्दे से बदनुमा आदमी से ख़ुदा वास्ते का बुग़्ज़ महसूस करना... कितनी आम सी बात है।
सहेली के अलावा वो मेरी भाबी थी। क्यूँकि उसकी शादी भाई मुज़फ़्फ़र से हो चुकी थी। इस बात को तक़रीबन दो साल गुज़र चुके थे। मुज़फ़्फ़र मेरे मामूँ ज़ाद भाई हैं और जालंधर में वकालत करते हैं।
ये वाक़या लाहौर स्टेशन पर हुआ। उस रोज़ मैं और नाज़ली दोनों लायलपुर से जालंधर को आ रही थीं।
एक छोटे से दर्मियाने दर्जे के डिब्बे में हम दोनों अकेली बैठी थीं। नाज़ली पर्दे की सख़्त मुख़ालिफ़ थी। बुर्क़े का बोझ उठाना उससे दूभर हो जाता था। इसलिए गाड़ी में दाख़िल होते ही उसने बुर्क़ा उतार कर लपेटा और सीट पर रख दिया। उस रोज़ उसने ज़र्द रंग की रेशमी साड़ी पहनी हुई थी जिसमें तिलाई हाशिया था। ज़र्द रंग उसे बहुत पसंद था और उसके गोरे गोरे जिस्म में गुलाबी झलक पैदा कर देता था।
उसकी ये बेपर्दगी और बेबाकी मुझे पसंद न थी। मगर इस बात पर उसे कुछ कहना बेकार था। आते-जाते लोग उसकी तरफ़ घूर घूर कर देखते मगर वो अपने ख़यालात में यूँ मगन थी जैसे जंगल में तन-ए-तन्हा बैठी हो। दो तीन घंटे तो यूँ ही गुज़र गए मगर लाहौर के क़रीब जाने कौन सा स्टेशन था, जहां से दो नौजवान लड़के सवार हुए। मुझे तो किसी कॉलेज के तालिब-इल्म नज़र आते थे। उन लड़कों ने हर स्टेशन पर गाड़ी से उतर कर हमें ताड़ना शुरू कर दिया। हमारे डिब्बे के सामने आ खड़े होते और मुतबस्सुम नज़रों से हमारी तरफ़ देखते। फिर आपस में बातें करते और आँखों ही आँखों में मुस्कुराते। नाज़ली वैसे ही बेबाकी से खिड़की में बैठी रही बल्कि मेरा ख़याल है कि उसे इतना भी मालूम न हुआ कि वो नौजवान उसे देख रहे हैं। उस वक़्त वो एक किताब पढ़ रही थी। मेरे लिए उसकी ये बेनियाज़ी बेहद परेशान-कुन थी। मैं कुछ शर्म और कुछ ग़ुस्सा महसूस कर रही थी। आख़िर मुझसे रहा न गया,
मैंने कहा, “नाज़ली बुर्क़ा पहन लो। देखो लड़के कब से तुम्हें ताड़ रहे हैं।”
“कहाँ हैं?” उसने चौंक कर कहा, फिर मुस्कुरा दी। “देखने दो। हमारा क्या लेते हैं। आप ही उकता जाऐंगे... बेचारे।”
“मगर बुर्क़ा ओढ़ लेने में क्या हर्ज है?”
“अगर बुर्क़ा ओढ़ने से लोग यूँ घूरना छोड़ दें तो शायद औरतें बुर्क़ा ओढ़ना तर्क कर दें। बुर्क़ा पहन लूँ तो यही होगा कि सामने खड़े होने की बजाए इधर उधर मंडलाते फिरेंगे।”
“तुम भी हद करती हो।”
“मैं कहती हूँ नजमी ईमान से कहना। क्या तुम अपने आपको छिपाने के लिए बुर्क़ा पहनती हो?” वो मुझे नजमी कहा करती थी। चूँकि उसके ख़याल के मुताबिक़ नज्मुन्निसा गुनगुना नाम था। वो बे-इख़्तियार हंस दी। “अच्छा मान लिया कि तुम वाक़ई अपने आपको छुपाने के लिए बुर्क़ा पहनती हो। चलो मान लिया बुर्क़ा पहन कर तुम लोगों पर ये ज़ाहिर करती हो कि इस बुर्क़े में छुपाने के क़ाबिल चीज़ है। यानी एक ख़ूबसूरत लड़की है। यक़ीन न हो तो ख़ुद देख लीजिए और ये बुर्क़ा तो देखो।” उसने मेरे बुर्क़ा को हाथ में मसलते हुए कहा, “ये रेशमी बोसकी फीते। झालर ये तो बुर्क़ा बज़ात-ए-ख़ुद ख़ूबसूरत है और बुर्क़ा वाली क्या होगी। अंदाज़ा कर लीजिए। वाह क्या ख़ूब पर्दा है।”
“तुम ख़्वा-मख़्वाह बिगड़ती हो।” मैं ने तुनक कर कहा, “बिगड़ना तो ख़ैर होगा... मुझे तुम्हारी तरह बनना नहीं आता।” “पगली कभी औरत भी पर्दे में रह सकती है। देखती नहीं हो। औरतों ने पर्दे को भी ज़ेबाइश बना दिया है। आख़िर जो बात है उसे मानने में क्या हर्ज है?” ये कह कर वो हंस पड़ी...
“तुम्हें तो हर वक़्त मज़ाक़ सूझता है।” मैं ने बिगड़ कर कहा।
“लो और सुनो। जो हम कहें, वो तो हुआ मज़ाक़ और जो आप कहें, वो हक़ीक़त है।”
“अच्छा बाबा माफ़ करो। भूल हुई। अब बुर्क़ा तो उठा लो क्या इन दरख़्तों से भी पर्दा करोगी?”
“तुम्हारे ख़यालात बहुत अजीब हैं।” मैंने बुर्क़ा उतारते हुए कहा। स्टेशन बहुत दूर रह गया था और गाड़ी एक वसीअ मैदान से गुज़र रही थी।
“अजीब... हाँ अजीब हैं। इसलिए कि वो मेरे अपने हैं। अगर मैं भी तुम्हारी तरह सुनी सुनाई बातें शुरू कर दूँ तो तुम मुझ से कभी नाराज़ न हो।”
“सुनी सुनाई...?”
“हाँ सुनी सुनाई, इसलिए कि ये बातें ज़हीर साहब को बहुत पसंद हैं और तुम चाहती हो कि वो तुम्हें चाहें। तुम्हारे मियाँ जो हुए। ये सुनहरी चूड़ियाँ ही देखो। याद है तुम सुनहरी चूड़ियों को कैसी नफ़रत की नज़र से देखा करती थीं? मगर ये उन्हें पसंद हैं न। इसलिए ये बोझ उठाए फिरती हो। उनकी मोहब्बत की मोहताज जो ठहरीं। ईमान से कहना। क्या ये ग़लत है? मुझे तो ऐसी मोहताजी गवारा नहीं। तुम ही ने तो मर्दों का मिज़ाज बिगाड़ रखा है। वर्ना वो बेचारे।”
“तुम्हें भी तो ज़र्द रंग प्यारा है ना?”
“हाँ है और रहेगा। मेरी अपनी पसंद है। मैं अपने मियाँ के हाथ की कठपुतली नहीं बनना चाहती कि जैसा जी चाहें, नचा लें। मैंने उनसे ब्याह किया है। उनके पास अपनी रूह गिरवी नहीं रखी और तुम... तुम्हारी तो मर्ज़ी है ही नहीं। तुम तो हवा के रुख में उड़ना चाहती हो।”
दफ़्अतन गाड़ी ने झटका खाया और वो लुढ़क कर मुझ पर आ गिरी।
“ये झूट बोलने की सज़ा है।” मैंने उसे छेड़ने को कहा और हम दोनों हंस पड़े। गाड़ी स्टेशन पर रुक गई। दोनों जवान गाड़ी से उतर कर हमारे सामने आ खड़े हुए और नाज़ली को तोड़ने लगे। उसने दो एक मर्तबा उनकी तरफ़ देखा। उसके होंटों पर नफ़रत भरा तमस्ख़ुर खेल रहा था। “बेचारे।” उसने दबी आवाज़ में कहा। “मुझे तो उन पर तरस आता है।” और वो वैसे ही बैठी रही। न जाने उसकी बेबाकी और बेपर्वाई देख कर या किसी और वजह से और वो भी दिलेर हो गए। पहले तो आपस में बातें करते रहे। फिर उनमें से जो ज़्यादा दिलेर मालूम होता था, हमारे डिब्बे की तरफ़ बढ़ा। मगर नाज़ली के अंदाज़ को देख कर घबरा गया। कुछ देर के लिए वो रुक गया। हाथ से अपनी निकटाई सँवारी। बालों पर हाथ फेरा। रूमाल निकाला और फिर खिड़की की तरफ़ बढ़ा। खिड़की के क़रीब पहुँच कर इधर उधर देखा और आख़िर हिम्मत कर के नाज़ली के क़रीब आ खड़ा हुआ और घबराई हुई आवाज़ में कहने लगा, “किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो...”
मैं तो डर के मारे पसीना पसीना हो गई। मगर नाज़ली वैसे ही बैठी रही और निहायत संजीदगी से कहने लगी, “हाँ सिर्फ़ इतनी मेहरबानी फ़रमाइए कि यूँ सामने खड़े हो कर हमें घूरिए नहीं। शुक्रिया।” ये कह कर उसने अपना मुँह फेर लिया। उस वक़्त नाज़ली की संजीदगी को देख कर मैं हैरान हो रही थी। उसमें कितनी हिम्मत थी। ख़ैर नौजवान का रंग ज़र्द पड़ गया और वो खिसयाना हो कर वापस चला गया। उसके बाद वो दोनों हमें कहीं नज़र न आए।
“उन दिनों नाज़ली की तबीअत बेहद शोख़ थी मगर शोख़ी के बावजूद कभी कभी ऐसी संजीदगी से कोई बात कह देती कि सुनने वाला परेशान हो जाता। ऐसे वक़्त मुझे यूँ महसूस होता जैसे इस निस्वानी जिस्म की तह में कोई मर्दाना रूह जी रही हो। मगर उसके बावजूद मर्दों से दिलचस्पी न थी। यक़ीनी वो मर्दों की तरफ़ आँखें चमका चमका कर देखने वाली औरत न थी। उसके अलावा उसे जज़्बा-ए-मोहब्बत के ख़िलाफ़ बुग़्ज़ था। मुज़फ़्फ़र भाई दो साल के अर्से में भी उसे समझ न सके थे। शायद इसीलिए वो उसे समझने से क़ासिर थे। नाज़ली उन्हें इस क़दर प्यारी थी। हालाँकि वो उनके रूबरू ऐसी बातें कह देने से कभी न झिझकती थी जो किसी आम ख़ाविंद को सुनना गवारा नहीं होतीं मगर वो नाज़ली की बातें सुन कर हंसी में टाल देते थे।
लाहौर पहुँचने तक मैंने मिन्नत समाजत करके उसे बुर्क़ा पहनने के लिए मना लिया। रात को आठ बजे के क़रीब हम लाहौर पहुँच गए। वहाँ हमें डेढ़ घंटा जालंधर जाने वाली गाड़ी का इंतिज़ार करना था। हम उस प्लेटफार्म पर जा बैठे जहाँ से हमारी गाड़ी को चलना था। प्लेटफार्म ख़ाली पड़ा था। यहाँ वहाँ कहीं कहीं कोई मुसाफ़िर बैठा ऊँघ रहा था या कभी-कभार कोई वर्दी पोश बाबू या क़ुली तेज़ी से इधर से उधर गुज़र जाता। मुक़ाबिल के प्लेटफार्म पर एक मुसाफ़िर गाड़ी खड़ी थी और लोग इधर उधर चल फिर रहे थे। हम दोनों चुप चाप बैठी रहीं। “लाहौल-वला-क़ुव्वत...”
मैं ने नाज़ली को कहते सुना। देखा तो उसका चेहरा ज़र्द हो रहा था। “क्या है?” मैं ने पूछा।
उसने उंगली से साथ वाले बेंच की तरफ़ इशारा किया।
बेंच पर बिजली बत्ती के नीचे दो जवान बैठे खाना खा रहे थे।
“तौबा...! जांगली मालूम होते हैं।” नाज़ली ने कहा।
सामने बैठे हुए आदमी की हैयत वाक़ई अजीब थी जैसे गोश्त का बड़ा सा लोथड़ा हो। सूजा हुआ चेहरा, सांवला रंग, तंग पेशानी पर दो भद्दी और घनी भंवें फैली हुई थीं। जिनके नीचे दो अन्दर धंसी हुई छोटी छोटी साँप की सी आँखें चमक रही थीं। छाती और कंधे बेतहाशा चौड़े और जिन पर स्याह लंबा कोट यूँ फंसा हुआ था जैसे फटा जा रहा हो। उसे देख कर ऐसा महसूस होता था जैसे तंग जिस्म में बहुत सी जिस्मानी क़ुव्वत ठूंस रखी हो।
चेहरे पर बेज़ारी छाई हुई थी। उसकी हरकात भद्दी और मकरूह थीं। “देखो तो...” नाज़ली बोली। “उसके आज़ा किस क़दर भद्दे हैं? उंगलियां तो देखो।” उसने झुरझुरी ली और अपना मुंह फेर लिया।
“तुम क्यूँ ख़्वाह-मख़ाह परेशान हो रही हो। जांगली है तो पड़ा हो।” मैंने कहा। कुछ देर तक वो ख़ामोश बैठी रही। फिर उसकी निगाहें भटक कर उसी शख़्स पर जा पड़ीं जैसे वो उसे देखने पर मजबूर हो। “उसे खाते हुए देखना... तौबा है।” नाज़ली ने यूँ कहा जैसे अपने आपसे कह रही हो।
“सिर्फ़ एक घंटा बाक़ी है।” मैं ने घड़ी की तरफ़ देखते हुए कहा ताकि उसका ध्यान किसी और तरफ़ लग जाए मगर उसने मेरी बात न सुनी और वैसे ही गुम-सुम बैठी रही। उसका चेहरा हल्दी की तरह ज़र्द हो रहा था। होंट नफ़रत से भिंचे हुए थे।
मैंने उसे कभी ऐसी हालत में न देखा था। इसके बरअक्स कई बार जब मुज़फ़्फ़र भाई किसी दहशतनाक क़त्ल की तफ़्सीलात सुनाते और हम सब डर और शौक़ के मारे चुप-चाप बैठे सुन रहे होते उस वक़्त नाज़ली बेज़ारी से उठ बैठती और जमाई ले कर कमरे से बाहर चली जाती।
मगर उस रोज़ उसका एक अजनबी की उंगलियों और खाने के अंदाज़ को यूँ ग़ौर से देखना मेरे लिए बाइस-ए-तअज्जुब था और सच्ची बात तो ये है कि उसकी शक्ल देख कर मुझे ख़ुद डर महसूस हो रहा था। “देखा न?” मैंने बात बदलने की ग़रज़ से कहा। “तुम जो भाई मुज़फ़्फ़र की उंगलियों पर हँसा करती हो। याद है, तुम कहा करती थीं, ये उंगलियां तो सूई का काम करने के लिए बनी हुई मालूम होती हैं। याद है ना?”
“तौबा है।” नाज़ली ने नहीफ़ आवाज़ में कहा। “उसका बस चले तो सबको कच्चा ही खा जाए। कोई मर्दुम-ख़ोर मालूम होता है।” वो अपनी ही धुन में बैठी कुछ न कुछ कह रही थी जैसे उसने मेरी बात सुनी ही न हो। उसके बाद मैंने उससे कुछ कहने का ख़याल छोड़ दिया। देर तक मैं इधर उधर देखती रही, हत्ता कि मैंने अपने बाज़ू पर उसके हाथ का दबाव महसूस किया।
“नजमी चलो कहीं दूर जा बैठें। ज़रूर ये कोई मुजरिम है।”
“पगली।” मैंने मुस्कुराने की कोशिश की मगर जांगली को देखते ही मुस्कुराहट ख़ुश्क हो गई। जांगली अपने ध्यान में बैठा हाथ धो रहा था। वाक़ई उसकी उंगलियां सलाख़ों की तरह मोटी और बे-तुकी थीं। मेरे दिल पर नामालूम ख़ौफ़ छा रहा था। प्लेटफार्म मेरी आँखों में धुँदला दिखाई देने लगा। फिर दोनों ने आपस में बातें करना शुरू कर दी।
“शादी?” जांगली ने कहा और उसकी आवाज़ यूँ गूँजी जैसे कोई घड़े में मुँह डाल कर बोल रहा हो। नाज़ली ने झुरझुरी ली और सरक कर मेरे क़रीब हो बैठी। मगर उसकी निगाहें उस शख़्स पर यूँ गड़ी हुई थीं जैसे जुंबिश की ताक़त सल्ब हो चुकी हो।
“कुछ हालात ही ऐसे हो गए कि शादी के मुतअल्लिक़ सोचना मेरे लिए निहायत ना-ख़ुशगवार हो चुका है। मेरी शादी होते होते रुक गई। इसी बात ने मुझे उलझन में डाल दिया।”
“आख़िर क्या बात थी? हम भी सुनें।” उसके साथी ने कहा।
“कुछ भी नहीं। बस मेरी अपनी बेहंगम तबीअत।” वो हंस पड़ा। उसकी हंसी बहुत भोंडी थी।
नाज़ली सरक कर मेरे क़रीब हो गई।
“मैं अपनी तबीअत से मजबूर हूँ।” जांगली ने कहा। “तमाम झगड़ा मेरी तबीअत की वजह से ही था। मेरी मंगेतर मेरे दोस्त ज़हीरुद्दीन साहब की लड़की थी। ज़हीरुद्दीन हमारी फ़र्म के मैनेजर थे और उनका तमाम काम मैं ही किया करता था। चूँकि उनके मुझ पर बहुत से एहसानात थे, मैंने उनकी बात को रद्द करना मुनासिब न समझा, हालाँ कि मेरे हालात कुछ इस क़दर बिगड़े हुए थे कि शादी का बखेड़ा मेरे लिए चंदाँ मुफ़ीद न था। ख़ैर मैंने सुना था कि लड़की बहुत ख़ूबसूरत है और सच पूछो तो ख़ूबसूरत लड़की से शादी करना मैं क़तई नापसंद करता हूँ।”
“अजीब इन्सान हो।” उसके साथी ने कहा।
“अजीब ही सही मगर ये एक हक़ीक़त है। मेरा ये मतलब नहीं कि मैं किसी बदसूरत लड़की से शादी करना चाहता था। नहीं ये बात नहीं। मगर किसी हसीन लड़की को ब्याह लाना मुझे पसंद नहीं।”
“ओह बड़ा घमंड है उन्हें।” नाज़ली ने मेरे कान में कहा।
“ख़ैर।” जांगली ने बात जारी रखी। “एक दिन की बात है कि मुझे बे-मौक़ा ज़हीरुद्दीन के मकान पर जाना पड़ा। याद नहीं कि क्या बात थी। मुझे सिर्फ़ इतना ही याद है कि कोई ज़रूरी काम था। चूँकि आम तौर पर मैं उनके मकान में जाना पसंद नहीं करता था। बहरहाल एक छोटी सी लड़की बाहर आई और कहने लगी, आप अंदर चल कर बैठिए। वो अभी आते हैं। ख़ैर मैं मुलाक़ाती कमरे में बैठा हुआ था कि दफ़्अतन दरवाज़ा आप ही खुल गया और कुछ देर बाद एक नौजवान लड़की खुले मुँह दरवाज़े में आ खड़ी हुई। पहले तो वो यूँ खड़ी रही गोया उसने मुझे देखा ही न हो। फिर मेरी तरफ़ देख कर मुस्कुराने लगी जैसे लड़कियाँ मर्दों की तरफ़ देख कर मुस्कुराया करती हैं। फिर मेज़ पर से एक किताब उठा कर चली गई। मैं उसकी बेबाकी और बनाव सिंघार को देख कर ग़ुस्से से खौल रहा था। बाद में मालूम हुआ कि उस वक़्त वो घर में अकेली थी। मुझे अब भी वो मंज़र याद आता है तो जी चाहता है कि किसी को...” उसने घूँसा लहराते हुए कहा। फिर वो हंस पड़ा।
नाज़ली ने उसकी सुर्ख़ आँखें देख कर चीख़ सी मारी। मगर डर या नक़ाहत से उसकी आवाज़ उन दोनों तक न पहुँच सकी। वर्ना ख़ुदा जाने वो क्या समझते।
जांगली ने बात फिर शुरू की। बोला, “वो यूँ बन-संवर कर वहाँ खड़ी थी गोया अपनी क़ीमत चुकाने आई हो। एक ज़र्द रंग-का रस्से की तरह बल खाया हुआ दुपट्टा उसके शानों पर लटक रहा था। सर नंगा। उफ़...! तुम्हें क्या बताऊँ। उसके बाद मैं ने ज़हीरुद्दीन साहब से साफ़ साफ़ कह दिया कि मैं आपकी बेटी को ख़ुश नहीं रख सकता। यानी मैंने रिश्ते से इनकार कर दिया। इस बात पर वो बहुत बिगड़े और मुझे कोई और नौकरी तलाश करनी पड़ी। महीनों बग़ैर नौकरी के रहा। कहाँ कहाँ भटकता फिरा। राजपूताने में नौकरी आसानी से नहीं मिल सकती।”
“मगर इसमें इनकार की क्या बात थी?” उसके साथी ने कहा, “आख़िर मंगेतर थी।”
“बस यही कि मुझे बेपर्दगी से बेहद नफ़रत है और आज कल का बनाव सिंघार मुझे पसंद नहीं। हाँ एक बात और है। कोई लड़की जो ज़र्द दुपट्टा पहन सकती है। मैं उसे अपनी बीवी नहीं बना सकता। मुझे ज़र्द रंग से चिड़ है। इसके अलावा मुझे ये भी मालूम हुआ कि वो घर के काम काज को आर समझती थी। ये आज का फ़ैशन है। तुम जानते हो कि आज कल लड़कियाँ समझती हैं कि बन-संवर कर मर्दों को लुभाने के सिवा उनका और कोई काम ही नहीं और बर्तन मांझने से हाथ मैले हो जाते हैं। जैसे हाथ दिखलावे की चीज़ हों। यहीं देख लो, कितनी बेपर्दगी है। औरतें यूँ बुर्के उठाए फिरती हैं जैसे जंगल में शिकारी बंदूक़ें उठाए फिरते हैं।”
उसका साथी हंस पड़ा और फिर हंसते हंसते कहने लगा, “यार! तुम तो राजपूताने में रह कर बिल्कुल बदल गए हो।”
“उंह हूँ... ये बात नहीं।” जांगली ने कहा, “पर्दे का तो मैं बचपन से ही बहुत क़ाइल था। मुझे याद है कि एक दफ़ा घर में दो औरतें मेहमान आईं। एक तो ख़ैर अभी बच्ची थी। दूसरी यही कोई पच्चीस साल की होगी। उन दिनों मैं ख़ुद आठ नौ साल का था। ख़ैर वो मुझसे पर्दा नहीं करती थीं।” वो रुक गया। फिर आप ही बोला, “मुझे इस बात पर बेहद ग़ुस्सा आता था। इसलिए मैं अक्सर बाहर मर्दाने में ही बैठा रहता, यानी मैंने उनके रूबरू जाना बंद कर दिया। एक दिन अब्बा ने मुझे बुलाया और कहा कि ये पैग़ाम अंदर ले जाओ। ख़ुदा जाने क्या पैग़ाम था। मुझे सिर्फ़ इतना याद है कि उन्होंने मुझे कोई ज़ेवर दिया था कि उन्हें दिखा दूँ। शायद उन मेहमानों ने वो ज़ेवर देखने के लिए मंगवाया हो। मैं ने ड्योढ़ी से झांक कर देखा तो वो औरत सेहन में अम्मां के पास बैठी थी। अम्माँ कहने लगी। हमीद अंदर चले आओ। ए हे तुम अंदर क्यूँ नहीं आते? तुमसे कोई पर्दा है? मैं ये सुन कर अब्बा के पास वापस चला आया। मैंने कहा, अब्बा जी मैं नहीं जाऊँगा। वो मुझसे पर्दा नहीं करती। ये बात मैंने इस क़दर जोश और ग़ुस्से में कही कि अब्बा बेइख़्तियार हंस पड़े। उसके बाद देर तक घर वाले मेरी इस बात पर मुझे छेड़ते रहे। अलबत्ता ज़र्द रंग से मुझे उन दिनों नफ़रत न थी। तबीअत भी अजीब चीज़ है।” उसने मुस्कुराते हुए कहा।
“तुम्हारी तबीअत तो ऐसी है जैसे मदारी का थैला।” उसके साथी ने हंसते हुए कहा और वो दोनों देर तक हंसते रहे। फिर वो उठ बैठे।
उस वक़्त पहली मर्तबा जांगली की निगाह नाज़ली पर पड़ी जो उसकी तरफ़ देख रही थी। उसके माथे पर शिकन पड़ गई और आँखें नफ़रत या ख़ुदा जाने किस जज़्बे से सुर्ख़ हो गईं। नाज़ली का दिल धड़क रहा था। उसकी निगाहें जांगली पर जमी हुई थीं जैसे वो उन्हें वहां से हटाना चाहती हो मगर हटा न सकती हो और तमाम बदन काँप रहा था। उस वक़्त मुझे महसूस हुआ जैसे नाज़ली में हिलने जुलने की सकत न रही हो।
यक-लख़्त जांगली मुड़ा और वो दोनों वहाँ से चले गए। उस वक़्त नाज़ली अजीब बेबसी के साथ मुझसे लगी बैठी थी। गोया उसमें बिल्कुल जान न हो।
कुछ देर के बाद जब उसे होश आया। ऐन उसके क़रीब से एक क़ुली गुज़रा। वो ठिटक गई और उसने अपना बुर्क़ा मुँह पर डाल लिया।
“अगर मुझे एक ख़ून माफ़ कर दिया जाए तो मैं उसे यहीं गोलीमार दूँ।” नाज़ली ने कहा।
“किसे?” मैंने पूछा।
“कितना बनता है।”
“ओह! तुम्हारा मतलब उस शख़्स से है मगर तुम ख़्वाह-मख़्वाह उससे चिड़ रही हो। अपनी अपनी तबीअत है। अपने अपने ख़यालात हैं। तुम्हें अपने ख़यालात प्यारे हैं, उसे अपने।”
“बड़ी तरफ़दारी कर रही हो।” वो बोली।
“इसमें तरफ़दारी की क्या बात है।” मैंने कहा, “तुम्हें तो आप सुनी सुनाई बातों से नफ़रत है। उसके ख़यालात भी मांगे के नहीं। बाक़ी रही शक्ल, वो तो अल्लाह मियाँ की देन है... ईमान की बात पूछो तो मुझे तो तुम दोनों में कोई फ़र्क़ दिखाई नहीं देता।”
“जी हाँ! तुम्हारा बस चले तो अभी मेरी बांह पकड़ कर उसके हाथ में दे दो।”
“लाहौल वला...” मैंने कहा।
“लाहौल वला... की इसमें क्या बात है...? मैं कहती हूँ उसकी बीवी उसके साथ कैसे रह सकेगी?”
गाड़ी प्लेटफार्म पर आ खड़ी हुई। हम दोनों अंदर बैठे। हमने इण्टर का एक छोटा सा ज़नाना डिब्बा तलाश किया और उस में जा बैठे। नाज़ली ने बुर्क़ा उतार कर लपेट कर बेंच पर रख दिया और ख़ुद कोने में बैठ गई। हालाँकि डिब्बे में बहुत गर्मी महसूस हो रही थी।
फिर भी उसने खिड़की का तख़्ता चढ़ा दिया। मैं दूसरे प्लेटफार्म पर हुजूम देखने में मह्व हो गई। मेरा ख़याल है हम बहुत देर तक यूँही ख़ामोशी से बैठे रहे।
“तौबा है।”
नाज़ली की आवाज़ सुन कर मैं चौंक पड़ी। देखा तो मेरे पास ही वो जांगली हाथ में सूटकेस लिए खड़ा था। मेरे मुँह से चीख़ निकल गई। उसी लम्हे में नाज़ली ने आँखें ऊपर उठाईं। सामने उसे देख कर न जाने क्या हुआ। बस मुझे इतना मालूम है कि उसने लिपट कर दुपट्टा मेरे सर से खींच लिया और एक आन में ख़ुद को उस में लपेट कर गठड़ी सी बन कर पड़ गई।
“लाहौल वला क़ुव्वत...” जांगली की भद्दी आवाज़ सुनाई दी और वो उल्टे पाँव लौट गया। मेरा ख़याल है कि वो ग़लती से हमारे डिब्बे में चला आया था। जब उसने हमें देखा तो अपनी ग़लती को जान कर वापस चला गया। उसके जाने के बाद भी बहुत देर तक नाज़ली उसी तरह मुंह सर लपेटे पड़ी रही। मेरे दिल में अजीब अजीब हौल उठने लगे। मेरा ख़याल था कि ये सफ़र कभी ख़त्म न होगा। ख़ुदा जाने क्या होने वाला है। ज़रूर कुछ होने वाला है। ख़ैर जूँ तूँ हम ख़ैरियत से जालंधर पहुंच गए।
अगले दिन दोपहर के क़रीब मुज़फ़्फ़र भाई मेरे कमरे में आए। उनके चेहरे पर तशवीश और परेशानी के आसार थे। कहने लगे, “नज्मा! नाज़ली को क्या हो गया है? कहीं मुझसे नाराज़ तो नहीं?”
“मुझे तो मालूम नहीं।” मैं ने जवाब दिया, “क्या हुआ?”
“ख़ुदा जाने क्या बात है? उसमें वो पहली सी बात ही नहीं। आज सुबह से हर बात के जवाब में जी हाँ, जी हाँ। नाज़ली और जी हाँ? मैं समझा, शायद मुझसे नाराज़ है।”
“नहीं वैसे ही उसकी तबीअत नासाज़ है।”
“तबीअत नासाज़ है?” उन्होंने हैरानी से कह, “अगर तबीअत नासाज़ होती तो क्या वो बैठी बावर्चीख़ाने का काम करती। वो तो सुबह से हशमत के पास बावर्चीख़ाने में बैठी है। कहती है, मैं खाना पकाना सीखूँगी। मुँह हाथ तक नहीं धोया। अजीब मुआमला है।”
“वहम न कीजिए। आप ही ठीक हो जाएगी।” मैं ने बात टालने के लिए कहा।
“वहम की इसमें क्या बात है। तुम जानती हो उसकी तबीअत ख़राब हो तो इस घर में रहना मुश्किल हो जाता है और बावर्चीख़ाने के काम से तो उसे चिड़ है। आज तक वो कभी बावर्चीख़ाने में दाख़िल नहीं हुई थी। ख़ुदा जाने क्या भेद है।”
“वो दो क़दम चल कर लौट आए।”
“और मज़े की बात बताना तो मैं भूल ही गया। जानती हो ना कि उसे ज़र्द रंग कितना प्यारा है। उसने इस मर्तबा एक निहायत ख़ूबसूरत ज़र्द दुपट्टा उसके लिए ख़रीदा था। मेरा ख़याल था कि वो ज़र्द दुपट्टा देख कर ख़ुशी से नाचेगी। मगर उसने उसकी तरफ़ आँख उठा कर भी नहीं देखा। वहीं खूँटी से लटक रहा है। जब मैंने इसरार किया तो कहने लगी, “अच्छा है। आपकी मेहरबानी है।”
नाज़ली के मुँह से ये बात निकले। “सोचो तो... अजीब मुआमला है कि नहीं।” वो बोले।
नाज़ली की मुकम्मल और फ़ौरी तब्दीली पर हम सब हैरान थे। मगर वो ख़ुद बिल्कुल ख़ामोश थी। इसी तरह एक दिन गुज़र गया। उसी शाम भाई मुज़फ़्फ़र तार हाथ में लिए बावर्चीख़ाने में आए। हम दोनों वहीं बैठे थे। कहने लगे, “जानती हो ये किस का तार है। ख़ाला फ़रीद का बड़ा लड़का हमीद था ना... जो पंद्रह साल की उम्र में राजपूताने भाग गया था? वो वापस आ गया है। अब वो बहन को मिलने दिल्ली जा रहा है। ये तार उसका है। कल सुब्ह नौ बजे यहाँ पहुँचेगा। चंद एक घंटों के लिए यहाँ ठहरेगा।”
“कौन हमीद?”
“तुम को याद होगा। मैं और हमीद इकट्ठे पढ़ा करते थे।”
नाज़ली के होंट हिले और उसका चेहरा हल्दी की तरह ज़र्द पड़ गया। हाथ से प्याली गिर कर टुकड़े टुकड़े हो गई।
अगले दिन नौ बजे के क़रीब मैं और नाज़ली बावर्चीख़ाने में बैठे थे। वो चाय के लिए पानी गर्म कर रही थी मगर यूँ बैठी थी जैसे उसे किसी बात का ध्यान ही न हो। पास ही खूँटी पर उसका ज़र्द दुपट्टा लटक रहा था। भाई मुज़फ़्फ़र ने ज़बरदस्ती उसे वो दुपट्टा लेने पर मजबूर कर दिया तो उसने ले लिया लेकिन पहनने की तरफ़ कोई ख़ास तवज्जो न दी। उसके बाल बिखरे हुए और कपड़े मैले थे। उस वक़्त वो मेरी तरफ़ पीठ किए बैठी थी।
बाहर बरामदे में भाई साहब किसी से कह रहे थे,
“तुम यहीं बैठो। मैं उसे बुलाता हूँ। निहायत अदब से भाभी को सलाम करना।”
“अच्छा तुम्हारी मर्ज़ी।” किसी ने भद्दी आवाज़ में कहा जैसे कोई घड़े में मुँह डाल कर बोल रहा हो।
“वही।” मेरे दिल में किसी ने कहा और जांगली की शक्ल मेरे सामने आ खड़ी हुई। मैं उसे देखने के लिए दबे-पाँव उठी।
बावर्चीख़ाने का दरवाज़ा बंद था। मैं ने दरवाज़ा खोला तो उसी वक़्त भाई साहब हमीद से कह रहे थे, “आओ तुम भी मेरे साथ आओ।”
मैंने दरवाज़ा ज़ोर से बंद कर दिया।
नाज़ली ने दरवाज़ा खुलने और बंद होने की आवाज़ सुनी। वो दीवानावार उठी। खूँटी से लपक कर दुपट्टा उतार लिया। फिर मेरे देखते देखते उसे चूल्हे की तरफ़ फेंक दिया जैसे कोई बिच्छू हो और दौड़ कर हशमत की चादर को पकड़ लिया जो दूसरे दरवाज़े की पट पर लटक रही थी और अपने आपको उसमें लपेट लिया। ज़र्द दुपट्टा चूल्हे में जलने लगा। उसी वक़्त भाई साहब अंदर दाख़िल हुए मगर वो अकेले ही थे। उन्होंने हैरानी से हमें देखा। कुछ देर हम तीनों ख़ामोश ही खड़े रहे। आख़िर उन्होंने मुझसे पूछा कि “नाज़ली कहाँ है?”
मैंने नाज़ली की तरफ़ इशारा किया जो मुँह लपेट कर कोने में बैठी हुई थी।
“नाज़ली...!” उन्होंने हैरानी से दोहराया।
वो नाज़ली के क़रीब गए, “ये क्या हिमाक़त है? चलो... बाहर हमीद इंतिज़ार कर रहा है।”
वो ख़ामोश बैठी रही। फिर नहीफ़ आवाज़ में कहने लगी, “नहीं। मैं नहीं जाऊँगी।”
“क्यूँ?” वो बोले।
इत्तिफ़ाक़न भाई जान की नज़र जलते हुए दुपट्टे पर पड़ी।
“नाज़ली...!” उन्होंने दुपट्टे की तरफ़ देख कर हैरानी से कहा।
नाज़ली ने सर हिला दिया और चिमटे से दुपट्टे को पूरी तरह चूल्हे में डाल दिया। भाई नाज़ली की इस तब्दीली पर बहुत ख़ुश दिखाई देते हैं। उनका ख़याल है कि नाज़ली की तबीअत बहुत संवर गई है। बात है भी दुरुस्त। चूँकि उसकी तबीअत में वो ज़िद और बेबाक शोख़ी नहीं रही, मगर कभी किसी वक़्त उन्हें इकट्ठे देख कर मैं महसूस करती हूँ गोया वो नाज़ली को हमेशा के लिए खो चुके हैं।
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