शातिर की बीवी
(1)
उम्दा किस्म का सियाह-रंग का चमकदार जूता पहन कर घर से बाहर निकलने का असल लुतफ़ तो जनाब जब है जब मुँह में पान भी हो, तंबाकू के मज़े लेते हुए जूते पर नज़र डालते हुए बेद हिलाते जा रहे हैं। यही सोच कर में जल्दी-जल्दी चलते घर से दौड़ा। जल्दी में पान भी ख़ुद बनाया। अब देखता हूँ तो छालीया नदारद। मैंने ख़ानम को आवाज़ दी कि छालीया लाना और उन्होंने उस्तानी जी को पुकारा। उस्तानी जी वापिस मुझे पुकारा कि वो सामने ताक़ में रखी है। मैं दौड़ा हुआ पहुंचा। एक रकाबी में कटी और बे कटी यानी साबित छालीया रखी हुई थी। सरौता भी रखा हुआ था और सुबे से ताज्जुब की बात ये कि शतरंज का एक रख़स भी छालीया के साथ कटा रखा था। इस के तीन टुकड़े थे। एक तो आधा और दो पाओ पाओ। साफ़ ज़ाहिर है कि छालीया के धोके में कतरा गया है, मगर यहां किधर से आया। ग़ुस्सा और रंज तो गुमशुदगी का वैसे ही था। अब रुख की हालत-ए-ज़ार जो देखी तो मेरा वही हाल हुआ जो अली-बाबा का क़ासिम की लाश को देखकर हुआ था। ख़ानम के सामने जा कर रकाबी जूं की तूं रख दी। ख़ानम ने भवें चढ़ा कर देखा और यक-दम उनके ख़ूबसूरत चेहरे पर ताज्जु-बख़ेज़ मुस्कुराहट सी आकर रख गई और उन्होंने मस्नूई ताज्जुब से उस्तानी जी की तरफ़ रकाबी करते हुए देखा। उस्तानी जी एक दम से भवें चढ़ा कर दाँतों तले ज़बान दाब के आँखें फाड़ दें, फिर संजीदा हो कर बोलीं,
जब ही तो मैं कहूं या अल्लाह इतनी मज़बूत और सख़्त छालीया कहाँ से आ गई। कल रात अंधेरे में कट गया। जब से रकाबी जूं की तूं वहीं रखी है।
अजी ये यहां आया कैसे ? मैंने तेज़ हो कर कहा।
उस्तानी जी ने चोरों की तरह ख़ानम की तरफ़ देख के कहा, ख़ुदा जाने कहाँ से आया... में...
मैं ख़ूब जानता हूँ। ये कह कर ग़ुस्सा से मैंने ख़ानम की तरफ़ देखा और ज़ोर से कहा।
हंसी क्यों हो? मैं ख़ूब जानता हूँ... इन बातों से किया फ़ायदा?
उधर वो हंस पढ़ें और इधर दरवाज़े से उस्तानी जी का लड़का घर में दाख़िल हुआ। मेरी जान ही तो जल गई और मैंने ये कह कर कि इसी मूज़ी की शरारत है। लड़के का कालर पकड़ कर दो तीन बेद ऐसे जमाए कि मज़ा आ गया। ये बेद गोया ख़ानम के लगे। दौड़ कर उन्होंने बेद पकड़ने की कोशिश की और रोकना चाहा मगर मैंने मारना बंद ना किया। मैं मार रहा था और ख़ानम कह रही थी। इस की कोई ख़ता नहीं। मगर मैं ग़ुस्सा में दीवाना हो रहा था और मारे ही गया हत्ता कि नौबत ब-ईं जा रसीद कि ख़ानम ने बेद पकड़ कर कहा, तुम मुझे मार लू मगर उसे ना मॉरो। मगर मुझे ग़ुस्सा ही बेहद था। मैंने बेद छुड़ा लिया और वो रोती हुई कमरे में चली गईं। मैं ग़ुस्सा में काँपता हुआ बाहर चला आया।
मेरा ग़ुस्सा हक़बजानिब था या नहीं। नाज़रीन ख़ुद इन्साफ़ करें। शतरंज का शौक़ हुआ तो हाथीदांत के महर मंगाए। ये मुहरे निहायत ही नाज़ुक और ख़ूबसूरत थे और ख़ानसाहब ने दो ही दिन में सबकी चोटियां तोड़ कर हफ़्ता भर के अंदर ही अंदर तमाम मुहरे बराबर कर दिए थे। ख़ानसाहब ना मेज़ पर खेलते थे और ना फ़र्श पर, वो कहते थे कि शतरंज तख़्त पर होती है। ताकि ज़ोर से मुहरे र मुहरे मारने की आवाज़ दे। इस के बाद फिर बनारसी मुहरे मंगाए। छोटे छोटे ख़ूबसूरत, निहायत ही सादा और सुबुक मुहरे थे कि बस देखा कीजिए। हफ़्ता भर मुश्किल से उन मोहरों से खेलने पाए होंगे कि सफ़ैद बाज़ी का एक पैदल ख़ानसाहब के साल भर के बच्चे ने खा लिया। बहुत कुछ उस के हलक़ में ख़ानसाहब ने उंगलियां गनघोलीं। चित्त लुटाया, झंझोड़ा, पीठ पर धम्मू के दिए, मगर वो ज़ालिम इसे पार ही कर गया। सफ़ैद बाज़ी चूँकि ख़ानसाहब लेते थे लेकिन इस के बाद ही जल्द लाल बाज़ी का बादशाह खो गया। बहुत ढ़ूंडा, तलाश किया मगर बेसूद। इस की जगह दो एक रोज़ दिया-सलाई का बक्स रखा, फिर एक रोज़ मुनासिब इतर की ख़ाली शीशी मिल गई। वो शाह शतरंज का काम देती रही कि इस के बाद ही लाल बाज़ी का फ़ेल और सफ़ैद का एक घोड़ा ग़ायब हो गया। ख़ानसाहब तजरबाकार आदमी थे और पहले ही कह चुके थे कि हो ना हो मुहरे आपके घर में से चरवाए जाते हैं मगर में यही कह देता कि ये नामुमकिन है। उन्हें भला इस से किया मतलब। बहतेरा वो मुझे यक़ीन दिलाते सर मारते कि सिवाए उनके कोई नहीं, मगर मुझे यक़ीन ही ना आता। ख़ानसाहब कहते थे औरतों को शतरंज से बुग़ज़ होता है। वाक़िया ये है कि ख़ानम मेरी शतरंज बाज़ी के ख़िलाफ़ तो थीं और बहुत ख़िलाफ़ थीं, मगर मुझ नहीं मालूम था कि इस तरह मुख़िल हो सकती हैं, ग़रज़ इन मोहरों के बाद ही राम पूर से ख़ानसाहब ने मुंडे मुहरे अमरूद की लक्कड़ी के मंगवा दिए। राम पूर के बेहतर, उम्दा. ख़ूबसूरत और साथ ही साथ मज़बूत मुहरे होना नामुमकिन हैं। अभी चार रोज़ भी आए ना हुए थे कि ये वाक़िया हुआ। यानी उस्तानी जी ने छालीया के साथ इस नई शतरंज का रुख कुतर डाला। इन्ना लिल्लाहे-व-इन्ना इलैहे राजेऊन।
मैंने इस वाक़िया का ज़िक्र सबसे पहले ख़ानसाहब से किया। उन्होंने बाएं तरफ़ की डाढ़ी का छब्बू जो ज़रा नीचे आ गया था ख़ूब ऊपर चढ़ाते हुए और आँखें झपका कर अपनी ऐनक के ऊपर से देखते हुए मुस्कुरा कर कहा। मैं ना कहता था कि मिर्ज़ा साहिब कि हो ना हो ये आपके घर में ही हैं... अजी साहिब यहां अल्लाह बख़्शे मरने वाली (पहली बीवी) से दिन रात जूती पैज़ार होती रहती थी। फिर उस के बाद अब इस से भी दो तीन मर्तबा ज़ोर के साथ चाईं चाईं हो चुकी है और होती रहती है मगर मैं शतरंज के मुआमला में ज़रा सख़्त हूँ। घर-वाली को सोने का निवाला खिलाए, मगर वो जो कहे कि शतरंज ना खेलो तो बस उसे खा ही जाये... जब जा के कहीं शतरंज खेलनी मिलती है। वर्ना ये समझ लीजीए कि आए दिन के झगड़े रहेंगे और शतरंज खेलनी दूभर हो जाएगी। वैसे आपका मिज़ाज... मैं तो कुछ कहता नहीं।
मैंने सोचा ख़ानसाहब वाक़ई सच्च कहते हैं... मगर अब मुझे क्या करना चाहिए। मैं सोच ही रहा था कि ख़ानसाहब बोले,
अभी कोई सतरह बरस का ज़िक्र है कि मरने वाली लड़ने पर आमादा हो गई। वो पान नहीं भेजती थी। ज़रा ग़ौर तो कीजीए कि हम तो बाहर शतरंज खेल रहे हैं। ये साहिब बैठे हैं और पान नदारद! ख़ुदा-बख़्शे किसी मुआमला में नहीं दबती थी। हाँ तो... कोई सतरह बरस हुए वो लड़ने पर आमादा हो गई। ख़ूब छनी। बड़ी मुश्किल से राम किया।
वो कैसे ? मैंने पूछा।
ख़ानसाहब ने सर हिला कर ऐसा जवाब दिया जैसे शायद ड्यूक आफ़ वेलिंगटन ने नपोलीन को शिकस्त देकर वज़ीर-ए-आज़म से कहा होगा। आप बताईए... पहले आप बताईए। सुनिए... मैंने साफ़ साफ़ कह दिया। बेगम साहिब ये लू अपना पाँच रुपय का महर और घर की राह लू। बंदा तो शतरंज खेलेगा... पर खेलेगा... पान बनाओ तो बनाओ, नहीं तो गाड़ी बढ़ाओ और चलती फुर्ती नज़र आओ। आख़िर झुक मार कर बनाना पड़े और वही मिसल रही।
पांडे जी पछताएँगे
वही चने की खाएँगे
तो बात ये है... मिर्ज़ा साहिब बात ये है कि औरत ज़ात ज़रा शतरंज के ख़िलाफ़ होती है और ज़रा कमज़ोरी दिखाई और सर पर सवार। ख़ानसाहब ने अपने बाएं हाथ की कलिमे की उंगली पर दाहने हाथ की दो उंगलीयों को सवार करते हुए कहा। अब में ये लैक्चर सुनकर तरकीब सोच रहा था कि कहा करूँ। जो कहूं कि अपना रास्ता देखो तो ख़ानम सीधी तूफ़ान मेल से घर पहुँचेगी। एक लम्हा नहीं रुकेगी। घर पर जी नहीं लगेगा। तार अलग देने पड़ेंगे और हफ़्ता भर की दौड़ धूप के बाद ही लाना ही पड़ेगा।
ख़ानसाहब ने कहा, चली जाने दीजिए। झुक मार कर फिर आख़िर को ख़ुद ही आयेंगी । महीना, दो महीना, तीन महीना आख़िर कितने दिन ना आयेंगी ।
मैंने दिल में कहा कि ये इल्लत है और ख़ानसाहब से कहा कि मगर मुझे तकलीफ़ हो जाएगी।
आप भी अजीब आदमी हैं। ख़ानसाहब ने चीं बह चीं हो कर कहा। आप शतरंज नहीं खेल सकते... लिख लीजीए कि आपके घर में आपका शतरंज सूली कर देंगी। आप नहीं खेल सकते...
आख़िर क्यों?
ख़ानसाहब बोले, लिख लीजीए... बंदा ख़ां की बात याद रखिएगा लिख लीजिए...
आख़िर क्यों लिख लूं? कोई वजह?
वजह ये! ख़ानसाहब ने अपनी दाहने हाथ की मुट्ठी ज़ोर से बाएं हाथ की हथेली पर मार कर कहा, वजह ये कि माफ़ कीजिएगा आप ज़न-मुरीद हैं... ज़न-मुरीद...! उधर वो अजाएं गी और इधर आप... (उंगली घुमा कर नक़ल बनाते हुए। हाय जोरू! हाय जोरू...! ऐसे कहीं शतरंज खेली जाती है। लाहौल वला क़ो)
मैंने तै कर लिया कि ख़ानम से इस बारे में क़तई सख़्त लड़ाई होगी। मैं नहीं दबों गा। ये मेरा शौक़ है, शौक़। उन्हें मानना पड़ेगा।
(2)
तीन चार रोज़ तक ख़ानम से सख़्त तरीन जंग रही, यानी ख़ामोश जंग, उधर वो चुप अधर में चुप। ख़ानम की मददगार उस्तानी और मेरे मददगार ख़ानसाहब। पांचवें दिन ये शतरंज दूभर मालो होने लगी। मेरी सिपाह कमज़ोरी दिखा रही थी। जी था कि उल्टा आता था। ख़ामोश जंग से ख़ुदा महफ़ूज़ रखे। ऐसा मालूम होता कि जैसे गैस की लड़ाई हो रही है। ग़नीम का गैस दम घोटे देता था। ख़ानसाहब तरह तरह के हमले तजवीज़ करते थे, मगर जनाब इस गैस की लड़ाई में कोई तदबीर ना चलती थी। ख़ानसाहब माहिर फ़नून थे मगर जर्मन गैस का जवाब तोप और बंदूक़ नहीं दे सकती। ये उन्हें मालूम ना था। वजह ये है कि वो पुराने ज़माने की लड़ाईयां लड़े हुए बेचारे क्या जानें कि ख़ामोशी का गैस क्या बला होती है। मेरी कमज़ोरी पर दाँत पीसते थे, कहते थे। ना हवा में... दुखा देता।
ख़ानसाहब अव्वल तो ख़ुद जंगी आदमी और फिर जनरल भी अच्छे, मगर जनाब सिपाही हिम्मत हार जाये तो जनरल क्या करे। छः दिन गुज़र गए और अब मैं जंग मग़लोबा लड़ रहा था। बहुत हिम्मत की, बहुत कोशिश की, मगर हार ही गया। शराइत सुलह भी बहुत ख़राब थी। शायद मुआहिदा वरसीलज़ जिस तरह तुर्कों के लिए नाक़ाबिल पज़ीराई था, इसी तरह मेरे लिए भी शराइत ज़रूरत से ज़्यादा सख़्त थीं, मगर बाक़ौल बुज़ूर शमशीर-ओ-बनोक संगीन मुझको मजबूरन सुलह नामा पर दस्तख़त करना पड़े और सुलह नामा की सख़्त शराइत ज़रा मुलाहिज़ा हूँ,
(1) ख़ानसाहब से तमाम ताल्लुक़ात दोस्ती मुनक़ते कर दूँगा, वो घर पर आएँगे तो कहलवा दूँगा कि नहीं हूँ। वैसे हिस्सा वग़ैरा उनके यहां जाएगा और आएगा।
(2) शतरंज खेलना बिलकुल बंद। अब कभी शतरंज नहीं खेलूंगा। ख़ुसूसन रात को तो खेलूंगा ही नहीं।
(3) शतरंज के इलावा ताश भी नहीं खेलूंगा। सिवाए इतवार के रात को वो भी नहीं।
(4) रात को देर कर के आना शतरंज खेलते रह जाने के बराबर मुतसव्वर होगा। कोई सबूत लिए बग़ैर तसव्वुर कर लिया जाएगा कि शतरंज खेली गई। कोई उज़्र तस्लीम ना किया जाएगा।
पांचवें और छुट्टी शर्त मैं ख़ुद बयान करना पसंद नहीं करता।
सातवीं शर्त ये थी कि इस मुआहिदा की पाबंदी ना की गई तो तुम अपने घर ख़ुश हम अपने घर ख़ुश।
ख़ानसाहब से मैंने अपनी शिकस्त और शराइत सुलह का ज़िक्र साफ़ साफ़ नहीं किया मगर इतना ज़रूर तस्लीम किया है कि मुहरे बराबर उस्तानी जी के लड़के से चरवाए जाते रहे। फिर सुलह का ज़िक्र किया और इस के बाद कुछ रोज़ के लिए मस्लिहतन शतरंज खेलना बंद करने का ज़िक्र का। ख़ानसाहब तजरबाकार आदमी थे। दाँत निकाल कर उन्होंने रान पर हाथ मार कर पहले तो दुनिया-भर की लड़ाका बीवीयों को गालियां दें और फिर कहा,
मियां लम्डे हो। मुझसे बातें बनाने आए हो। बीवी की जूतीयां खा रहे हो...! शतरंज खेलेंगे... ये शतरंज है! होनहा... मैं ना कहता था... मेरी बला से। तुम जानो तुम्हारा काम, मगर लिख लू एक दिन सर पकड़ कर रोओगे... घर-वाली को इतना सर पर नहीं चढ़ाते... तुम जानो तुम्हारा काम... जब कभी मुलाक़ात हुई इलेक् सलेक कर ली। बस लिख लू...
ख़ानसाहब की गुफ़्तगु से कुछ फरेरी सी आई। घर में आया तो ख़ानम को फूल की तरह खुला हुआ पाया। लाहौल वला क़ो।
शतरंज जाये चूल्हे में। इतनी अच्छी बीवी से शतरंज के पीछे लड़ना हमाक़त है। कौन लड़े। गोल करो।
किसी ने सच्च कहा है चोर चोरी से जाये तो क्या हेराफेरी भी छोड़ दे। लगे हाथों इधर उधर कभी-कभार एक दो बाज़ीयां जम ही जातीं। कभी ख़ानसाहब के यहां पहुंच गया तो कभी मीर साहिब के यहां। फिर बात छिपी नहीं रहती। ख़ानम को भी मालूम हो गया कि कभी-कभार में कोई जुर्म नहीं। ख़ुद ख़ानम ने ही कहा। मेरा ये मतलब थोड़ी है कि क़सम खाने को भी ना खेलो, खेलो, शौक़ से खेलो, मगर ऐसे खेलो कि कभी-कभार एक दो बाज़ी वक़्त पर खेल लिए कि ये कि जम गए तो उठते ही नहीं।
ख़ानम को नहीं मालूम कि कभी-कभार से और शतरंज से बाप मारे का बीर है। कभी-कभार वाला भला खेलने वाले के आगे क्या जमे ? जो लोग मुझसे आठ आठ मातें खाते थे वो उल्टी मुझे आठ आठ पिलाने लगे।
दो एक रोज़ फिर ऐसा हुआ कि क़दरे क़लील देर से आना पड़ा। ख़ानम ने कभी नाक भवें सुकेड़ें, कभी ज़रा चीं बह चीं हुई, लेकिन कभी चपक़ुलश की नौबत ना आई बस बड़बड़ा कर रह गईं। फिर वही शतरंज बाज़ी... ख़ानसाहब के साथ... फिर खेलने लगे। वग़ैरा वग़ैरा। ग़रज़ इसी किस्म के जुमलों तक ख़ैरीयत गुज़री।
(3)
एक रोज़ का ज़िक्र है कि ख़ानम ने बज़्ज़ाज़ से बंबई के काम की उम्दा उम्दा साड़ियां मँगाई थीं। एक साड़ी बेहद पसंद थी, मगर जेब में इतने दाम नहीं। बार-बार बेचैन हो कर वही पसंद आती, मगर मेरे पास भला इतने दाम कहाँ। कैसी अच्छी है... रंग तो देखो... बेल...! क्या काम हो रहा है... और फिर कपड़ा... वो जो मैं दिला रहा था। इस को तरह तरह से घुमा फिराकर इस तरह महंगा साबित किया गया कि सस्ता रोय बार-बार और महंगा रोय एक-बार। ऐसे मौक़ा पर ग़रीब शौहर के कलेजा पर एक घूँसा लगता। दिल-ए-पर साँप सा लौट जाता है। दिल ही दिल में कहता है कि ज़ालिम तुझे क्या ख़बर मेरा बस चले तो जहान ले दूं मगर क्या करूँ। बीवी भी बेबसी को देखती है। मजबूरी को तस्लीम नहीं करती है। एक सांस लेकर चुप सी हो जाती है। मर्द के लिए शायद इस से ज़्यादा कोई तकलीफ़-दह चीज़ नहीं। ये भी मुम्किन है कि एक दफ़ा वो इस तकलीफ़ को बर्दाश्त ना करे और कहीं ना कहीं से रुपया पैदा करे। अपनी चहेती का कहना कर दे मगर वहां तो ये हाल है कि आज साड़ी का क़िस्सा है तो कल जंपर का और ये चीज़ है तो कल वो चीज़। कहाँ तक करे। बीवी बेचारी भी कुछ मजबूर नहीं करती मगर उस की आँखें मजबूर हैं। ज़बान क़ाबू में है, मगर दिल क़ाबू में नहीं। उम्र का तक़ाज़ा है, क्या इस से भी गई गुज़री।
ग़रज़ ऐसा ही मौक़ा आया। पसंद करदा साड़ी ना ली जा सकती थी और ना लेने की ताक़त थी। मजबूरन एक दूसरी पसंद की गई थी और दाम लेकर मैं ख़ुद जा रहा था कि कुछ नहीं तो दस पाँच रुपया इसी में कम कर दे और अगर आधे दामों में दे दे तो फिर बढ़िया वाली ही लेता आऊँ।
चलते वक़्त ख़ानम ने कहा, देखिए इधर से जाइएगा। उधर से हो कर। उंगली के इशारा से कहा। इस से ये मतलब था कि दूसरी सड़क से यानी ख़ानसाहब के घर से बचते हुए कि शतरंज ना खेलने लगूँ। मेरा इरादा शतरंज का ना था। मैंने हंसकर कहा। अब ऐसा दीवाना भी नहीं कि काम से जा रहा हूँ और छोड़ छाड़ शतरंज पर डट जाऊं।
ख़ानसाहब की बैठक के सामने से गुज़रा तो देखूं कि कुछ भीड़-भड़क्का है। जी ना माना, रफ़्तार कुछ हल्की ही थी। आवाज़ सुनकर ख़ानसाहब नंगे पैर चौखट पर खड़े हो कर चलाए। अजी मिर्ज़ा साहिब ऊँघते को ठेलने का बहाना, साइकिल का इंजन रोक दिया और उतर पड़ा।
दूर ही दूर से चले जाओगे। ऐसा भी किया है। ये कह कर ख़ानसाहब ने हाथ पकड़ कर मूँढे पर बिठाया। एक नए शातिर आए हुए थे। दो या तीन मातें मीर साहिब को दे चुके थे। अब एक और साहिब डटे हुए थे। बड़े ज़ोर की बाज़ी हो रही थी। दोनों बाज़ीयां बराबर की थीं। गज़शा बाज़ीयों की ख़ानसाहब ने तफ़सील सुनाई। मीर साहिब ने बताया कि किस तरह पहली बाज़ी में ख़ानसाहब ने एक ग़लत चाल बता कर उनका घोड़ा पिटवा दिया और फिर किस तरह धोका मैं ख़ुद उन्होंने अपना रुख पैदल के मुँह में रख दिया। वर्ना वो बाज़ी मीर साहिब ज़रूर जीत जाते बल्कि जीत ही गए थे। क्योंकि क़िला दुश्मन का तोड़ ही दिया था और बादशाह ज़च बैठा था। बस एक घोड़े की शहि की देर थी कि ग़लती से पैदल के मुँह में रख रख दिया। वर्ना घोड़ा कम होने पर भी उन्होंने मात कर दी होती। नए शातिर ने कुछ उस की तरदीद की, वो दरअसल काफ़ी देर करते मगर मजबूरी थी और खेल में मुनहमिक थे। दूसरी बाज़ी की तफ़सील भी मीर साहिब सुनाना चाहते थे कि किन ग़ैरमामूली वजूहात से इत्तिफ़ाक़न ये बाज़ी भी बिगड़ गई मगर अब मौजूदा खेल ज़्यादा दिलचस्प हुआ जा रहा था।
बाज़ी बहुत जल्द ख़त्म हो गई और नए शातिर फिर जीते। मैं ख़ानसाहब से ये कहता हुआ अलिफ़ था कि अभी आया कुछ कपड़ा ले आऊँ। ख़ानसाहब ने बड़े पुख़्ता वाअदे लिए जब जा कर छोड़ा। कपड़े वाले की दुकान पर पहुंचा और साड़ी ख़रीदी। दाम नक़द ही दे दिए। लाला साहिब बहुत माक़ूल आदमी थे और बाक़ौल उनके तमाम कपड़े मुझे दाम के दाम पे दे देते थे।
दुकान से साड़ी लेकर वापिस आया और ख़ानसाहब के यहां शतरंज देखने लगा। बड़े कांटे की शतरंज कट रही थी। क्योंकि मीर साहिब ने इन नौ-वारिद शातिर कर एक मात दी थी और अब दूसरी बाज़ी भी चढ़ी हुई थी।
मेरे बताने पर नौ-वारिद साहिब ने भुना कर मेरी तरफ़ देखा और कहा, बोलने की नहीं है
साहिब। ख़ानसाहब तेज़ हो कर बोले। मीर साहिब क्या अंधे हैं? क्या उन्हें इतना नहीं दिखाई देता कि मोहरा पिट रहा है। क्या वो ऐसे अनाड़ी हैं?
आप और भी बताए देते हैं नौ-वारिद ने कहा। उधर साहिब वाक़ई अंधे हो रहे थे और अगर ख़ानसाहब ना बोलते तो घोड़ा मुफ़्त पिट गया होता। वो घोड़े को पटता छोड़कर रुख़ चल रहे थे। अब रुख की चाल वापिस कर के उन्होंने घोड़ा पकड़ा।
चाल हो गई। नौवारिद ने बिगड़ कर कहा। चाल की वापसी नहीं।
मीर साहिब जल कर बोले, झूटी मोटी थोड़ी हो रहा है। शतरंज हो रही है। चाल की वापसी की बराबर नहीं, मगर मैंने चाल भी तो नहीं चली। मैंने रुख को छुवा और चाल हो गई? ये किया...? रोते हो...
जी नहीं। नौवारिद ने कहा। चाल हो गई आपको रुख़ वही रखना पड़ेगा। मैं चाल वापिस नहीं दूँगा। ये कह कर रख उठा कर इस जगह रख लिया और मीर साहिब ने फिर वापिस रख लिया। तेज़ हो कर नौवारिद ने झुँझला कर कहा। जी नहीं चलना पड़ेगा। और फिर अपनी चाल भी चाल दह। यानी रुख से मीर साहिब का घोड़ा मार मुट्ठी में मज़बूत पकड़ लिया।
मीर साहिब ने और ख़ानसाहब ने हुल्लड़ सा मचाया। मीर साहिब को जो ताव आया तो घोड़े को रुख से मार दिया। नौवारिद ने रुख को रुख से मारा तो ख़ानसाहब ने ग़ुस्सा में अपने वज़ीर से मुख़ालिफ़ के फ़ेल को दीदा-ओ-दानिस्ता मार कर वज़ीर को पिटा मुहरे बिसात पर ये कह कर पटक दिए शतरंज खेलते हो कि रोते हो? ये लू में ऐसे अनाड़ियों से नहीं खेलता।
अब मैं बैठा, मगर ना मीर साहिब की ज़बान क़ाबू में थी और ना ख़ानसाहब की। नतीजा ये निकला कि मीर साहिब मेरे मुहरे उठा उठा कर चलने लगे। दो मुलाऊं में मुर्ग़ी हराम, वो मज़मून उस बाज़ी का हुआ। शैख़-जी (नौवारिद) वैसे भी अच्छी शतरंज खेलते थे, बाज़ी बिगड़ने लगी कि मीर साहिब ने फिर एक चाल वापिस की। शैख़-जी ने हाथ पकड़ लिया हालाँकि मीर साहिब चाल चल चुके थे, मगर कहने लगे कि अभी तो मोहरा मेरे हाथ में था। ख़ूब ख़ूब झाईं झाईं हुई। शैख़-जी मोहरा फेंक कर बिगड़ खड़े हुए, नतीजा ये निकला कि शैख़-जी भाग गए। में भी उठने को हुआ तो मीर साहिब ने कहा कि आव एक बाज़ी हो जाये। मैंने घड़ी देखी। अभी तो शाम ही थी, मैंने जल्दी जल्दी मुहरे जमाए कि लाओ एक बाज़ी खेल लूं।
मीर साहिब रोज़ के खेलने वाले, झटपट उन्होंने मार कर दिया। मैंने जल्दी से दूसरी बिछाई। वक़्त की बात मीर साहिब ने वो भी मात किया। तीसरी बिछाई, ये देर तक लड़ी।
मेरी बाज़ी चढ़ी हुई और मैं ज़रूर जीत जाता कि मेरा वज़ीर धोका में पट गया। चाल वापिस की ठहरी नहीं थी। ये भी मीर साहिब जीते। ख़ुश हो कर कहने लगे। अब तुमसे क्या खेलें, हमारी शतरंज ख़राब होती है। कोई बराबर वाला हो तो एक बात थी।
मुझे ग़ुस्सा आ रहा था। मैंने कहा। मीर साहिब वो दिन भूल गए। जब चार चार मात देता था और एक नहीं गिनता था। मेरी शतरंज छूटी हुई है।
मीर साहिब ने और मेरी जान जलाई कहने लगे। हार जाते हैं तो सब यूँही कहते हैं
ग़रज़ फिर होने लगी, अब मैं जीता। मैं कोशिश कर रहा था कि तीनों बाज़ीयां उतार दो और मैंने दो उतार दें और तीसरी ज़ोर से जमी हुई थी कि ख़ानसाहब ने सर उठा कर बाहर झाँका। कौन है ? उन्होंने कहा और सारस की सी गर्दन ऊंची कर के देखा और कहा,
लीजीए। कुछ तंज़न कहा। लीजिए वो एलची आ गया।
ये मेरा मुलाज़िम अहमद था। वो जा रहा था। मैंने आवाज़ देकर बुलाया।
क्यों कैसे आए।
कुछ नहीं साहिब... देखने भेजा था।
और कुछ कहा था?
जी नहीं बस यही कहा था कि देख के चले आना... जल्दी से।
तो देखो मैंने कहा। कहा कहोगे जा के ?... ये कहना कि ख़ानसाहब के यहां नहीं थे। यूसुफ़ साहिब के यहां थे... मगर नहीं... तुमसे तो यही कहा है कि ख़ानसाहब के यहां देख लेना... तो बस यही कह देना नहीं थे... देखो...
लाहौल वला क़ो ख़ानसाहब ने बिगड़ कर कहा। अरे मियां तुम आदमी हो कि पंच-शाख़ा! बीवी ना हुई नऊज़-बिल-लाह वो गई। नहीं जी। ख़ानसाहब ने ग़ुस्सा से अहमद से कहा। जाओ कहना ख़ान के यहां बैठे शतरंज खेल रहे हैं और ऐसे ही खेलेंगे।
नहीं नहीं देखो... मैंने कहा मगर ख़ानसाहब ने जुमला काट दिया।
जाओ यहां से कह देना शतरंज खेल रहे हैं।
मत कहना। मैंने कहा। अभी आता हूँ।
अहमद चला गया और अब ख़ानसाहब ने मुझे आड़े हाथों लिया। बहुत सी उन्होंने तज्वीज़ें मेरे सामने पेश कीं, मसलन ये कि मैं डूब मरूँ... दूसरी शादी कर लूं... घर छोड़ दूं... ये सब महिज़ इस वजह से कि ऐसी ज़िंदगी से कि बीवी की सख़्त गेरी की वजह से शतरंज खेलना ना मिले, मौत से बदरजहा बेहतर।
ग़रज़ इसी हुज्जत और बेहस में मेरा एक रुख़ पिट गया और मेरी बाज़ी बिगड़ने लगी कि मैंने मीर साहिब का वज़ीर मार लिया।
मीर साहिब ग़ुस्सा हो कर फाँद पढ़। उधर लाओ वज़ीर... हाथ से वज़ीर छीनते हो। अभी तो मेरे हाथ में ही था।
इस की नहीं है। मैंने कहा। वज़ीर वापिस नहीं दूँगा। अभी अभी तुमने मुझसे घोड़े वाला पैदल ज़बरदस्ती चलवा लिया था और अब अपनी दफ़ा यूं कहते हो! में नहीं दूँगा।
ख़ानसाहब भी मीर साहिब की तरफ़-दारी करने लगे। मगर ये आख़िरी बाज़ी थी जिससे में बराबर हुआ जा रहा था, लिहाज़ा मैंने कहा कि मैं हरगिज़ हरगिज़ चाल वापिस ना दूँगा। ख़ूब ख़ूब हुज्जत हुई, गुज़श्ता पुरानी बाज़ीयों का ज़िक्र किया गया। मुझे उनसे शिकायत थी कि पुरानी मातें जो मैंने उनको दी थीं वो भूल गए और यही शिकायत उनको मुझसे थी। पुरानी मातों का ना मैंने इक़बाल किया और ना उन्होंने। बिलआख़िर जब ये तै हो गया कि मैं वज़ीर वापिस नहीं दूँगा तो मीर साहिब ने मुहरे फेंक कर क़सम खाई कि अब मुझसे कभी ना खेलेंगे, लानत है इस के ऊपर जो तुमसे कभी खेले। बेईमान कहीं के, तफ़ है इस कमबख़्त पर जो तुमसे अब खेले।
मैंने भी इसी किस्म के अलफ़ाज़ दोहराए और निहायत बदमज़गी से हम दोनों उठने लगे। ख़ानसाहब ने मेरा हाथ पकड़ लिया और कहा। भई ये तो कुछ ना हुआ बराबर बराबर हो गई। एक को हारना चाहिए। इस पर मीर साहिब बक़ौले कि मैं जीता और मैं बोला कि ये ग़लत कहते हैं, बराबर है, ख़ानसाहब ने कहा कि अच्छा, एक बाज़ी और हो, मगर मीर साहिब कहने लगे, तो ये है, अरे मियां ख़ानसाहब तुम मुस्लमान हो और मेरा यक़ीन नहीं करते मैं कसम खा चुका, लानत हो इस पर जो अब उनसे खेले।मैंने मीर साहिब से तंज़न कहा, मीर साहिब क़िबला ये शतरंज हिन् उस को शतरंज कहते हैं। मज़ाक़ नबाशद। अभी सीखिए कुछ दिन।
अरे जाओ। मीर साहिब बोले। बहुत खिलाड़ी देखे हैं। ना मालूम तुमसे कितनों को सिखा कर छोड़ दिया। अभी कुछ दिन और खेलो। इसी किस्म की बातें करते हुए मीर साहिब उठकर चले गए। ख़ानसाहब मेरे लिए पान लेने गए, में अपनी साइकिल के पास पहुंचा और बत्ती जलाई। इतने में ख़ानसाहब पान लेकर आ गए और मैं चल दिया।
बमुश्किल सामने के मोड़ पर पहुंचा हूँगा कि सामने से एक आदमी ने हाथ से मुझे रोका। मैं रुक गया तो उसने पीछे इशारा किया। मुड़ कर देखता हूँ कि मीर साहिब चलाते भागते आते हैं। अच्छी मिर्ज़ा साहिब, ख़ुदा की क़सम खा कर कहता हूँ। मीर साहिब हाँपते हुए बोले। वल्लाह मैंने अच्छी तरह हिसाब किया काअबा के रुख हाथ उठा कर कहता हूँ मेरी दो बाज़ीयां इस आख़िरी बाज़ी को छोड़कर तुम्हारे ऊपर चढ़ी रहीं।
मैंने कहा, बिलकुल ग़लत, बल्कि मेरी ही आप पर होंगी। आप वो इस इतवार वाली बाज़ी भी लगाते होंगे, वो जिसमें आपका रुख़ कम था।
क्यों नहीं ज़रूर लगाऊँगा। मीर साहिब ने कहा।
ये कैसे। मैंने कहा। ख़ूब! ख़ानसाहब की बाज़ी अगर मैं देखने लगा और एक-आध चाल बता दी तो वो मात मुझे कैसे हुई।
अच्छा वो भी जाने दो ख़ैर तो फिर एक तो रही।
वो कौन सी?
वो जो शौकत साहिब के यहां हुई थी।
कौन सी, कौन सी मुझे याद नहीं।
हाँ हाँ भला ऐसी बातें तुम्हें क्यों याद रहने लगीं, ऐसे बचा हो ना हो।
मुझे तो याद नहीं मीर साहिब। मैंने कहा। हमेशा आपको मात देकर छोड़कर उठा हूँ या उतार कर, वर्ना आप पर चढ़ा कर।
अरे मियां एक रोज़ सबको मरना है। क्यों अपनी आक़िबत एक बाज़ी शतरंज के पीछे ख़राब करते हो। ज़रा ख़ुदा और रसूल से नहीं डरते। श्रम नहीं आती, मात पे मात खाते हो और भूल जाते हो।
मीर साहब। मैंने कहा। आप तो तीन जन्म लें तब भी मुझे मात देने का ख़ाब नहीं देख सकते। वो और बात है कि भूल चौक में एक-आध बाज़ी पड़ी मिल जाये।
अरे तुम बेचारे क्या खा के खेलोगे। घर-वाली तो क़ाबू में आती नहीं। मियां शतरंज खेलने चले हैं। अब दस बरस रुख़ उठा के ख़लाओं। क्या बताऊं कसम खा चुका हूँ वर्ना अभी बता देता।
मीर साहिब ये शतरंज है। मैंने तंज़न कहा। कभी ख़ूब में भी जीते हो?
क्या क़सम मेरी तुम तुड़वाओगे ?
अभी शतरंज सीखिए। ये कह कर मैंने पैर मार के इंजन स्टार्ट कर दिया और साईकल को आगे बढ़ाया।
तो फिर एक बाज़ी मीर रही। मीर साहिब हैंडल पकड़ कर बोले।
ग़लत बात। मैंने कहा।
लेकिन,मीर साहिब ने साईकल को रोक कर खड़ा कर दिया और बोले। मानना पड़ेगी।
मैंने कहा, नहीं मानता।
मीर साहिब फिर बोले। तुम्हें मानना पड़ेगी। नहीं तो फिर आ जाओ...अभी...कुसुम तू टूटे हीगी... ख़ैर लेकिन बाज़ी।
मैंने कुछ सोचा ये वाक़िया था कि अगर खेलों तो मीर साहिब भला क्या जीत सकते थे। लिहाज़ा मैंने मीर साहिब से तै कर लिया कि बस एक बाज़ी पर मुआमला तै है। मैं हार जाऊं या वो हारें तो हमेशा हारे कहलाएँगे। सौदा अच्छा था। लिहाज़ा मैंने साईकल मोड़ ली।
ख़ानसाहब के अख़लाक़ को देखिए। कुंडी खटखटाते ही खाना खाने से उठा कर आए और भई वल्लाह! कह कर फिर अन्दर गुस् गए और फिर जो आए तो लालटैन और खाने की सैनी हाथ में लिए बहुत कुछ माज़रत की। मगर बेकार, ख़ानसाहब ने ज़बरदस्ती खिलाया, और फिर शाबाश है ख़ानसाहब की बीवी को। अंडे जल्दी से तिल कर फ़ौरन तैयार किए। खाना वग़ैरा खा कर हम दोनों ने अपना मुआमला ख़ानसाहब के सामने पेश किया। क़िस्सा मुख़्तसर शतरंज जम गई। मुझे जाने की बड़ी फ़िक्र थी कि ख़ानम क्या कहेगी, मगर एक बाज़ी का खेलना ही किया।
शुरू ही से मेरी बाज़ी चढ़ गई और ताबड़तोड़ दो-चार तेज़ चालें निकाल के अपने रुख से मीर साहिब का वज़ीर अरुब में ले लिया। मीर साहिब ने ये कह कर मुहरे फिंक दिए कि ये इत्तिफ़ाक़ की बात है नज़र चूक गई। मैं उठकर चलने लगा कि देर हो रही है। ख़ानसाहब ने हाथ पकड़ा कि एक बाज़ी और सही। मीर साहिब चुप थे कि मैंने कहा। अब हम दोनों बराबर हो गए, अब कोई ज़रूरत नहीं।, ख़ानसाहब हंसकर बोले कि वाह ये तै हो जाना चाहिए कि कौन ज़बरदस्त खिलाड़ी है, बराबर रहना ठीक नहीं। उधर मीर साहिब ने कहा कि अब इस इतवार वाली बाज़ी को फिर शुमार कर लिया जाये, जिससे वो दस्तबरदार हो गए थे और कहने लगे हैं कि एक अब भी मुझसे जीते हैं। उधर ख़ानम का डर लगा हुआ, इधर मीर साहिब की ज़िद और ख़ानसाहब की कोशिश। नतीजा ये निकला कि बस एक बाज़ी और हो और तै हो जाये। क़िस्मत की ख़ूबी कि बाज़ी जमाई जो क़ायम उठी। फिर दूसरी बाज़ी बिछी उस को मैं बड़ी कामयाबी के साथ खेला और मैंने सोचा पैदल की मात करूँगा। पूरा मोहरा ज़ाइद था, मगर बदक़िस्मती से मीर साहिब का बादशाह ज़च हो गया और ये भी क़ायम उठी। मैं घबरा गया। बड़ी देर हो गई थी। जाड़ों के दिन थे। घड़ी पर नज़र की, साढ़े बारह बजे थे।
(4)
मैं घबरा कर उठा। बड़ी देर हो गई। अब किया हुआ? ख़ानम क्या कहे गे ख़ूब लड़ेगी। बड़ी गड़बड़ करेगी, ग़ालिबन सुबह तक लड़ती रहेगी। क्या-किया जाये ? कुछ देर खड़ा सोचता रहा। एक तदबीर समझ में आ गई, सीधा बज़्ज़ाज़ की दुकान पर पहुंचा। दूकान बंद थी। मकान मालूम था, रात को लाला को जा खटखटाया। लाला घबराए हुए बाहर निकले। मैंने मतलब बयान किया किवो उम्दा वाली साड़ी दे दो। अभी अभी चाहीए। लाला साहिब घबराए, कहा। ख़ैर तो है ? मगर मैंने कहा कि अभी दो। लाला ने बहाने के, मगर मैं कब मानने वाला था। लाला ने अपने दो आदमी ख़ाक-ए-लहद और मैंने वही उम्दा वाली साड़ी ले ली और जो पहले ले गया था वो वापिस कर दी। अब सीधा घर का रुख किया। जैसे ही फाटक में दाख़िल हुआ इंजन रोक दिया और पैदल गाड़ी को घसीटता ले चला। गाड़ी खड़ी कर करे और चुपके से दरवाज़े का रुख किया कि अपने ही कुत्ते ने टांग ली। उसे चिपका किया और बरामदे में पहुंच कर रास्ता तलाश किया। सब दरवाज़े बंद थे। ख़्याल आया कि ग़ुस्ल-ख़ाने की चटख़्नी ढीली है, मगर वहां भी नाकामी हुई। सेहन की दीवार पर चढ़ने की ठानी। नियम के नीचे भैंस बंधती थी। इस की नाँद पर खड़े हो कर एक पैर दरवाज़ा पर रखकर दूसरे हाथ का सहारा लेकर अंदर दाख़िल हुआ। धीरे धीरे सोने के कमरे की तरफ़ चला। चारों तरफ़ सन्नाटा था और मैं चुपके से कपड़े बदल कर कमरे में दाख़िल हो गया। और बड़ी फुर्ती से लिहाफ़ के अंदर घुस गया।
मैं समझा कि ख़ानम सोरही है, मगर वो जाग रही थी। वो झूट-मूट खांसी गोया ये ज़ाहिर करने के लिए किमैं जागती हूँ, अधर में खँकारा कि जाती हो तो क्या कर लूगी। मेरे पास बढ़िया वाली साड़ी है। एक और करवट उन्होंने ली और फिर बड़बड़ाएं, लेकिन कुछ समझ में ना आया। मैं भला कब दबने वाला था। मैंने कहा। क्यों, किया जागती हो?
वो बोलीं। तुम्हारी बलासे। तुम शतरंज खेलने जाओ, में कल जाती हूँ।
तुम भी अजीब औरत हो! मैंने डाँट कर कहा। बज़्ज़ाज़ के यहां गया वहां पर ख़ानसाहब मिल गए और ज़बरदस्ती उन्होंने वही पियाज़ी रंग वाली साड़ी दिलवा दी। बहुत कुछ मैंने कहा कि दाम नहीं मगर...
फिर? ख़ानम ने बात काट कर कहा। फिर वो साड़ी क्या हुई? उठकर वो लिहाफ़ में बैठ गईं।
हुई किया... वहां से साड़ी लेकर ख़ानसाहब के यहां गया, खाना उन्होंने खिलाया, दो-चार आदमी...
होगा। ख़ानम ने कहा।होंगे आदमी,फिर वो साड़ी वही पियाज़ी रंग वाली।
ये लू। ये कह कर मैंने बंडल लापरवाही से ख़ानम के लिहाफ़ पर मारा। लैम्प की रोशनी फ़ौरन तेज़ कर के उन्होंने तेज़ी से बंडल खोला। साड़ी को खोल कर जल्दी से देखा फिर मेरी तरफ़ बजाय ग़ुस्सा के उनकी आँखों से मुहब्बत आमेज़ शुक्रिया टपक रहा था। शतरंज पर एतराज़ तो कुजा नाम तक ना लिया। वो मारा अनाड़ी को। मैंने दिल में कहा।
बहुत दिन तक तो जनाब इसी साड़ी की बदौलत ख़ूब देर कर के आया। ख़ूब शतरंज होती रही जैसे बेशतर होती थी। फ़र्क़ था तो ये कि बजाय मेरे घर के अब ख़ानसाहब के घर पर जमती।
मगर रफ़्ता-रफ़्ता गैरहाज़िरी और शतरंज बाज़ी पर फिर भवें चढ़ने लगीं। बजाय मुलाइम के तुर्श-रूई और सख़्ती! दरअसल उस्तानी जी ख़ानम को भड़काती रहती थीं। आहिस्ता-आहिस्ता ख़ानम ने पेच कसना शुरू किया। मगर शतरंज किसी ना किसी तरह होती ही रही।
सारी ख़ुदाई एक तरफ़, ख़ानम का भाई एक तरफ़। वजह शायद उस की ये थी कि ख़ानम के भाई असली मअनी में भाई थे। यानी सूरत शक्ल हू-ब-हू एक, बिलकुल एक ज़र्रा भर भी फ़र्क़ ना था। सिर्फ घंटा भर बड़े थे। जुड़वां बहन भाईयों में बेहद मुहब्बत होती है। इसी वजह से ख़ानम की मुनासबत से मुझे भी ख़ानम के भाई बेहद अज़ीज़ हैं। पली मर्तबा बहन के यहां आए। बहन का नाम सुनते ही ये हाल हो गया कि नंगे पैर दौड़ कर भाई से लिपट गई, भाई ख़ुद बेताब था, सेना से लगा कर बहन की गर्दन को बोसा दिया। भाई बहन ने घंटों जम कर यकसूई के साथ इस तरह बातें कीं कि मुझे ख़्याल होने लगा कि दोनों दीवाने हैं। बहन अपने भाई को कितना चाहती थी। इस का अंदाज़ा इस से हो सकता है कि मैं ख़ानम को बाई से मुहब्बत देखकर रशक कर रहा था।
ये शायद भाई की मुहब्बत का ही तक़ाज़ा था कि ख़ानम ने मुझे कोने में ले जा कर बड़े प्यार से कहा कि देखो अब दो-चार रोज़ शतरंज ना खेलना।
मैंने ख़ानम के ख़ूबसूरत चेहरे को देखा। किस तरह उसने मुहब्बत से मुझसे कहा। शायद इसी तर्ज़-ओ-इंचाज़ ने बुत पुरुषती-ओ-शिर्क की बिना डाली है! मज़लूम ग़रीब क्या करे, ज़ालिम के कहने को कैसे रद्द करे ? ख़ानम की आँख के नीचे किसी चीज़ का ज़र्रा लगा हुआ था। मैंने उस को हटाने के लिए उंगली बढ़ाई। आँखें झपका कर ख़ानम ने ख़ुद रूमाल से इस को पाक किया, फिर हाथ पकड़ कर और भी ज़्यादा सफ़ाई से ज़ोर देकर शतरंज को मना किया।
क़बल उस के कि मैं कुछ कहूं। ख़ानम के भाई पुकारे। बिज्जू...
बेताब हो कर ख़ानम ने कहा।भया... और बे-तहाशा मुझसे तोड़ा कि भागी कि भया ख़ुद आ गए। क्या कर रही हो? ख़ानम के भाई ने अपने ख़ूबसूरत चेहरा को जेब जुंबिश देकर मुस्कुराते हुए कहा।
एक ठंडी सांस भर कर ख़ानम ने इस तरह कहा जैसे कोई दुख-भरी दास्तान का हवाला था। शतरंज को मना कर रही हूँ... शतरंज...
क्यों?दिन दिन-भर खेलते हैं। रात रात-भर खेलते हैं और वो कमबख़्त ख़ानसाहब हैं कि...
भाई ख़ुदा के वास्ते शतरंज छोड़ यए। आप बुरज नहीं खेलते...? बुरज खेला कीजिए। भया ने कहा। हाँ बुरज खेलें मगर ये शतरंज तो...
बड़ी ख़राब चीज़ है भाई। बिज्जू (बहन से अपनी मुख़ातब कर के कहा) तो उनकी शतरंज जला डाल।
रहा खटका ना चोरी का दुआ देता हूँ रहज़न को। मैंने कहा। भया मेरे पास... ख़ानम ज़रा चीख़ के बोली। वो कमबख़्त ख़ानसाहब ऐसे हैं कि उनके हाँ जा-जा कर खेलते हैं...
मुझसे मुख़ातब हो कर ख़ानम ने कहा। वाअदा कीजिए जब तक भया हैं बिलकुल ना खेलिएगा। चुनांचे पुख़्ता वाअदा कर लिया, पुख़्ता!
(5)
चलते वक़्त ख़ानम ने मुस्कुरा कर उंगली घुमा कर कहा था। उधर से जाएगा... इधर से... भया की तरफ़ मैंने मुस्कुरा के देखा। देखते हो तुम उनका पागलपन।
भया कुछ ना समझे कि इन बातों का ये मतलब है कि ख़ानसाहब की तरफ़ हो के मत जाना। मैं तो चल दिया। बहन अपने भाई को समझाती रही होगी कि इस का क्या मतलब है।
वो भई वाह! ग़ज़ब करते हो। ये कहते हुए ख़ानसाहब हाथ का सिगनल सामने किए हुए खड़े थे। ऐसा भी किया कि फट फट करते भागते जाते हो, सुनते ही नहीं।
मैंने गाड़ी तो रोक ली, मगर उतरा नहीं और वैसे ही किनारे हो कर कहा।काम से जा रहा हूँ, काम से।
ऐसा भी किया है ! ख़ानसाहब ने बाज़ू पकड़े हुए कहा। ज़रा बैठो।
अम्मां मिर्ज़ा साहिब... मिर्ज़ा जी... मीर साहिब बैठक में से बोले। वल्लाह देखो... तुम्हें वल्लाह। अम्मां सुनते नहीं... हाथ से बुला कर बोले। तुम्हें वल्लाह ज़रा आकर तमाशा तो देखो, कैसा लाला जी का वज़ीर घेरा है... अरे मियां ज़रा...
नहीं तुम्हें हम ना छोड़ेंगे। ये कह कर ख़ानसाहब ने घसीटा।
बख़ुदा मुझे बड़े ज़रूरी काम से जाना है। कल सुबह तड़के ही मोटर चाहिए... इतवार का दिन है। वैसे ही मोटर ख़ाली नहीं होता...
बैरिस्टर साहिब के यहां जा रहे होंगे... मोटर लेने... क्यों... किया करोगे ?
मैंने ख़ानसाहब को बताया कि ख़ानम और उनके भाई दोनों को कल दिन-भर मुख़्तलिफ़ मुक़ामात की सैर कराना है।
लाहौल वला क़ो ख़ानसाहब ने मुझे घसीटते हुए कहा। अम्मां हम समझे कोई काम होगा... वल्लाह तुमने तो ग़ज़ब ही कर दिया। ज़रा ग़ौर करो... भई अंदर चलो ज़रा...
मैं रुक नहीं सकता।
बख़ुदा ज़रा देर को... बस दो मिनट को... बस पान खाते जाओ।
ये कह कर ख़ानसाहब ने आख़िर घसीट ही लिया। बैठक में पहुंचा तो मीर साहिब मारे ख़ुशी के बेहाल थे।
वल्लाह... भई मिर्ज़ा क्या बताऊं तुम ना आए। देखो उनका वज़ीर यहां था... मैंने पैदल जो आगे बढ़ाया तो...
तो मुहरे आप क्यों जगह से हटाते हैं। खेलना हो तो खेलिए...
ये कह कर लाला साहिब ने मीर साहिब को चुप किया और इधर ख़ानसाहब ने अपना सिलसिला कलाम शुरू किया।
तो... हाँ वो आप क्या कह रहे थे... हाँ तो बात ये है मियां तुम अभी ना तजरबाकार हो। भला औरतों को मोटरों की सैर से किया ताल्लुक़? ख़ुदारा कुछ सीखो, जब ही तो है ना कि आपकी घर में आप शतरंज भी नहीं...
नक़्शा देखो... अरे रे! मेरे साहिब ने ज़ोर से पकड़ कर ख़ानसाहब को हिला डाला। ओ- अल्लाह! बादशाह को घेरा है... अपना वज़ीर पिटा कर...? मुख़ालिफ़ से मुख़ातब हो कर। मारईए वज़ीर, लाला साहिब... वज़ीर मारना पड़ेगा... मॉरो तो मात, ना मॉरो तो मात... ये लू मुहरे और बनू... बूँदें आ गईं... और बनू... हटाओ चर्ख़ा... ये लू।
मीर साहिब ने वाक़ई ख़ूब मात किया था, और मैं उठने लगा।
भई हम ना जाने देंगे... बग़ैर पान खाए हुए... अरे पान लाना। ख़ानसाहब ने ज़ोर से आवाज़ दी और फिर कहा। भई कोई बात भी है। औरतों को अव्वल तो सैर कराना ही मना है और फिर तुम देख रहे हो कि रोज़ बरोज़ तुम्हारे घर की हालत ख़राब होती जा रही है... आज शतरंज को मना करती हैं कल कह देंगी कचहरी ना जाया करो... छोड़ो इन बातों को, और सही तो एक बाज़ी मेरे साहिब की देख लू, चले जाना, जल्दी काहै की है।
मीर साहिब का खेल मैंने बहुत देखा है। मैंने कहा। मुझे जल्दी जाना है।
मेरा खेल? मीर साहिब बोले। मेरा खेल देखा है... ये कहो मज़ाक़ देखा है, तुम्हारे साथ खेलता थोड़ी हूँ। मज़ाक़ करता हूँ।
इस रोज़ ज़च हो गई... बाज़ी ज़च हो गई होगी। वर्ना पैदल होती और वो भी पैदल पसंद।बाज़ी तो आपकी ख़ूब चढ़ी हुई थी। ख़ानसाहब ने ताईद की।
जी हाँ। मीर साहिब बोले।,ढील देकर काटता हूँ...अनाड़ी को बढ़ा कर मारता हूँ और एक मेरी अब भी चढ़ी हुई है।
मर गए चिढ़ाने वाले। मैंने तुर्श-रूई से कहा। मीर साहिब ये शतरंज है।
फिर आ जाओ ना... तुम्हें आ जाओ...
भाई होगी... होगी... हटो तो... ख़ानसाहब ने शतरंज मेरी तरफ़ घसीटते हुए कहा।
होगी... बस एक बाज़ी होगी।
नहीं साहिब मुझे जाना है... ज़रूरी काम से। मैंने कहा।
हम आदमी भेज देंगे... देखा जाएगा। अम्मां बैठो... रखू... बस, एक।
मैंने घड़ी की तरफ़ देखा... जमाही लेकर कहा। अच्छा लाइए। एक बाज़ी मीर साहिब को मात दे ही दूं। आओ बस एक होगी।
एक बाज़ी मीर साहिब पर नज़र की चौक से हो गई और बड़ी जल्दी हो गई तो मैं उठने लगा। लेकिन ख़ां साहिब ने आसतीन पकड़ ली कि भई ये इत्तिफ़ाक़ है ये कुछ नहीं एक और खेल लू। मैंने कहा कि ख़ैर अच्छा खेले लिया हूँ। और बैठ गया।
मगर इत्तिफ़ाक़ तो देखिए कि ये इस से भी जल्दी चट-पुट हो गई। मीर साहिब का चेहरा फ़क़ हो गया। ग़ज़ब है दस मिनट में दो बाज़ीयां। ख़ानसाहब ने फिर पकड़ लिया और कहा कि ये कोई बात नहीं। ग़रज़ इसी तरह पाँच बाज़ीयां मीर साहिब पे हो गईं। अब मैं भला कैसे जा सकता था। क्यों ना साथ बाज़ीयां कर के मीर साहिब की लंगड़ी बाँधूँ और फिर दो बाज़ीयां और यानी पूरे नौकर का नौशेरवां कर दूं। ज़रूरी करूँगा, अभी तो बहुत वक़्त है।
मैंने कहा कि मैं जानता हूँ वर्ना लंगड़ी के लिए रस्सी मंगाए, मीर साहिब ग़ुस्सा मैं ख़ुद चारपाई की अदवान खोलने लगे। ख़ानसाहब ने फ़ौरन रस्सी मंगा दी और अब ज़ोर शोर से शतरंज शुरू हो गई।
एक बज गया और में अब गोया चौंक सा पड़ा। बला मुबालग़ा सैंकड़ों बाज़ीयां हुईं मगर मुझे लंगड़ी नसीब ना हुई।
मैं शतरंज छोड़ छाड़ कर सीधा घर भागा। फाटक पे जब साईकल रोकी है तो आधी रात गुज़र कर सवा बजे का अमल था।
या अल्लाह अब क्या करूँ? मैंने परेशान हो कर कहा। ख़ानम क्या कहेगी, लाहौल वला क़ो। मैंने भी किया हमाक़त की। भया क्या कहेगा? बड़ी लड़ाई होगी। शश-ओ-पंज में खड़ा सोचता रहा, मगर अब तो जो होना था वो हो चुका था।
इसी रोज़ की तरह भैंस की नाँद पर से दीवार पार की। उस्तानी जी के कमरे के सामने होता हुआ तेज़ी से निकल गया। कमरे में अंधेरा था। टटोल कर कपड़े उतारे स्लीपर बग़ल में दाबे बराबर वाले कमरे में दाख़िल हुआ जिसमें भया का पलंग था। बड़ी होशयारी से चारों हाथ पांव पर चलता हुआ गोया जानवर की तरह जाने की ठहराई। आधे कमरे में जो पहुंचा तो माथे में मेज़ का पाया लगा ऊपर से कोई चीज़ इस ज़ोर से गर्दन पर गिरी कि इस अंधेरे में आँखों तले अंधेरा आ गया। मैं दुबक कर बैठ गया। मैं जानता ही था कि भया ग़ाफ़िल सोने वाले है, ख़ानम से भी नंबर ले गया है। बग़ैर ये देखे हुए कि ये क्या गर्दन ज़ोनी चीज़ थी जो मेरी गर्दन पर गिरी, रेंगता हुआ कमरे से निकल गया। और उठकर अब ख़ानम के कमरे के दुराशय पर पहुंचा। ख़ुदा का शुक्र है कि अंधेरा घुप था। इसी तरह फिर चारों हाथ पांव के बल रेंगना शुरू किया, क्योंकि इस रोज़ ख़ानम उठ बैठी। चुपके चुपके पलंग तक पहुंचा और गड़ाप से अपने बिछौने में लिहाफ़ तान के दम-ब-ख़ुद पड़े पड़े सो गया।
सुबह देर से आँख खुली, उठा जो सही तो क्या देखता हूँ कि ख़ानम मा बिस्तरा ग़ायब। अरे! निकल कर दौड़ा तमाम मुआमला ही पलट गया। ना भया हैं ना ख़ानम, ना उस्तानी जी! नौकर ने कहा कि रात की बारह बजे की गाड़ी से सब गए। ग़ज़ब ही हो गया।
ना तो नाशते में जी लगा और ना किसी और तरफ़। सख़्त तबीयत परेशान थी। अंधेरा हो गया, जिन कमरों में भया और ख़ानम की मज़े-दार बातों और कुहुकों से चहल पहल थी उनमें सन्नाटा था। उधर घूमा, इधर गोमा, घर एक उजड़ा मुक़ाम था। थोड़ी ही देर बाद बादलों की तरह घूमने लगा। एक दम से ग़ुस्सा आया कि चलो ख़ानसाहब के यहां फिर जमेगी। कपड़े आधे पहने थे कि फिर तबीयत पे ख़ुलजान सवार हो गया।
ख़ुदा ख़ुदा कर के तीन बजे, अब ख़ानम घर पहुंचने वाली होगी, लिहाज़ा तार दिया। जल्दी आओ और फ़ौरन तार से जवाब दो। मगर जवाबनदारद। वक़्त गुज़र गया। दूसरा जवाबी तार दिया कि जल्दी आओ। जवाब आया। नहीं आते फिर जवाब दिया। अब शतरंज कभी नहीं खेलेंगे, जवाब रात को आया। ख़ूब खेलो।
रात के बारह बजे की गाड़ी से ख़ुद रवाना हो गया।
ख़ानम के घर पहुंचा। ख़ानम की माँ और बाप दोनों ख़ानम से बेहद ख़फ़ा थे। मगर ख़ानम जब चलने पर राज़ी हुई जब ख़ुदा और रसूल और ज़मीन-ओ-आसमान मआ क़ुरआन-ए-मजीद और ख़ुद ख़ानम के सर और भया और ख़ुद ख़ानम की मुहब्बत की क़सम खाई। वो भी बड़ी मुश्किल से वो दिन और आज का दिन, जनाब मेरी शतरंज ऐसी छोटी है कि बयान से बाहर, मगर सोच में रहता हूँ कि कौन सी तदबीर निकालूं। शायद कोई शातिर बता सके।
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