घोगा
स्टोरीलाइन
अफ़साना अस्पताल में भर्ती ऐसे मरीज़़ की दास्तान बयान करता है जो वहाँ से दवाइयाँ चोरी कर के अपनी बहन को दिया करता है। उसकी इन हरकतों का अस्पताल की सभी नर्सों को पता है, फिर भी वे किसी को कुछ नहीं बताती हैं। इन्हीं में से एक नर्स मिस जैकब भी है, जिसे कोई घास नहीं डालता है। मगर जिस दिन वह मरीज़़ अस्पताल से रुख़स्त हुआ, उसी दिन मिस जैकब भी ग़ायब हो गई। पर दो दिन बाद ही वह लौट आई। वह पहले की तरह से चुप-चुप थी। बस उसके कानों की सोने की बालियाँ ग़ायब हो गईं थीं।
मैं जब हस्पताल में दाख़िल हुआ तो छट्ठे रोज़ मेरी हालत बहुत ग़ैर हो गई। कई रोज़ तक बेहोश रहा। डाक्टर जवाब दे चुके थे लेकिन ख़ुदा ने अपना करम किया और मेरी तबीयत सँभलने लगी।
इस दौरान की मुझे अक्सर बातें याद नहीं। दिन में कई आदमी मिलने के लिए आते, लेकिन मुझे क़तअ’न मालूम नहीं, कौन आता था, कौन जाता था, मेरे बिस्तर-ए-मर्ग पर, जैसा कि मुझे अब मालूम हुआ, दोस्तों और अ’ज़ीज़ों का जमघटा लगा रहता, बा’ज़ रोते, बा’ज़ आहें भरते, मेरी ज़िंदगी के बीते हुए वाक़ियात दुहराते और अफ़सोस का इज़हार करते।
जब मेरी तबीयत किसी क़दर सँभली और मुझे ज़रा होश आया तो मैंने आहिस्ता आहिस्ता अपने गिर्द-ओ-पेश का मुताला करना शुरू किया। मैं जनरल वार्ड में था। दरवाज़े के अंदर दाख़िल होते ही दाएं हाथ का पहला बेड मेरा था। दीवार के साथ लोहे की अलमारी थी जिसमें ख़ास ख़ास दवाएं और आलात-ए-जर्राही थे, दीगर सामान भी था। मसलन गर्म पानी और बर्फ़ की रबड़ की थैलियां, थर्मामीटर, बिस्तर की चादरें, कम्बल और रूई वग़ैरा। इसके इलावा और बेशुमार चीज़ें थीं, जिनका मसरफ़ मेरी समझ में नहीं आता था।
कई नर्सें थीं, सुबह सात बजे से दो बजे दोपहर तक। दो बजे से शाम के सात बजे तक, चार चार नर्सों की टोली, इस वार्ड में काम करती। रात को सिर्फ़ एक नर्स ड्यूटी पर होती थी।
रात को मुझे नींद नहीं आती थी। यूं तो अक्सर आँखें बंद किए लेटा रहता लेकिन कभी कभी नीम मुंदी आँखों से इधर उधर देख लेता कि क्या हो रहा है?
उन दिनों जो नर्स रात की ड्यूटी पर होती थी, वो इस क़दर मुख़्तसर थी कि उसे कोई भी अपने बटुवे में डाल सकता था। गहरा साँवला रंग, हर अ’ज़ो एक ख़ुलासा, हर ख़द्द-ओ-ख़ाल तमहीद की फ़ौरी तम्मत, इंतहा दर्जे की ग़ैर-निस्वानी लड़की थी, मालूम नहीं, क़ुदरत ने उसके साथ इस क़िस्म का ग़ैर-शायराना सुलूक क्यों किया था कि वो शे’र थी न रुबाई, न क़ता... अलबत्ता उस्ताद इमाम दीन की तुकबंदी मालूम होती थी।
हर नर्स का कोई न कोई चाहने वाला मौजूद था, मगर उस ग़रीब का कोई भी नहीं था। मैं नर्सिंग के पेशे को बावजूद उसकी मौजूदा गिरावटों के एहतराम की नज़र से देखता हूँ। इसलिए मुझे उस नर्स से जिसका नाम मिस जैकब था, बड़ी हमदर्दी थी। उससे कोई मरीज़ दिलचस्पी नहीं लेता था।
एक शाम को जब वो आई और मेरे बिस्तर के पास से गुज़री तो मैंने अपनी नहीफ़ आवाज़ में उससे कहा, “अस्सलामु अलैकुम मिस जैकब।”
उसने मेरी आवाज़ सुन ली। फ़ौरन रुक कर उसने जवाब दिया, “सलामा अलैकुम।”
बस इसके बाद मेरा ये दस्तूर हो गया कि जब वो शाम को ड्यूटी पर आती तो वार्ड में दाख़िल होते ही सबसे पहले उसको मेरी अस्सलामु अलैकुम सुनाई देती। मुझे नींद आना शुरू हो गई थी, लेकिन सुबह साढे़ पाँच बजे जाग जाता। मिस जैकब रात भर की जागी हुई, मरीज़ों के टेम्प्रेचर लेने में मसरूफ़ होती। जब मेरे बिस्तर के पास आती तो मैं फिर उसे सलाम करता।
अस्सलामु अलैकुम का यह सिलसिला बड़ा दिलचस्प हो गया, वो इस लिहाज़ से चिड़ गई कि पहल मैं क्यों करता हूँ। चुनांचे उसने कई मर्तबा कोशिश की कि वो मुझसे मुसाबक़त ले जाये, मगर उसे नाकामी हुई, लेकिन एक रोज़ सुबह सवेरे जब कि ज़्यादा देर तक जागने के बाइ’स मेरी आँख लग गई थी। जब वो मेरा टेम्प्रेचर लेने के लिए आई, तो उसने अपनी महीन पतली आवाज़ को ज़ोरदार बुलाकर कहा, “सलामा अलैकुम।”
मैं चौंक पड़ा... आँखें खोलीं तो देखा कि मिस जैकब का मुख़्तसर वजूद मेरे सामने खड़ा मुस्कुरा रहा है। मैंने बड़ी फ़राख़दिली से अपनी शिकस्त तस्लीम की और उसके मुताबिक़ मुनासिब-ओ-मौज़ूं मुस्कुराहट अपने होंटों पर पैदा करके जवाब दिया, “वाअलैकुम अस्सलाम मिस जैकब, आज तो आप ने कमाल कर दिया।”
वो बेहद ख़ुश हुई, चुनांचे इस ख़ुशी में उसने मेरा दो मर्तबा टेम्प्रेचर लिया कि पहली दफ़ा उसने थर्मामीटर अच्छी तरह झटका नहीं था।
एक रात जबकि मुझे बिल्कुल नींद नहीं आ रही थी और मैं बार बार अपनी घड़ी देख रहा था कि दिन होने में कितनी देर है। बारह बजे के क़रीब मैंने अपनी धुंदली आँखों से देखा कि वार्ड के वस्त में जो मेज़ पड़ा है, उसके साथ कुर्सी पर मिस जैकब अपने तमाम इख़्तिसार के साथ बैठी है और एक मरीज़ जो मोटा था, उससे हमकलाम होने की कोशिश कर रहा है।
चूँकि ख़ामोशी थी, इसलिए मैं उसकी गुफ़्तगू सुन सकता था, वो नर्स से बड़े यतीमाना क़िस्म के इश्क़ का इज़हार करने की सई कर रहा था। पहले वो कुछ देर चपड़ासियों के मानिंद जिनका साहिब अपनी मस्नद पर मौजूद हो, खड़ा रहा। फिर वो उससे मुख़ातिब हुआ, “नर्स साहिबा, क्या इस वक़्त आप मुझे स्प्रिन की गोली दे सकती हैं?”
मिस जैकब ग़ालिबन रिपोर्ट लिखने में मसरूफ़ थी। उसने उस मोटे मरीज़ की तरफ़ देखा। क़लम मेज़ पर रख कर उठी और उस अलमारी में से जो मेरे बिस्तर के क़रीब थी, स्प्रिन की एक गोली निकाल कर उसके हवाले करदी।
रात के दो बज गए। मैं जाग रहा था लेकिन मेरी आँखें बंद थीं। आहट हुई तो मैंने करवट बदल कर देखा कि वही मोटा मरीज़ अलमारी खोल कर स्प्रिन की गोलियां निकाल रहा है, बिल्कुल इस तरह जैसे कोई चोरी कर रहा है। मैंने कोई मदाख़िलत न की।
मैंने दूसरे दिन नर्स नईमा हक़ से जो हर सुबह मेरा बदन छोटे छोटे तौलियों से कुनकुने पानी में साबुन के साथ साफ़ किया करती थी, और परले दर्जे की शरीर थी, पूछा कि, “उन्नीस नंबर के बेड का मरीज़ कौन है?”
उसका साँवला चेहरा सवाल बन गया, “आप उसके बारे में क्यों पूछ रहे हैं?”
मैंने उससे कहा, “तुम जानती हो, मैं अफ़साना निगार हूँ, मुझे हर शख़्स से दिलचस्पी है, ख़्वाह वो मरीज़ ही क्यों न हो?”
“उसमें क्या बात है?”
जो तुम में है... तुम शरीर हो, वो चोर है।”
नईमा हक़ को मेरी ये बात नागवार मालूम हुई, “शरारत और चोरी को आप एक ही बात समझते हैं।”
वो मेरे बालों भरे सीने पर तौलिया फेर रही थी। मैंने अपने कमज़ोर हाथ से उसके गाल पर हौले से चपत लगाई और कहा, “मेरा ये मतलब नहीं था... तुम मेरे सवाल का जवाब दो कि उन्नीस नंबर के बेड का जो मरीज़ है उसका क्या नाम है?”
नईमा ने जवाब दिया, “घोगा।”
“ये क्या नाम है?”
“बस है, हमने रख दिया है।”
मैं इससे कुछ और पूछने ही वाला था कि नईमा ने उबाली हुई सिरिंज पकड़ी और उसमें एक सी सी विटामिन बी कम्पलेक्स डाल कर सूई मेरे सूखे हुए बाज़ू में खुबो दी, मुझे सख़्त दर्द हुआ, इसलिए मैं घोगा को भूल गया। मगर इतने में अ’ज़रा आगई। ये नर्स नईमा से चार सी सी आगे थी। उन दोनों में जो गुफ़्तुगू हुई, उससे मुझे मालूम हुआ कि उन्नीस नंबर के बेड के मरीज़ का नाम इन दोनों ने मिल कर तजवीज़ किया है।
अ’ज़रा ने पहले मेरी ख़ैरियत पूछी, फिर कहा, “ख़ैरियत तो है, आप घोगे के मुतअ’ल्लिक़ पूछ रहे थे।”
मैंने दर्द के बाइ’स ज़रा तल्ख़ लहजे में कहा, “घोगा जाये जहन्नम में... और तुम भी उसके साथ...”
अ’ज़रा मुस्कुराई, “मैं तो उसके साथ जहन्नम की आख़िरी हद तक जाने के लिए तैयार हूँ।”
नईमा ने पूछा, “क्यों?”
अ’ज़रा ने जवाब दिया, “वो मुझसे मुहब्बत करता है, मैं उससे मुहब्बत करती हूँ।”
नईमा ने अ’ज़रा के चुटकी ली, और बड़े ज़ोर से कहा, “वो तो मुझसे मुहब्बत करता है, चलो आओ... अभी फ़ैसला करलें। घोगा से पूछ लो, अभी कल ही मुझसे कह रहा था कि वो अपने दो मकान मेरे नाम लिख देगा।”
अ’ज़रा ने मक्खी मार छड़ी नईमा के सर पर मारी, “वो दो मकान क्या, दो ईंटें भी तुम्हारे नाम नहीं लिखेगा... वो घोगा है, बहुत बड़ा घोगा। तुम उसको अभी तक नहीं पहचानी हो।”
इसके बाद मुझे चंद रोज़ में उस मोटे मरीज़ के मुतअ’ल्लिक़ अ’जीब-ओ-ग़रीब बातें मालूम हुईं जिस को नईमा और अ’ज़रा ने घोगे का नाम दे रखा था।
उसका नाम ग़ुलाम मुहम्मद था, मास्टर ग़ुलाम मुहम्मद। बी.ए, बी.टी। किसी मिडल स्कूल का हेड मास्टर, उसको दमे का मर्ज़ था, बड़ी शदीद क़िस्म का दमा था। जब उसे दौरा पड़ता तो सारा वार्ड उस के धौंकनी जैसे चलते हुए सांसों के ज़ीरो बम से घंटों गूंजता रहता। लेकिन इस हालत में भी वो नज़रबाज़ी से न टलता।
उसकी उम्र चालीस से कुछ ऊपर हो गई, मगर कुँवारा था। मेरी उससे मुलाक़ात हुई तो उसने मुझे बताया कि उसने शादी इसलिए नहीं की कि वो दमे का मरीज़ है। किसी लड़की की ज़िंदगी क्यों ख़राब करे।
उस की दो बहनें थीं जो उम्र में उससे कुछ छोटी थीं। ये भी कुंवारी थीं। उनके मुतअ’ल्लिक़ मुझे सिर्फ़ इतना ही मालूम हुआ कि बड़ी हेल्थ विज़िटर है और छोटी उस्तानी। ये दोनों बिला नाग़ा आतीं और घोगे के पास अपने बुर्क़ों समेत एक आध घंटा बैठ कर चली जातीं। वो इसके नाशते और दो वक़्त के खाने के लिए पराठे और सालन वग़ैरा लाया करती थीं।
उसको ऐसे टीके लग रहे थे जिनसे इशतहा बढ़ जाती है। लेकिन इस बात का ख़ास ख़याल रखना पड़ता है कि मरीज़ ज़्यादा न खाए ताकि उसका वज़न न बढ़े, मगर घोगा बला ख़ोर था। घर से जो आता चट कर जाता। फिर उसके साथ वाले बेड पर एक बंगाली नौजवान था जो अ’र्से से टायफ़ाईड में गिरफ़्तार था। उसको भूक नहीं लगती थी। घोगा उसका खाना भी अपने पेट में डाल लेता। मगर नईमा ने मुझे बताया कि हस्पताल से जो उसे मुफ़्त खाना मिलता है, उसके इलावा वो इधर उधर से और इकट्ठा करता है और अपनी बहनों के हवाले कर देता है।
एक रात जबकि मुझे नींद आने ही वाली थी, मैंने देखा कि घोगा दबे पांव चला आरहा है। रात की नर्स किसी दूसरे वार्ड की नर्स से बातें करने में मशग़ूल थी। घोगे ने अलमारी खोली और उसमें कई चीज़ें निकाल कर अपनी जेब में डाल लीं। मुझे उसकी ये हरकत बहुत बुरी मालूम हुई लेकिन मैं उस से कुछ न कह सका इसलिए कि मुझे कोई फ़ैसला करने में देर हो गई। इसका नतीजा ये हुआ कि वो हर रोज़ अलमारी में से चीज़ें चुराता और मैं उसे टोक न सकता।
मेरी समझ में नहीं आता था कि जब उसे दवाएं बराबर मिलती हैं तो वो और दवाईयां जो उसके मर्ज़ दमे का ईलाज नहीं थीं, क्यों इस तरीक़े से हासिल करता है?
नईमा हक़ से मैंने पूछा तो उसने मख़सूस अंदाज़ में गर्दन को एक ख़फ़ीफ़ सी जुंबिश दे कर और अपने साँवले होंटों पर उनसे ज़्यादा गहरे रंग की मुस्कुराहट पैदा करके कहा, “जनाब इतने बड़े राईटर बने फिरते हैं, आपको ये भी मालूम नहीं कि वो जितनी दवाईयां और इंजेक्शन चुराता है, अपनी बहन को जो कि हेल्थ विज़िटर है, दे देता है। उसको रोज़ाना बेड के लिए एक रुपया देना पड़ता है... बहुत बड़ा घोगा है, इसलिए वो इस ख़र्च की कसर यूं पूरी कर लेता है। बल्कि उसको कुछ प्रॉफिट ही होता है।”
नईमा का ये कहना दुरुस्त था, इसलिए कि मेरी बीवी के बयान से उसकी तसदीक़ हो गई। उसको घोगे से सख़्त नफ़रत थी। हस्पताल से जो कुछ मिलता तो वो अपनी बहन के सिपुर्द कर देता, खाना भी। एक और नर्स रफीक़ा थी। वो इस मरीज़ का नाम भी नहीं लेना चाहती थी।
शक्ल सूरत की मामूली मगर जवान थी। हर वक़्त अपने सफ़ेद फ़राक को पेटी के नीचे खींचती और फिर अपने सीने के उभारों को पसंदीदा निगाहों से देखती मगर किरदार के लिहाज़ से वो दूसरी नर्सों के मुक़ाबले में बहुत ज़्यादा मज़बूत थी, उसको घोगे से इसलिए नफ़रत थी कि वो उससे बे-मा’नी बातें करता था।
दरअसल वो हर नर्स से बे-मा’नी या बा-मा’नी बातें करने का आदी था। मैंने कई बार देखा कि पहले उसने किसी नर्स से रस्मी बातचीत की। उसके बाद बिस्तर पर से उठ कर उसके पीछे पीछे चलने लगा। कुछ इस भोंडे तौर पर कि वो ग़रीब उकता गई, और उसने जो दवा मांगी, अलमारी में से निकाल कर उसको दे दी कि छुटकारा मिले।
क़रीब क़रीब हर नर्स उससे मुतनफ़्फ़िर थी, मुझे ख़ुद वो बहुत नापसंद था, मेरे बिस्तर की तरफ़ रुख़ करता तो मैं चादर ओढ़ लेता कि उसको ये मालूम हो कि मैं सो रहा हूँ। उसका बातचीत का अंदाज़ मुझे खलता था, यही वजह है कि मैंने उसे कभी बर्दाश्त न किया।
मुझ से दो तीन मर्तबा उसने चंद रुपये बतौर क़र्ज़ लिये और वापस न दिए। मुझे उसका कोई ख़याल न था, लेकिन जब ये मालूम हुआ कि ये पंद्रह रुपये उसने मुझसे इसलिए हासिल किए थे कि उसको दस रूपये एक ख़ास दवा के लिए ख़र्च करना पड़े थे जो हस्पताल में नहीं थी तो मेरी तबीयत बहुत मुक़द्दर हुई और मैंने दिल ही दिल में उसको सैंकड़ों गालियां दीं। फिर तमाम डाक्टरों पर उसके ज़लील किरदार की वज़ाहत कर दी।
वो पहले मेरी बताई हुई बातें न माने। उन्होंने कभी ऐसा मरीज़ देखा था न सुना। मगर नर्सों से पूछ-गछ के बाद उनको हक़ीक़त मालूम हो गई और उन्होंने घोगे को रुख़सत कर देने का फ़ैसला कर लिया। मुझे इसका इ’ल्म था। चुनांचे मैंने महज़ अपना दिल ठंडा करने की ख़ातिर उसको अपने पास बुलाया और कहा, “सुना है आप कल-पर्सों जाने वाले हैं।”
घोगे ने अपने नीम गंजे सर पर हाथ फेरा और तअ’ज्जुब का इज़हार किया, “बड़े डाक्टर साहब ने तो मुझसे कहा था कि और छुट्टी ले लो... और मैं एक महीने की ले चुका हूँ।”
मेरा दिल डूबने सा लगा... एक महीना और... तीस दिन मज़ीद चोरियों के, नर्सों के पीछे चलने और हाथ मल मल के दवाएं मांगने के।
बड़े डाक्टर साहिब बहुत नर्म दिल थे। मैंने सोचा यक़ीनन घोगे ने अपने मख़सूस, लसोड़े की लेस ऐसे अंदाज़ में उनकी मिन्नत ख़ुशामद की होगी और उन्होंने अपना पीछा छुड़ाने के लिए उसको एक माह और हस्पताल में रहने की इजाज़त दे दी होगी। मगर उसी दिन घोगा इंतहाई अफ़सुरदगी के आलम में मेरे पास आया और कहने लगा, “मैं कल जा रहा हूँ।”
मुझे बड़ी ख़ुशी हुई, “मगर मास्टर साहब, आपने तो एक महीने की छुट्टी ली है, अभी अभी।”
उसने आह भर कर जवाब दिया, “डाक्टर साहब ने कहा है कि तुम्हारा काफ़ी ईलाज हो चुका है। अब तुम घर में आराम करो।”
मैंने कहा, “ये बेहतर है।”
लेकिन घोगे का चेहरा बता रहा था कि घर में उसे चुराने के लिए दवाएं नहीं मिलेंगी। नर्सें भी न होंगी, झक मारेगा वहां।
मैं सुबह चार साढ़े चार बजे के क़रीब सोया। दस बजे आँख खुली। नईमा हक़ मेरे पास खड़ी थी, दरअसल उसी ने मुझे जगाया था। मैंने उसकी तरफ़ देखा तो मुझे महसूस हुआ कि वो मुझे कोई ख़बर सुनाना चाहती है। मुझे ज़्यादा देर तक इंतिज़ार न करना पड़ा।
मक्खी मार छड़ी से मेरे बिस्तर पर चंद ग़ैर मरी मक्खियां मारने के बाद उसने मुझसे कहा, “घोगा गया।”
मैंने कहा, “हाँ सुना था कि वो जा रहा है।”
नईमा के साँवले होंटों पर सिकुड़ती हुई मुस्कुराहट नुमूदार हुई, “और वो भी गई...”
मैंने पूछा, “कौन?”
नईमा ने जवाब दिया, “वो... मिस जैकब, जिसके मुतअ’ल्लिक़ आप कहा करते थे कि इतनी मुख़्तसर है कि बटुवे में समा सकती है... लेकिन घोगे के पास तो कोई बटुवा नहीं था।”
मुझे बड़ी हैरत हुई कि मिस जैकब को घोगे में क्या नज़र आया या घोगे को मिस जैकब में क्या ख़ूबी दिखाई दी... लेकिन तीसरे रोज़ जैकब नाइट ड्यूटी पर थी। जब वो सुबह मेरे बिस्तर के क़रीब आई तो मैंने ज़ोर से अस्सलामु अलैकुम कहा। उसने चौंक कर धीमी आवाज़ में इस सलाम का जवाब दिया और मेरा टेम्प्रेचर लिए बग़ैर चली गई।
सात बजे जब दूसरी नर्सें आईं तो नईमा ने मेरा बदन पोंछने के लिए गर्म पानी तैयार करते हुए अपने साँवले होंटों पर कुनकुनी मुस्कुराहट पैदा करते हुए कहा, “घोगे के पास बटुवा नहीं था, इसलिए आपकी मिस जैकब वापस तशरीफ़ ले आई हैं।”
मैंने पूछा, “क्या हुआ?”
नईमा ने गर्म-गर्म पानी में तर क्या हुआ तौलिया मेरे बाज़ू पर रख दिया, “कुछ ख़ास तो नहीं हुआ... सिर्फ़ मिस जैकब के कानों की दो सोने की बालियां गुम हो गई हैं... शायद घोगे की बहन के कान बुच्चे होंगे।”
- पुस्तक : برقعے
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