परी
कश्मीरी गेट दिल्ली के एक फ़्लैट में अनवर की मुलाक़ात परवेज़ से हुई। वो क़तअ’न मुतअस्सिर न हुआ। परवेज़ निहायत ही बेजान चीज़ थी। अनवर ने जब उसकी तरफ़ देखा और उसको आदाब अ’र्ज़ कहा तो उसने सोचा, “ये क्या है, औरत है या मूली?”
परवेज़ इतनी सफ़ेद थी कि उसकी सफ़ेदी बेजान सी हो गई थी जिस तरह मूली ठंडी होती है, उस तरह उसका सफ़ेद रंग भी ठंडा था। कमर में हल्का सा ख़म था जैसा कि अक्सर मूलियों में होता है। अनवर ने जब उसको देखा तो उसने सब्ज़ दुपट्टा ओढ़ा हुआ था। ग़ालिबन यही वजह है कि उसको परवेज़ हूबहू मूली नज़र आई जिसके साथ सब्ज़ पत्ते लगे हों।
अनवर से हाथ मिला कर परवेज़ अपने नन्हे से कुत्ते को गोद में लेकर कुर्सी पर बैठ गई। उसके सुर्ख़ी लगे होंटों पर जो उसके सफ़ेद ठंडे चेहरे पर एक दहकता हुआ अंगारा सा लगते थे। ज़ईफ़ सी मुस्कुराहट पैदा हुई। कुत्ते के बालों में अपनी लंबी लंबी उंगलियों से कंघी करते हुए उसने दीवार के साथ लटकती हुई अनवर के दोस्त जमील की तस्वीर की तरफ़ देखते हुए कहा, “आपसे मिल कर बहुत ख़ुशी हुई।”
अनवर को उसके साथ मिल कर क़तअ’न ख़ुशी नहीं हुई थी। रंज भी नहीं हुआ। अगर वो सोचता तो यक़ीनी तौर पर अपने सही रद्द-ए-अ’मल को बयान न कर सका। दरअसल परवेज़ से मिल कर वो फ़ैसला नहीं कर सका था कि वो एक लड़की से मिला है या उसकी मुलाक़ात किसी लड़के से हुई है। या सर्दीयों में क्रिकेट के मैच देखते हुए उसने एक मूली ख़रीद ली है।
अनवर ने उसकी तरफ़ ग़ौर से देखा। उकी आँखें ख़ूबसूरत थीं। बस एक सिर्फ़ यही चीज़ थी जिसके मुतअ’ल्लिक़ तारीफ़ी अलफ़ाज़ में कुछ कहा ज सकता था। इन आँखों के इलावा परवेज़ के जिस्म के हर हिस्से पर नुक्ताचीनी हो सकती थी। बाहें बहुत पतली थीं, जो छोटी आस्तीनों वाली क़मीज़ में से बहुत ही यख़ आलूद अंदाज़ में बाहर को निकली हुई थीं। अगर उसके सर पर सब्ज़ दुपट्टा न होता तो अनवर ने यक़ीनन उसको फ्रिजडियर समझा होता जिसका रंग आम तौर पर उकता देने वाला सफ़ेद होता है।
उसके होंटों पर जीते जीते लहू जैसी सुर्ख़ी बहुत खुल रही थी। बर्फ़ के साथ आग का क्या जोड़? उस की छोटी आस्तीनों वाली क़मीज़ सफ़ेद कमबरक की थी। शलवार सफ़ेद लट्ठे की थी। सैंडल भी सफ़ेद थे। इस तमाम सफेदी पर उसका सब्ज़ डोपट्टा इतना इन्क़लाब अंगेज़ नहीं था। मगर उसके सुर्ख़ी लगे होंट एक अ’जीब सा हंगामाख़ेज़ तज़ाद बन कर उसके चेहरे के साथ चिमटे हुए थे।
सहन में जब वो चंद क़दम चल कर जमील की तरफ़ अपने नन्हे से कुत्ते को देखती हुई बढ़ी थी तो अनवर ने महसूस किया था कि ये औरत जो कि आ रही है औरत नहीं तरकारी है। उससे हाथ मिलाते वक़्त उसे ऐसा लगा था जैसे उसका हाथ किसी लाश ने पकड़ लिया है। मगर जब उसने बातें शुरू कीं तो वो ठंडी गिरफ़्त जो उसके हाथ के साथ चिपकी हुई थी कुछ गर्म होने लगी।
वो आवारा ख़याल थी। उसकी बातें सबकी सब बेजोड़ थीं। मौसम का ज़िक्र करते करते वो अपने दर्ज़ी की तरफ़ लुढ़क गई। दर्ज़ी की बात अभी अधूरी ही थी कि उसको अपने कुत्ते की छींकों का ख़याल आगया। कुत्ते ने छींका तो उसने अपने ख़ाविंद के मुतअ’ल्लिक़ ये कहना शुरू कर दिया, “वो बिल्कुल मेरा ख़याल नहीं रखते। देखिए अभी तक दफ़्तर से नहीं आए।”
अनवर के लिए परवेज़ और उसका ख़ाविंद दोनों बिल्कुल नए थे। वो परवेज़ को जानता था न उसके ख़ाविंद को। गुफ़्तुगू के दौरान में सिर्फ़ उसको इस क़दर मालूम हुआ कि परवेज़ का ख़ाविंद जमील का पड़ोसी है और एक्सपोर्ट-इम्पोर्ट का काम करता है। अलबत्ता उसने ये ज़रूर महसूस किया कि परवेज़ गुफ़्तगू के आग़ाज़ से गुफ़्तगू के इख़्तिताम तक उसको ऐसी नज़रों से देखती थी जिनमें जिंसी बुलावा था। अनवर को हैरत थी कि एक ठंडी मूली में ये बुलावा कैसे हो सकता है।
वो उठ कर जाने लगी तो उसने गोद से अपने नन्हे कुत्ते को उतारा और उससे कहा, “चलो, टीनी चलें।” फिर मिसेज़ जमील से जेगर वूल के बारे में कुछ पूछ कर अपने सुर्ख़ होंटों पर छिदरी सी मुस्कुराहट पैदा करके अनवर की तरफ़ हाथ बढ़ा कर उसने कहा, “मेरे हज्बेंड से मिल कर आपको बहुत ख़ुशी होगी।”
एक बार फिर अनवर ने फ्रिजडीटर में अपना हाथ धोया और सोचा, “मुझे इसके हज्बेंड से मिल कर क्या ख़ुशी होगी। जब कि ये ख़ुद उससे नाख़ुश है... उसने कहा था कि वो मेरा बिल्कुल ख़याल नहीं रखते।”
देर तक वो जमील और उसकी बीवी से बातें करता रहा कि शायद उनमें से कोई परवेज़ के मुतअ’ल्लिक़ बात करेगा और उसको उस औरत के बारे में कुछ मा’लूमात हासिल होंगी जिसको उस ने ठंडी मूली समझा था, मगर कोई ऐसी बात न हुई, जो परवेज़ की शख़्सियत पर रोशनी डालती। जेगर वूल का ज़िक्र आया तो मिसेज़ जमील ने सिर्फ़ इतना कहा, “परी का टेस्ट रंगों के बारे में बहुत अच्छा है।”
“परवेज़... परी।” अनवर ने सोचा, “कितनी ग़लत तख़फ़ीफ़ है ये ख़स्ता सी रीढ़ की हड्डी वाली औरत जिसका रंग उकता देने वाली हद तक सफ़ेद है... उसको परी कहा जाये, क्या ये कोह-ए-क़ाफ़ की तौहीन नहीं?”
जब परवेज़ के मुतअ’ल्लिक़ और कोई बात न हुई तो अनवर ने जमील से रुख़सत चाही, “अच्छा भाई मैं चलता हूँ।” फिर वो मिसेज़ जमील से मुख़ातिब हुआ, “भाभी, आपकी परी बड़ी दिलचस्प चीज़ है।”
मिसेज़ जमील मुस्कुराई, “क्यों?”
अनवर ने यूंही कह दिया था। मिसेज़ जमील ने क्यों कहा तो उसको कोई जवाब न सूझा। थोड़े से तवक्कुफ़ के बाद वो मुस्कुराया, “क्या आपके नज़दीक वो दिलचस्प नहीं? कौन हैं ये मोहतरमा?”
मिसेज़ जमील ने कोई जवाब न दिया। जमील ने उसकी तरफ़ देखा तो उसने नज़रें झुका लीं। जमील मुस्कुरा कर उठा और अनवर के कांधे को दबा कर उसने गटक कर कहा, “चलो तुम्हें बताता हूँ कौन हैं ये मोहतरमा... बड़ी वाजिब-ए-ता’ज़ीम हस्ती हैं।”
“आपको तो बस कोई मौक़ा मिलना चाहिए।” मिसेज़ जमील के लहजे में झुंझलाहट थी।
जमील हंसा, “क्या मैं ग़लत कहता हूँ कि परी वाजिब-ए-ता’ज़ीम हस्ती नहीं?”
“मैं नहीं जानती।” ये कह कर मिसेज़ जमील उठी और अंदर कमरे में चली गई। जमील ने फिर अनवर का कंधा दबाया और उससे मुस्कुराते हुए कहा, “बैठ जाओ... तुम्हारी भाभी ने हमें परी के मुतअ’ल्लिक़ बातें करने का मौक़ा दे दिया है।”
अनवर बैठ गया। जमील ने सिगरेट सुलगाया और उससे पूछा, “तुम्हें परी में क्या दिलचस्पी नज़र आई?”
अनवर ने कुछ देर अपने दिमाग़ को कुरेदा, “दिलचस्पी? मैं कुछ नहीं कह सकता, मेरा ख़यालहै उस का ग़ैर दिलचस्प होना ही शायद दिलचस्पी का बाइ’स है।”
जमील ने चुटकी बजा कर सिगरेट की राख झाड़ी, “लफ़्ज़ों का उलट फेर नहीं चलेगा... साफ़ साफ़ बताओ, तुम्हें उसमें क्या दिलचस्पी नज़र आई?”
अनवर को ये जिरह पसंद न आई, “मुझे जो कुछ कहना था, मैंने कह दिया है।”
जमील हंसा, फिर एक दम संजीदा हो कर उसने सामने कमरे की तरफ़ देखा और दबी ज़बान में कहा, “बड़ी ख़तरनाक औरत है अनवर।”
अनवर ने हैरत से पूछा, “क्या मतलब?”
“मतलब ये कि मोहतरमा दो आदमियों का ख़ून करा चुकी हैं।”
अनवर की आँखों के सामने मअ’न परवेज़ का सफ़ेद रंग आ गया। मुस्कुरा कर कहने लगा, “इसके बावजूद लहू की एक छींट भी नहीं इसमें?”
लेकिन फ़ौरन ही उसको मुआ’मले की संगीनी का ख़याल आया तो उसने संजीदा हो कर जमील से पूछा, “क्या कहा तुमने? दो आदमियों का ख़ून?”
अनवर ने चुटकी बजा कर सिगरेट की राख झाड़ी, “जी हाँ... एक कैप्टन था। दूसरा सर बहाउद्दीन का लड़का।”
“कौन सर बहाउद्दीन?”
“अमां वही... जो एग्रीकल्चरल डिपार्टमेंट में ख़ुदा मालूम क्या थे?”
अनवर को कुछ पता न चला। बहाउद्दीन को छोड़कर उसने जमील से पूछा,“कैसे ख़ून हुआ उन दोनों का?”
“जैसे हुआ करता है। कॉलिज में कैप्टन साहिब से परी का याराना था। शादी करके जब वो बंबई गई तो वहां सर बहाउद्दीन के लड़के से राह-ओ-रस्म पैदा हो गई। इत्तफ़ाक़ से ट्रेनिंग के सिलसिले में कप्तान साहिब वहां पहुंचे। पुराने तअ’ल्लुक़ात क़ायम करना चाहे तो सर बहाउद्दीन के लड़के आड़े आए। एक पार्टी में दोनों की चख़ हुई। दूसरे रोज़ कप्तान साहब ने पिस्तौल दाग़ दिया। रक़ीब वहीं ढेर हो गए। परी को बहुत अफ़सोस हुआ।
सर बहाउद्दीन के लड़के की मौत के ग़म में उसने कई दिन सोग में काटे। जब कप्तान साहब को फांसी हुई तो लोग कहते हैं, उसकी आँखों ने हज़ारहा आँसू बहाए... इसके बाद एक नौजवान पारसी उसके दाम-ए-मोहब्बत में गिरफ़्तार हो गया। वस्ल की रात जब उसे पता चला कि उसकी महबूबा शादीशुदा है तो उसने अपने बाप की डिस्पेंसरी से ज़हर लेकर रखा लिया”
अनवर ने कहा, “ये तो तीन ख़ून हुए।”
जमील मुस्कुराया, “नौजवान पारसी ख़ुशक़िस्मत था, उसके बाप ने उसे मौत के मुँह से बचा लिया।”
“बड़ी अ’जीब-ओ-ग़रीब औरत है।” ये कह कर अनवर सोचने लगा कि परवेज़ जिसमें कशिश नाम को भी नहीं कैसे इन हंगामों का बाइ’स हुई। कप्तान ने उसमें क्या देखा। सर बहाउद्दीन के लड़के को इस में क्या चीज़ नज़र आई? और उस नौजवान पारसी ने इस ढीली ढाली औरत में क्या दिलकशी देखी?
अनवर ने परवेज़ को तसव्वुर में नंगा करके देखा। ढीली ढाली हड्डियों का एक ढांचा जिस पर सफ़ेद सफ़ेद गोश्त मंढा हुआ था। ख़ून के बग़ैर कूल्हे दुबले-पतले लड़के के कूल्हों जैसे थे। रीढ़ की हड्डी में कोई दम नहीं था। ऐसा मालूम था कि अगर उसके सर पर हाथ रख कर किसी ने दबाया तो वो दो नीम हो जाएगी। बाल कटे हुए थे जो हाईड्रोजन पराक्साइड के इस्तेमाल से अपना क़ुदरती रंग खो चुके थे... क्या था उसके सरापा में? एक फ़क़त उसकी आँखें कुछ ग़नीमत थीं।
अनवर ने सोचा, “सिर्फ़ आँखें कौन चाटता फिरता है, कोई बात होनी चाहिए... लेकिन हैरत है कि इस ठंडी मूली ने इतने बड़े हंगामे पैदा किए। मुझसे तो जब इसने हाथ मिलाया था तो मैंने ख़याल किया था कि मुझे बदबूदार डकारें आनी शुरू हो जाएंगी... कुछ समझ में नहीं आता, लेकिन कुछ न कुछ है ज़रूर इस परी में।”
जमील ने उसे बताया कि रावलपिंडी में परवेज़ के कॉलिज के रोमांस मशहूर हैं। उस ज़माने में इसके बयक वक़्त तीन-तीन, चार-चार लड़कों से रुमान चलते थे। छः लड़के इसी के बाइ’स कॉलिज बदर हुए। एक को बीमार होकर सेनेटोरियम में दाख़िल होना पड़ा।
अनवर की हैरत बढ़ गई। उसने जमील से पूछा, “कौन है इसका ख़ाविंद? और ख़ुद किसकी लड़की है?”
जमील ने जवाब दिया, “बहुत बड़े बाप की... किसी ज़माने में अहमदाबाद हाईकोर्ट के चीफ़ जस्टिस थे, आज-कल रिटायर्ड हैं... ख़ाविंद इसका हिंदू है।”
“हिंदू?”
“नहीं, अब ईसाई हो चुका है?”
“क्या करता है?”
“मेरा ख़याल है शुरू में इसका ज़िक्र आया था कि एक्सपोर्ट-इम्पोर्ट का काम करता है।”
अनवर को याद आगया, “हाँ, हाँ कुछ ऐसी बात हुई थी... शायद भाबी जान ने बताया था?”
जमील और अनवर थोड़ी देर ख़ामोश रहे। जमील ने सिगरेट सुलगाया और इधर उधर देख कर कि उसकी बीवी न सुन रही हो। अनवर का कांधा दबा कर सरगोशी में कहा, “तुम परी से ज़रूर मिलो... देखना क्या होता है?”
अनवर ने ख़ुद से पूछा मगर जमील से कहा, “क्या होगा?”
जमील के होंटों में एक शरीर सी मुस्कुराहट पैदा हुई, “वही होगा, जो मंज़ूर-ए-ख़ुदा होगा।” फिर उस ने आवाज़ दबा कर कहा, “कल शाम चाय वहीं पियेंगे। उसका ख़ाविंद रात को आता है।”
प्रोग्राम तय हो गया। परवेज़ के मुतअ’ल्लिक़ इतनी बातें सुन कर उसके दिमाग़ में खुदबुद सी हो रही है। वो बार बार सोचता था, “मुलाक़ात पर क्या होगा... कोई ग़ैरमामूली चीज़ वक़ूअ पज़ीर होगी... हो सकता है जमील ने मज़ाक़ किया हो... हो सकता है, जमील ने जो कुछ भी उसके बारे में कहा सर-ता-पा ग़लत हो। लेकिन फिर उसे ख़याल आता, जमील को ख़्वाह मख़्वाह झूट बोलने की क्या ज़रूरत थी।”
दूसरे रोज़ शाम को जमील और वो दोनों परी के हाँ आगए। वो ग़ुस्लख़ाने में नहा रही थी। नौकर ने उनको बड़े कमरे में बिठा दिया। अनवर वोग की वर्क़ गरदानी करने लगा। दफ़अ’तन जमील उठा, “मैं सिगरेट भूल आया... अभी आता हूँ।” ये कह कर वह चला गया।
अनवर ‘वोग’ में छपी हुई एक तस्वीर देख रहा था कि उसे कमरे में किसी और की मौजूदगी का एहसास हुआ। नज़रें उठा कर उसने देखा तो परवेज़ थी। अनवर सिटपिटा गया। उसने सफ़ेद पाजामा पहना हुआ था जो जा बजा गीला था। मलमल का कुर्ता उसके पानी से तर बदन के साथ चिपका हुआ था। मुस्कुरा कर उसने अनवर से कहा, “आप बड़े इन्हिमाक से तस्वीरें देख रहे थे।”
पर्चा छोड़कर अनवर उठा। उसने कुछ कहना चाहा, मगर परवेज़ उसके पास आगई। पर्चा उठा कर उस ने एक हाथ से अपने कटे हुए बालों को एक तरफ़ किया और मुस्कुरा कर कहा, “मुझे मालूम है कि आप आए हैं तो मैं ऐसे ही चली आई।” ये कह कर उसने अपने मलमल के गीले कुरते को देखा। जिसमें दो काले धब्बे साफ़ दिखाई दे रहे थे। फिर उसने अनवर का हाथ पकड़ा, “चलिए, अंदर चलें।”
अनवर मिनमिनाया, “जमील... जमील भी साथ था मेरे... सिगरेट भूल आया था, लेने गया है।”
परवेज़ ने अनवर को खींचा, “वो आजाएगा... चलिए।”
अनवर को जाना ही पड़ा। जिस कमरे में वो दाख़िल हुए उसमें कोई कुर्सी नहीं थी। दो स्प्रिंगों वाले सागवानी पलंग थे। एक ड्रेसिंग टेबल थी। उसके साथ एक स्टूल पड़ा था। परी उस स्टूल पर बैठ गई और एक पलंग की तरफ़ इशारा कर के अनवर से कहा, “बैठिए।”
अनवर हिचकिचाते हुए बैठ गया। उसने चाहा कि जमील आजाए क्योंकि उसे बेहद उलझन होरही थी। परवेज़ के गीले कुरते के साथ चिमटे हुए दो काले धब्बे उसको दो अंधी आँखें लगते थे जो उसके सीने को घूर घूर कर देख रही हैं।
अनवर ने उठ कर जाना चाहा, “मेरा ख़याल है, मैं जमील को बुला लाऊं।” मगर वो उसके साथ पलंग पर बैठ गई।
ड्रेसिंग टेबल पर रखे हुए फ़्रेम की तरफ़ इशारा करके उसने अनवर से कहा, “ये मेरे हस्बेंड हैं...बहुत ज़ालिम आदमी है जमील साहब।”
अनवर मिनमिनाया, “आप मज़ाक़ करती हैं।”
“जी नहीं, मेरे और इसके मिज़ाज में ज़मीन-ओ-आसमान का फ़र्क़ है। असल में शादी से पहले मुझे देख लेना चाहिए था कि वो समझता है कि नहीं... जिस चीज़ का मुझे शौक़ हो उसे बिल्कुल पसंद नहीं होती। आप बताईए...” ये कहती हुई ओट लगा कर पलंग पर औंधी लेट गई, “इस तरह लेटने में क्या हर्ज है।”
अनवर एक कोने में सरक गया। उसे कोई जवाब न सूझा। उसने सिर्फ़ इतना सोचा, “इसका दरमियानी हिस्सा कितना ग़ैर निस्वानी है।”
परवेज़ औंधी लेटी रही, “आपने जवाब नहीं दिया मुझे... बताईए इस तरह लेटने में क्या हर्ज है?”
अनवर का हलक़ सूखने लगा, “कोई हर्ज नहीं।”
“लेकिन उसको नापसंद है... ख़ुदा मालूम क्यों?” ये कह कर परवेज़ ने गर्दन टेढ़ी करके अनवर की तरफ़ देखा। “आदमी इस तरह लेटते तो मालूम हुआ है तैर रहा है। मैं लेटूं तो ऊपर बड़ा तकिया रख लिया करती हूँ। ज़रा उठाईए न वो तकिया और मेरे ऊपर रख दीजिए।”
अनवर का हलक़ बिल्कुल ख़ुश्क हो गया। उसकी समझ में नहीं आया क्या करे। उठने लगा तो परवेज़ ने अपनी पतली टांग से उसको रोका, “बैठ जाईए ना।”
“जी मैं जमील...”
वो मुस्कुराई, “जमील बेवक़ूफ़ है, एक दिन मुझसे बातें कर रहा था। मैंने उससे कहा, अपने ख़ाविंद के सिवा मेरा और किसी से वो तअ’ल्लुक़ नहीं रहा जो एक मर्द और औरत में होता है तो वो हँसने लगा, मुझे तो वैसे भी उसके तअ’ल्लुक़ से नफ़रत है... ज़रा तकिया उठा कर रख दीजिए न मेरे ऊपर!”
अनवर इसी बहाने उठा। तकिया दूसरे कोने में पड़ा था। उसे उठाया और परवेज़ के दरमियानी हिस्सा पर जोकि बहुत ही ग़ैर निस्वानी था रख दिया।
परवेज़ मुस्कुराई, “शुक्रिया, बैठिए अब बातें करें।”
“जी नहीं... आप तकिए से बातें करें, मैं चला।” ये कह कर अनवर पसीना पोंछता बाहर निकल गया।
- पुस्तक : بادشاہت کاخاتمہ
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.