ब्लाउज़
स्टोरीलाइन
युवावस्था के आरम्भ में शरीर में होने वाले परिवर्तनों का श्रेष्ठ वर्णन है। मोमिन एक ऐसे घर में मुलाज़िम है जिसमें शकीला और रज़िया दो खुले विचारों वाली बहनें रहती हैं। शकीला मोमिन के सामने ही ब्लाउज़ नापती, सिलती और पहन कर देखती है जिसके नतीजे में मोमिन के दिमाग़ में विभिन्न प्रकार के विचारों का हुजूम रहने लगता है और फिर एक दिन वो नए आनंद से परिचित होता है।
कुछ दिनों से मोमिन बहुत बेक़रार था। उसको ऐसा महसूस होता था कि उसका वजूद कच्चा फोड़ा सा बन गया था। काम करते वक़्त, बातें करते हुए हत्ता कि सोचने पर भी उसे एक अजीब क़िस्म का दर्द महसूस होता था। ऐसा दर्द जिसको वो बयान भी करना चाहता तो न कर सकता।
बा'ज़ औक़ात बैठे बैठे वो एक दम चौंक पड़ता। धुन्दले धुन्दले ख़यालात जो आम हालतों में बेआवाज़ बुलबुलों की तरह पैदा हो कर मिट जाया करते हैं। मोमिन के दिमाग़ में बड़े शोर के साथ पैदा होते और शोर ही के साथ फटते थे। इसके इलावा उसके दिल-ओ-दिमाग़ के नर्म-ओ-नाज़ुक पर्दों पर हर वक़्त जैसे ख़ारदार पांव वाली च्यूंटियां सी रेंगती थीं।
एक अजीब क़िस्म का खिंचाव उसके आज़ा में पैदा हो गया था जिसके बाइस उसे बहुत तकलीफ़ होती थी। इस तकलीफ़ की शिद्दत जब बढ़ जाती तो उसके जी में आता कि अपने आपको एक बड़े हावन में डाल दे और किसी से कहे, “मुझे कूटना शुरू कर दो।”
बावर्चीख़ाने में गर्म मसाला कूटते वक़्त जब लोहे से लोहा टकराता और धमकों से छत में एक गूंज सी दौड़ जाती तो मोमिन के नंगे पैरों को ये लरज़िश बहुत भली मालूम होती थी। पैरों के ज़रिये से ये लरज़िश उसकी तनी हुई पिंडलियों और रानों में दौड़ती हुई उसके दिल तक पहुंच जाती, जो तेज़ हवा में रखे हुए दिये की तरह काँपना शुरू कर देता।
मोमिन की उम्र पंद्रह बरस की थी। शायद सोलहवां भी लगा हो। उसे अपनी उम्र के मुतअल्लिक़ सही अंदाज़ा नहीं था। वो एक सेहत मंद और तंदुरुस्त लड़का था जिसका लड़कपन तेज़ क़दमी से जवानी के मैदान की तरफ़ भाग रहा था। इसी दौड़ ने जिससे मोमिन बिल्कुल ग़ाफ़िल था। उसके लहू के हर क़तरे में सनसनी पैदा कर दी थी। वो इसका मतलब समझने की कोशिश करता था मगर नाकाम रहता था।
उसके जिस्म में कई तबदीलियां रुनुमा हो रही थीं। गर्दन जो पहले पतली थी, अब मोटी हो गई थी। बांहों के पट्ठों में एँठन सी पैदा हो गई थी। कंठ निकल रहा था। सीने पर गोश्त की तह मोटी हो गई थी और अब कुछ दिनों से पिस्तानों में गोलियां सी पड़ गई थीं, जगह उभर आई थी, जैसे किसी ने एक एक बरनटा अंदर दाख़िल कर दिया है। उन उभारों को हाथ लगाने से मोमिन को बहुत दर्द महसूस होता था।
कभी कभी काम करने के दौरान में ग़ैर इरादी तौर पर जब उसका हाथ उन गोलियों से छू जाता तो वो तड़प उठता। क़मीज़ के मोटे और खुरदरे कपड़े से भी उसको तकलीफ़देह सरसराहट महसूस होती थी।
ग़ुसलख़ाने में नहाते वक़्त या बावर्चीख़ाने में जब कोई और मौजूद न हो मोमिन अपनी क़मीज़ के बटन खोल कर उन गोलियों को ग़ौर से देखता था। हाथों से मसलता था। दर्द होता, टीसें उठतीं। उसका सारा जिस्म फलों से लदे हुए पेड़ की तरह जिसे ज़ोर से हिलाया गया हो काँप काँप जाता। मगर इसके बावजूद वो इस दर्द पैदा करने वाले खेल में मशग़ूल रहता था।
कभी कभी ज़्यादा दबाने पर ये गोलियां पिचक जातीं और उनके मुँह से लेसदार लुआब निकल आता। उसको देख कर उसका चेहरा कान की लवों तक सुर्ख़ हो जाता। वो समझता कि उससे कोई गुनाह सरज़द हो गया है।
गुनाह और सवाब के मुतअल्लिक़ मोमिन का इल्म बहुत महदूद था। हर वो फ़ेअल जो एक इंसान दूसरे इंसानों के सामने न कर सकता हो, उसके ख़याल के मुताबिक़ गुनाह था। चुनांचे जब शर्म के मारे उसका चेहरा कान की लौ तक सुर्ख़ हो जाता तो वो झट से अपनी क़मीज़ के बटन बंद कर लेता कि आइन्दा ऐसी फ़ुज़ूल हरकत कभी नहीं करेगा। लेकिन इस अह्द के बावजूद दूसरे तीसरे रोज़ तख़लिए में वो फिर इस खेल में मशग़ूल हो जाता।
मोमिन से घर वाले सब ख़ुश थे। वो बड़ा मेहनती लड़का था। हर काम वक़्त पर कर देता था और किसी शिकायत का मौक़ा न देता था। डिप्टी साहब के यहां उसे काम करते हुए सिर्फ़ तीन महीने हुए थे लेकिन इस क़लील अर्से में उसने घर के हर फ़र्द को अपनी मेहनतकश तबीयत से मुतास्सिर कर लिया था।
छः रुपये महीने पर वो नौकर हुआ था। मगर दूसरे महीने ही उसकी तनख़्वाह में दो रुपये बढ़ा दिए गए थे। वो इस घर में बहुत ख़ुश था। इसलिए कि उसकी यहां क़दर की जाती थी। मगर अब कुछ दिनों से वो बेक़रार था। एक अजीब क़िस्म की आवारगी उसके दिमाग़ में पैदा हो गई थी। उसका जी चाहता था कि सारा दिन बेमतलब बाज़ारों में घूमता फिरे या किसी सुनसान मुक़ाम पर जा कर लेटा रहे।
अब काम में उसका जी नहीं लगता था लेकिन इस बेदिली के होते हुए भी वो काहिली नहीं बरतता था। चुनांचे यही वजह है कि घर में कोई भी उसके अंदरूनी इंतिशार से वाक़िफ़ नहीं था। रज़िया थी सो वो दिन भर बाजा बजाने, नई नई फ़िल्मी तरज़ें सीखने और रिसाले पढ़ने में मसरूफ़ रहती थी।
उसने कभी मोमिन की निगरानी ही नहीं की थी। शकीला अलबत्ता मोमिन से इधर-उधर के काम लेती थी और कभी-कभी उसे डाँटती भी थी। मगर अब कुछ दिनों से वो भी चंद ब्लाउज़ों के नमूने उतारने में बेतरह मशग़ूल थी। ये ब्लाउज़ उसकी एक सहेली के थे, जिसे नई नई तराशों के कपड़े पहनने का बहुत शौक़ था।
शकीला उससे आठ ब्लाउज़ मांग कर लाई थी और काग़ज़ों पर उनके नमूने उतार रही थी। चुनांचे उसने भी कुछ दिनों से मोमिन की तरफ़ ध्यान नहीं दिया था।
डिप्टी साहब की बीवी सख़्तगीर औरत नहीं थी। घर में दो नौकर थे यानी मोमिन के इलावा एक बुढ़िया भी थी। ज़्यादातर बावर्चीख़ाने का काम यही करती थी। मोमिन कभी कभी उसका हाथ बटा दिया करता था। डिप्टी साहब की बीवी ने मुम्किन है मोमिन की मुस्तइद्दी में कोई कमी देखी हो। मगर उसने मोमिन से इसका ज़िक्र नहीं किया था और वो इन्क़िलाब जिसमें से मोमिन का दिल-ओ-दिमाग़ और जिस्म गुज़र रहा था। उससे तो डिप्टी साहब की बीवी बिल्कुल ग़ाफ़िल थी।
चूँकि उसका कोई लड़का नहीं था इसलिए वो, मोमिन की ज़ेहनी और जिस्मानी तबदीलियों को नहीं समझ सकती थी और फिर मोमिन नौकर था... नौकरों के मुतअल्लिक़ कौन ग़ौर-ओ-फ़िक्र करता है? बचपन से लेकर बुढ़ापे तक वो तमाम मंज़िलें पैदल तय कर जाते हैं और आस-पास के आदमियों को ख़बर तक नहीं होती।
मोमिन का भी बिल्कुल यही हाल था। वो कुछ दिनों से मोड़ मुड़ता ज़िंदगी के एक ऐसे रास्ते पर आ निकला था जो ज़्यादा लंबा तो नहीं था, मगर बेहद पुरख़तर था। उस रास्ते पर उसके क़दम कभी तेज़ तेज़ उठते थे। कभी हौले-हौले।
वो दरअसल जानता नहीं था कि ऐसे रास्तों पर किस तरह चलना चाहिए। उन्हें जल्दी तय कर जाना चाहिए या कुछ वक़्त लेकर आहिस्ता-आहिस्ता इधर-उधर की चीज़ों का सहारा लेकर तय करना चाहिए। मोमिन के नंगे पांव के नीचे आने वाले शबाब की गोल गोल चिकनी बट्टियां फिसल रही थीं। वो अपना तवाज़ुन बरक़रार नहीं रख सकता था।
वो बेहद मुज़्तरिब था। इसी इज़्तिराब के बाइस कई बार काम करते करते चौंक कर वो ग़ैर इरादी तौर पर किसी खूंटी को दोनों हाथों से पकड़ लेता और उसके साथ लटक जाता। फिर उसके दिल में ख़्वाहिश पैदा होती कि टांगों से पकड़ कर उसे कोई, इतना खींचे कि वो एक महीन तार बन जाये। ये सब बातें उसके दिमाग़ के किसी ऐसे गोशे में पैदा होती थीं कि वो ठीक तौर पर उनका मतलब नहीं समझ सकता था।
ग़ैर शुऊरी तौर पर वो चाहता था कि कुछ हो... क्या हो?... बस कुछ हो। मेज़ पर करीने से चुनी हुई प्लेटें एक दम उछलना शुरू कर दें। केतली पर रखा हुआ ढकना पानी के एक ही उबाल से ऊपर को उड़ जाये। नल की जसती नाली पर दबाव डाले तो वो दुहरी हो जाये और उसमें से पानी का एक फ़व्वारा सा फूट निकले।
उसे एक ऐसी ज़बरदस्त अंगड़ाई आए कि उसके सारे जोड़ अलाहिदा अलाहिदा हो जाएं और एक ढीलापन पैदा हो जाये... कोई ऐसी बात वक़ूअ पज़ीर हो जो उसने पहले कभी न देखी हो।
मोमिन बहुत बेक़रार था।
रज़िया नई फ़िल्मी तरज़ें सीखने में मशग़ूल थी और शकीला काग़ज़ों पर ब्लाउज़ों के नमूने उतार रही थी और जब उसने ये काम ख़त्म कर लिया तो वो नमूना जो उनमें सब से अच्छा था, सामने रख कर अपने लिए ऊदी साटन का ब्लाउज़ बनाना शुरू किया। अब रज़िया को भी अपना बाजा और फ़िल्मी गानों की कापी छोड़कर उसकी तरफ़ मुतवज्जा होना पड़ा।
शकीला हर काम बड़े एहतिमाम और चाव से करती थी। जब सीने-पिरोने बैठती तो उसकी नशिस्त बड़ी पुर इत्मिनान होती थी। अपनी छोटी बहन रज़िया की तरह वो अफ़रातफ़री पसंद नहीं करती थी। एक एक टांका सोच समझ कर बड़े इत्मिनान से लगाती थी ताकि ग़लती का इमकान न रहे। पैमाइश भी उसकी बहुत सही होती थी। इसलिए कि वो पहले काग़ज़ काट कर फिर कपड़ा काटती थी। यूं वक़्त ज़्यादा सर्फ़ होता था, मगर चीज़ बिल्कुल फ़िट तैयार होती थी।
शकीला भरे-भरे जिस्म की सेहतमंद लड़की थी। उसके हाथ बहुत गुदगुदे थे, गोश्त भरी मख़्रूती उंगलियों के आख़िर में हर जोड़ पर एक नन्हा गढ़ा था। जब वो मशीन चलाती थी ये नन्हे-नन्हे गढ़े हाथ की हरकत से कभी कभी ग़ायब भी हो जाते थे।
शकीला मशीन भी बड़े इत्मिनान से चलाती थी। आहिस्ता आहिस्ता उसकी दो या तीन उंगलियां बड़ी रानाई के साथ मशीन की हथि को घुमाती थी, उसकी कलाई में एक हल्का सा ख़म पैदा हो जाता था। गर्दन ज़रा उस तरफ़ को झुक जाती थी और बालों की एक लट जिसे शायद अपने लिए कोई मुस्तक़िल जगह नहीं मिलती थी नीचे फिसल आती थी। शकीला अपने काम में इस क़दर मुनहमिक रहती कि उसे हटाने या जमाने की कोशिश नहीं करती थी।
जब शकीला ऊदी साटन सामने फैला कर अपने माप का ब्लाउज़ तराशने लगी तो उसे टेप की ज़रूरत महसूस हुई, क्योंकि उनका अपना टेप घिस घिसा कर अब बिल्कुल टुकड़े टुकड़े हो गया था। लोहे का ग़ज़ मौजूद था। मगर उससे कमर और सीने की पैमाइश कैसे हो सकती है। उसके अपने कई ब्लाउज़ मौजूद थे मगर अब चूँकि वो पहले से कुछ मोटी हो गई थी इसलिए सारी पैमाइशें दुबारा करना चाहती थी।
क़मीज़ उतार कर उसने मोमिन को आवाज़ दी। जब वो आया तो उससे कहा, “जाओ मोमिन दौड़ कर छः नंबर से कपड़े का ग़ज़ ले आओ। कहना शकीला बीबी मांगती हैं।”
मोमिन की निगाहें शकीला की सफ़ेद बनियान के साथ टकराईं। वो कई बार शकीला बीबी को ऐसी बनियानों में देख चुका था मगर आज उसे एक क़िस्म की झिजक महसूस हुई। उसने अपनी निगाहों का रुख़ दूसरी तरफ़ फेर लिया और घबराहट में कहा, “कैसा गज़ बीबी जी।”
शकीला ने जवाब दिया, “कपड़े का ग़ज़... एक गज़ तो ये तुम्हारे सामने पड़ा है, ये लोहे का है। एक दूसरा गज़ भी होता है जो कपड़े का बना होता है। जाओ छः नंबर में जाओ और दौड़ के उनसे ये गज़ ले आओ। कहना शकीला बीबी मांगती हैं।”
छः नंबर का फ़्लैट बिल्कुल क़रीब था। मोमिन फ़ौरन ही कपड़े का ग़ज़ लेकर आगया। शकीला ने ये गज़ उसके हाथ से लिया और कहा, “यहीं ठहर जाओ। उसे अभी वापस ले जाना।” फिर वो अपनी बहन रज़िया से मुख़ातिब हुई, “इन लोगों की कोई चीज़ ज़्यादा देर अपने पास रख ली जाये तो वो बुढ़िया तक़ाज़े कर करके परेशान कर देती है... इधर आओ और ये गज़ लो और यहां से मेरा नाप लो।”
रज़िया ने शकीला की कमर और सीने का नाप लेना शुरू किया तो उनके दरमियान कई बातें हुई। मोमिन दरवाज़े की दहलीज़ में खड़ा तकलीफ़देह ख़ामोशी से ये बातें सुनता रहा।
“रज़िया तुम गज़ को खींच कर नाप क्यों नहीं लेतीं... पिछली दफ़ा भी यही हुआ। तुमने नाप लिया और मेरे ब्लाउज़ का सत्यानास हो गया। ऊपर के हिस्से पर अगर कपड़ा फिट न आए तो इधर उधर बग़लों में झोल पड़ जाते हैं।”
“कहाँ का लूं, कहाँ का न लूं। तुम तो अजब मख़मसे में डाल देती हो। यहां का नाप लेना शुरू किया था तो तुमने कहा ज़रा और नीचे कर लो... ज़रा छोटा बड़ा हो गया तो कौन सी आफ़त आ जाएगी।”
“भई वाह... चीज़ के फ़िट होने में तो सारी ख़ूबसूरती है। सुरय्या को देखो, कैसे फ़िट कपड़े पहनती है। मजाल है जो कहीं शिकन पड़े, कितने ख़ूबसूरत मालूम होते हैं ऐसे कपड़े... लो अब तुम नाप को...”
ये कह कर शकीला ने सांस के ज़रिये से अपना सीना फुलाना शुरू किया। जब अच्छी तरह फूल गया तो सांस रोक कर उसने घुटी घुटी आवाज़ में कहा, “लो अब जल्दी करो।”
जब शकीला ने सीने की हवा ख़ारिज की तो मोमिन को ऐसा महसूस हुआ, उसके अंदर के कई गुब्बारे फट गए हैं। उसने घबरा कर कहा, “गज़ लाइए बीबी जी... मैं दे आऊं।”
शकीला ने उसे झिड़क दिया, “ज़रा ठहर जाओ।”
ये कहते हुए कपड़े का ग़ज़ उसके नंगे बाज़ू से लिपट गया। जब शकीला ने उसे उतारने की कोशिश की तो मोमिन को सफ़ेद बग़ल में काले काले बालों का एक गुच्छा नज़र आया। मोमिन की अपनी बग़लों में भी ऐसे ही बाल उग रहे थे। मगर ये गुच्छा उसे बहुत भला मालूम हुआ।
एक सनसनी सी उसके सारे बदन में दौड़ गई। एक अजीब-ओ-ग़रीब ख़्वाहिश उसके दिल में पैदा हुई कि काले काले बाल उसकी मूंछें बन जाएं... बचपन में वो भुट्टों के काले और सुनहरे बाल निकाल कर अपनी मूंछें बनाया करता था। उनको अपने बालाई होंट पर जमाते वक़्त जो सरसराहट उसे महसूस हुआ करती थी, उसी क़िस्म की सरसराहट इस ख़्वाहिश ने उसके बालाई होंट और नाक में पैदा कर दी।
शकीला का बाज़ू अब नीचे झुक गया था और उसकी बग़ल छुप गई थी। मगर मोमिन अब भी काले काले बालों का वो गुच्छा देख रहा था। उसके तसव्वुर में शकीला का बाज़ू देर तक वैसे ही उठा रहा और बग़ल में उसके स्याह बाल झांकते रहे।
थोड़ी देर के बाद शकीला ने मोमिन को गज़ दे दिया और कहा, “जाओ, उसे वापस दे आओ। कहना बहुत बहुत शुक्रिया अदा किया है।”
मोमिन गज़ वापस दे कर बाहर सहन में बैठ गया। उसके दिल-ओ-दिमाग़ में धुँदले धुँदले से ख़याल पैदा हो रहे थे। देर तक वो उनका मतलब समझने की कोशिश करता रहा। जब कुछ समझ में न आया तो उसने ग़ैर इरादी तौर पर अपना छोटा सा ट्रंक खोला जिसमें उसने ईद के लिए नए कपड़े बनवा कर रखे थे।
जब ट्रंक का ढकना खुला और नए लट्ठे की बू उसकी नाक तक पहुंची तो उसके दिल में ख़्वाहिश पैदा हुई कि नहा-धो कर और ये नए कपड़े पहन कर वो सीधा शकीला बीबी के पास जाये और उसे सलाम करे... उसकी लट्ठे की शलवार किस तरह खड़ खड़ करेगी और उसकी रूमी टोपी...
रूमी टोपी का ख़याल आते ही मोमिन की निगाहों के सामने उसका फुंदना आगया और फुंदना फ़ौरन ही उन काले काले बालों के गुच्छे में तबदील हो गया, जो उसने शकीला की बग़ल में देखा था।
उसने कपड़ों के नीचे से अपनी नई रूमी टोपी निकाली और उसके नर्म और लचकीले फुंदने पर हाथ फेरना शुरू ही किया था कि अंदर से शकीला बीबी की आवाज़ आई, “मोमिन।”
मोमिन ने टोपी ट्रंक में रखी, ढकना बंद किया और अन्दर चला गया। जहां शकीला नमूने के मुताबिक़ ऊदी साटन के कई टुकड़े काट चुकी थी।
उन चमकीले और फिसल फिसल जाने वाले टुकड़ों को एक जगह रख कर वो मोमिन की तरफ़ मुतवज्जा हुई, “मैंने तुम्हें इतनी आवाज़ें दीं। सो गए थे क्या?”
मोमिन की ज़बान में लुक़्नत पैदा हो गई, “नहीं बीबी जी।”
“तो क्या कर रहे थे?”
“कुछ... कुछ भी नहीं?”
“कुछ तो ज़रूर करते होगे,” शकीला ये सवाल किए जा रही थी। मगर उसका ध्यान असल में ब्लाउज़ की तरफ़ था जिसे अब उसे कच्चा करना था।
मोमिन ने खिसियानी हंसी के साथ जवाब दिया, “ट्रंक खोल कर अपने नए कपड़े देख रहा था।”
शकीला खिलखिला कर हंसी। रज़िया ने भी उसका साथ दिया।
शकीला को हंसते देख कर मोमिन को एक अजीब सी तस्कीन हुई और उस तस्कीन ने उसके दिल में ये ख़्वाहिश पैदा की कि वो कोई ऐसी मज़हकाख़ेज़ तौर पर अहमक़ाना हरकत करे जिससे शकीला को और ज़्यादा हँसने का मौक़ा मिले। चुनांचे लड़कियों की तरह झेंप कर और लहजे में शर्माहट पैदा करके उसने कहा, “बड़ी बीबी जी से पैसे लेकर मैं रेशमी रूमाल भी लाऊँगा।”
शकीला ने हंसते हुए उससे पूछा, “क्या करोगे उस रूमाल को?”
मोमिन ने झेंप कर जवाब दिया, “गले में बांध लूंगा बीबी जी... बड़ा अच्छा मालूम होगा।”
ये सुन कर शकीला और रज़िया दोनों देर तक हंसती रहीं।
“गले में बांधोगे तो याद रखना मैं उसी से फांसी दे दूंगी तुम्हें।” ये कह कर शकीला ने अपनी हंसी दबाने की कोशिश की और रज़िया से कहा, “कम्बख़्त ने मुझे काम ही भुला दिया। रज़िया मैंने इसे क्यों बुलाया था?”
रज़िया ने जवाब न दिया और वो नई फ़िल्मी तर्ज़ गुनगुनाना शुरू की जो वो दो रोज़ से सीख रही थी। इस दौरान में शकीला को ख़ुद ही याद आ गया कि उसने मोमिन को क्यों बुलाया था, “देखो मोमिन। मैं तुम्हें ये बनियान उतार कर देती हूँ। दवाईयों की दूकान के पास जो एक दुकान नई खुली है ना, वही जहां तुम उस दिन मेरे साथ गए थे। वहां जाओ और पूछ के आओ कि ऐसी छः बिनयानों का वो क्या लेगा... कहना हम पूरी छः लेंगे। इसलिए कुछ रियायत ज़रूर करे... समझ लिया ना?”
मोमिन ने जवाब दिया, “जी हाँ।”
“अब तुम परे हट जाओ।”
मोमिन बाहर निकल कर दरवाज़े की ओट में हो गया। चंद लम्हात के बाद बनियान उसके क़दमों के पास आकर गिरा और अंदर से शकीला की आवाज़ आई, “कहना हम इसी क़िस्म, इसी डिज़ाइन की बिल्कुल यही चीज़ लेंगे। फ़र्क़ नहीं होना चाहिए।”
मोमिन ने “बहुत अच्छा” कह कर बनियान उठा लिया जो पसीने के बाइस कुछ कुछ गीला हो रहा था जैसे किसी ने भाप पर रख कर फ़ौरन ही हटा लिया हो। बदन की बू भी उसमें बसी हुई थी। मीठी मीठी गर्मी भी थी। ये तमाम चीज़ें उसको बहुत भली मालूम हुईं।
वो इस बनियान को जो बिल्ली के बच्चे की तरह मुलायम था, अपने हाथों में मसलता बाहर चला गया। जब भाव वाओ दरयाफ़्त करके बाज़ार से वापस आया तो शकीला ब्लाउज़ की सिलाई शुरू कर चुकी थी। उस स्याही माइल साटन के ब्लाउज़ की जो मोमिन की रूमी टोपी के फुंदने से कहीं ज़्यादा चमकीली और लचकदार थी।
ये ब्लाउज़ शायद ईद के लिए तैयार किया जा रहा था क्योंकि ईद अब बिल्कुल क़रीब आ गई थी। मोमिन को एक दिन में कई बार बुलाया गया। धागा लाने के लिए, इस्त्री निकालने के लिए। सूई टूटी तो नई सूई लाने के लिए।
शाम के क़रीब जब शकीला ने दूसरे रोज़ पर बाक़ी काम उठा दिया तो धागे के टुकड़े और ऊदी साटन की बेकार कतरनें उठाने के लिए भी उसे बुलाया गया। मोमिन ने अच्छी तरह जगह साफ़ कर दी।
बाक़ी सब चीज़ें उठा कर बाहर फेंक दीं। मगर ऊदी साटन की चमकदार कतरनें अपनी जेब में रख लीं... बिल्कुल बेमतलब क्योंकि उसे मालूम नहीं था कि वो उनको क्या करेगा?
दूसरे रोज़ उसने जेब से कतरनें निकालीं और अलग बैठ कर उनके धागे अलग करने शुरू कर दिए। देर तक वो इस खेल में मशग़ूल रहा। हत्ता कि धागे के छोटे-बड़े टुकड़ों का एक गुच्छा सा बन गया। उसको हाथ में लेकर वो दबाता रहा, मसलता रहा... लेकिन उसके तसव्वुर में शकीला की वही बग़ल थी जिसमें उसने काले-काले बालों का छोटा सा गुछा देखा था।
उस दिन भी उसे शकीला ने उसे कई बार बुलाया... काली साटन के ब्लाउज़ की हर शक्ल उसकी निगाहों के सामने आती रही। पहले जब उसे कच्चा किया गया था तो उस पर सफ़ेद धागे के बड़े बड़े टाँके जा-ब-जा फैले हुए थे। फिर उस पर इस्त्री की गई। जिससे सब शिकनें दूर हो गईं और चमक भी दो बाला हो गई।
उसके बाद कच्ची हालत ही में शकीला ने उसे पहना, रज़िया को दिखाया। दूसरे कमरे में सिंघार मेज़ के पास जा कर आईने में ख़ुद उसको हर पहलू से अच्छी तरह देखा। जब पूरा इत्मिनान हो गया तो उसे उतारा, जहां-जहां तंग या खुला था, वहां निशान बनाए और उसकी सारी खामियां दूर कीं। एक बार फिर पहन कर देखा। जब बिल्कुल फिट हो गया तो पक्की सिलाई शुरू की।
उधर ऊदी साटन का ये ब्लाउज़ सिया जा रहा था। उधर मोमिन के दिमाग़ में अजीब-ओ-ग़रीब ख़यालों के जैसे टाँके से उधड़ रहे थे... जब उसे कमरे में बुलाया जाता और उसकी निगाहें चमकीली साटन के ब्लाउज़ पर पड़तीं तो उसका जी चाहता कि वो हाथ से छू कर उसे देखे। सिर्फ़ छू कर ही नहीं देखे... बल्कि उसकी मुलायम और रोएँदार सतह पर देर तक हाथ फेरता रहे... अपने खुरदरे हाथ।
उसने उन साटन के टुकड़ों से उसकी मुलायमी का अंदाज़ा कर लिया था। धागे जो उसने इन टुकड़ों से निकाले थे और भी ज़्यादा मुलायम हो गए थे। जब उसने उनका गुच्छा बनाया था तो दबाते वक़्त उसे मालूम हुआ कि उनमें रबड़ सी लचक भी है।
वो जब अंदर आकर ब्लाउज़ को देखता उसका ख़याल फ़ौरन उन बालों की तरफ़ दौड़ जाता जो उसने शकीला की बग़ल में देखे थे। काले काले बाल मोमिन सोचता था, क्या वो भी इस साटन ही की तरह मुलायम होंगे।
ब्लाउज़ बिलआख़िर तैयार हो गया... मोमिन कमरे के फ़र्श पर गीला कपड़ा फेर रहा था कि शकीला अंदर आई। क़मीज़ उतार कर उसने पलंग पर रखी। उसके नीचे उसी क़िस्म का सफ़ेद बनियान था जिसका नमूना लेकर मोमिन भाव दरयाफ़्त करने गया था... उसके ऊपर शकीला ने अपने हाथ का सिला हुआ ब्लाउज़ पहना। सामने के हुक लगाए और आईने के सामने खड़ी हो गई।मोमिन ने फ़र्श साफ़ करते करते आईने की तरफ़ देखा।
ब्लाउज़ में अब जान सी पड़ गई थी... एक दो जगह पर वो इस क़दर चमकता था कि मालूम होता था साटन का रंग सफ़ेद हो गया है... शकीला की पीठ मोमिन की तरफ़ थी जिस पर रीढ़ की हड्डी की लंबी झुर्री। ब्लाउज़ फ़िट होने के बाइस अपनी पूरी गहराई के साथ नुमायां थी, मोमिन से न रहा गया। चुनांचे उसने कहा, “बीबी जी। आपने तो दर्ज़ियों को भी मात कर दिया!”
शकीला अपनी तारीफ़ सुन कर ख़ुश हुई। मगर वो रज़िया की राय तलब करने के लिए बेक़रार थी। इसलिए वो सिर्फ़ अच्छा सिला है न? कह कर बाहर दौड़ गई... मोमिन आईने की तरफ़ देखता रह गया जिसमें ब्लाउज़ का स्याह और चमकीला अक्स देर तक मौजूद रहा।
रात को जब वो फिर उस कमरे में सुराही रखने के लिए आया तो उसने खूंटी पर लकड़ी के हैंगर में उस ब्लाउज़ को देखा। कमरे में कोई मौजूद नहीं था। चुनांचे आगे बढ़ कर पहले उसने ग़ौर से देखा। फिर डरते डरते उस पर हाथ फेरा। ऐसा करते हुए उसे ये महसूस हुआ कि कोई उसके जिस्म के मुलायम रोएँ पर हौले-हौले बिल्कुल हवाई लम्स की तरह हाथ फेर रहा है।
रात को जब वो सोया तो उसने कई ऊट-पटांग ख़्वाब देखे... डिप्टी साहब ने पत्थर के कोयलों का एक बड़ा ढेर उसे कूटने को कहा। जब उसने एक कोयला उठाया और उस पर हथौड़े की एक ज़र्ब लगाई तो वो नर्म-नर्म बालों का एक गुच्छा बन गया... ये काली खांड के महीन महीन तार थे जिन का गोला बना हुआ था... फिर ये गोले काले रंग के गुब्बारे बन कर हवा में उड़ना शुरू हुए... बहुत ऊपर जा कर ये फटने लगे।
फिर आंधी आ गई और मोमिन की रूमी टोपी का फुंदना कहीं ग़ायब हो गया... फुंदने की तलाश में वो निकला... देखी और अनदेखी जगहों में घूमता रहा... नए लट्ठे की बू भी कहीं से आना शुरू हुई। फिर न जाने क्या हुआ। एक काली साटन के ब्लाउज़ पर उसका हाथ पड़ा... कुछ देर वो इस धड़कती हुई चीज़ पर हाथ फेरता रहा। फिर दफ़अतन हड़बड़ा के उठ बैठा।
थोड़ी देर तक वो कुछ न समझ सका कि क्या हो गया है। इसके बाद उसे ख़ौफ़, तअज्जुब और एक अनोखी टीस का एहसास हुआ। उसकी हालत उस वक़्त अजीब-ओ-ग़रीब थी... पहले उसे तकलीफ़देह हरारत महसूस हुई थी मगर चंद लमहात के बाद एक ठंडी सी लहर उसके जिस्म पर रेंगने लगी।
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