ज़ियाउल मुस्तफ़ा तुर्क
ग़ज़ल 15
अशआर 17
थोड़ी सी बारिश होती है
कितनी जल्दी भर जाता हूँ
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जब बच्चों को देखता हूँ तो सोचता हूँ
मालिक इन फूलों की उम्र दराज़ करे
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आवाज़ों में बहते बहते
ख़ामोशी से मर जाता हूँ
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तू किसी सुब्ह सी आँगन में उतर आती है
मैं किसी धूप सा दालान में आ जाता हूँ
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तुझ को छुआ तो देर तक ख़ुद को ही ढूँडता रहा
इतनी सी देर में भला तुझ से कहाँ मिला हूँ मैं
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