ज़हीर ग़ाज़ीपुरी
ग़ज़ल 13
नज़्म 4
अशआर 5
काग़ज़ की नाव भी है खिलौने भी हैं बहुत
बचपन से फिर भी हाथ मिलाना मुहाल है
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ता-उम्र अपनी फ़िक्र ओ रियाज़त के बावजूद
ख़ुद को किसी सज़ा से बचाना मुहाल है
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उतरे तो कई बार सहीफ़े मिरे घर में
मिलते हैं मगर सिर्फ़ जरीदे मिरे घर में
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रेज़ा रेज़ा अपना पैकर इक नई तरतीब में
कैनवस पर देख कर हैरान हो जाना पड़ा
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