वामिक़ जौनपुरी
ग़ज़ल 35
नज़्म 13
अशआर 39
मोहब्बत की सज़ा तर्क-ए-मोहब्बत
मोहब्बत का यही इनआम भी है
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इक हल्क़ा-ए-अहबाब है तन्हाई भी उस की
इक हम हैं कि हर बज़्म में तन्हा नज़र आए
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तेरी क़िस्मत ही में ज़ाहिद मय नहीं
शुक्र तो मजबूरियों का नाम है
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इस दौर की तख़्लीक़ भी क्या शीशागरी है
हर आईने में आदमी उल्टा नज़र आए
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सरकशी ख़ुद-कशी पे ख़त्म हुई
एक रस्सी थी जल गई शायद
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