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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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तनवीर अहमद अल्वी

1925 - 2013

तनवीर अहमद अल्वी

ग़ज़ल 17

अशआर 7

मिल भी जाता जो कहीं आब-ए-बक़ा क्या करते

ज़िंदगी ख़ुद भी थी जीने की सज़ा क्या करते

लम्हा-दर-लम्हा गुज़रता ही चला जाता है

वक़्त ख़ुशबू है बिखरता ही चला जाता है

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माँगने को तो यहाँ अपने सिवा कुछ भी था

लब पे आता भी अगर हर्फ़-ए-दुआ क्या करते

रिवायतों को सलीबों से कर दिया आज़ाद

यही रसन तो सर-ए-दार तोड़ दी मैं ने

पलक झपकने में कुछ ख़्वाब टूट जाते हैं

जो बुत-शिकन है वही लम्हा बुत-तराश भी था

पुस्तकें 64

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