शुजा ख़ावर
ग़ज़ल 44
अशआर 36
या तो जो ना-फ़हम हैं वो बोलते हैं इन दिनों
या जिन्हें ख़ामोश रहने की सज़ा मालूम है
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हज़ार रंग में मुमकिन है दर्द का इज़हार
तिरे फ़िराक़ में मरना ही क्या ज़रूरी है
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घर में बेचैनी हो तो अगले सफ़र की सोचना
फिर सफ़र नाकाम हो जाए तो घर की सोचना
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