शोएब निज़ाम के शेर
ख़ुद से फ़रार इतना आसान भी नहीं है
साए करेंगे पीछा कोई कहीं से निकले
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तुझे शनाख़्त नहीं है मिरे लहू की क्या
मैं रोज़ सुब्ह के अख़बार से निकलता हूँ
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मियाँ बाज़ार को शर्मिंदा करना क्या ज़रूरी है
कहीं इस दौर में तहज़ीब के ज़ेवर बदलते हैं
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इतना नूर कहाँ से लाऊँ तारीकी के इस जंगल में
दो जुगनू ही पास थे अपने जिन को सितारा कर रक्खा है
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तुम्हारे ख़्वाब लौटाने पे शर्मिंदा तो हैं लेकिन
कहाँ तक इतने ख़्वाबों की निगहबानी करेंगे हम
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मिरी तलाश में उस पार लोग जाते हैं
मगर मैं डूब के इस पार से निकलता हूँ
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ये एक साया ग़नीमत है रोक लो वर्ना
ये रौशनी के बदन से लिपटने वाला है
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क्या ख़त्म न होगी कभी सहरा की हुकूमत
रस्ते में कहीं तो दर-ओ-दीवार भी आए
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किधर डुबो के कहाँ पर उभारता है तू
ये कैसा रंग है दरिया तिरी रवानी का
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मिरी तलाश में वो भी ज़रूर आएगा
सो मैं भी चश्म-ए-ख़रीदार से निकलता हूँ
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