aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
इस पर्दे में ये हुस्न का आलम है इलाही
बे-पर्दा वो हो जाएँ तो क्या जानिए क्या हो
तेरी आँखें जिसे चाहें उसे अपना कर लें
काश ऐसा ही सिखा दें कोई अफ़्सूँ मुझ को
अल्लाह अल्लाह ख़ुसूसिय्यत-ए-ज़ात-ए-हसनैन
सारी उम्मत के हैं पोतों से नवासे बढ़ कर
दिल में मिरे जिगर में मिरे आँख में मिरी
हर जा है दोस्त और नहीं मिलती है जा-ए-दोस्त
तमाम चारागरों से तो मिल चुका है जवाब
तुम्हें भी दर्द-ए-मोहब्बत सुनाए देते हैं
दीवान-ए-शरफ़ मुजद्दिदी
1937
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