साक़ी फ़ारुक़ी
ग़ज़ल 60
नज़्म 42
अशआर 57
मुद्दत हुई इक शख़्स ने दिल तोड़ दिया था
इस वास्ते अपनों से मोहब्बत नहीं करते
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ये क्या तिलिस्म है क्यूँ रात भर सिसकता हूँ
वो कौन है जो दियों में जला रहा है मुझे
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इक याद की मौजूदगी सह भी नहीं सकते
ये बात किसी और से कह भी नहीं सकते
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अब घर भी नहीं घर की तमन्ना भी नहीं है
मुद्दत हुई सोचा था कि घर जाएँगे इक दिन
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पुस्तकें 17
चित्र शायरी 5
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