सफ़ी औरंगाबादी
ग़ज़ल 40
अशआर 3
हमें माशूक़ को अपना बनाना तक नहीं आता
बनाने वाले आईना बना लेते हैं पत्थर से
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ख़ूबसूरत है वही जिस पे ज़माना रीझे
यूँ तो हर एक को है अपनी ही सूरत अच्छी
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मह-जबीं ईद में अंगुश्त-नुमा क्यूँ न रहें
ईद का चाँद ही अंगुश्त-नुमा होता है
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