सईद क़ैस
ग़ज़ल 18
नज़्म 3
अशआर 9
चाँद मशरिक़ से निकलता नहीं देखा मैं ने
तुझ को देखा है तो तुझ सा नहीं देखा मैं ने
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मैं भी अपनी ज़ात में आबाद हूँ
मेरे अंदर भी क़बीले हैं बहुत
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ये वाक़िआ' मिरी आँखों के सामने का है
शराब नाच रही थी गिलास बैठे रहे
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तुम अपने दरिया का रोना रोने आ जाते हो
हम तो अपने सात समुंदर पीछे छोड़ आए हैं
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तुम से मिलने का बहाना तक नहीं
और बिछड़ जाने के हीले हैं बहुत
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