रविश सिद्दीक़ी
ग़ज़ल 45
नज़्म 3
अशआर 18
हज़ार रुख़ तिरे मिलने के हैं न मिलने में
किसे फ़िराक़ कहूँ और किसे विसाल कहूँ
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उर्दू जिसे कहते हैं तहज़ीब का चश्मा है
वो शख़्स मोहज़्ज़ब है जिस को ये ज़बाँ आई
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वो शख़्स अपनी जगह है मुरक़्क़ा-ए-तहज़ीब
ये और बात है कि क़ातिल उसी का नाम भी है
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तल्ख़ी-ए-ज़िंदगी अरे तौबा
ज़हर में ज़हर का मज़ा न मिला
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