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निसार इटावी

1914 - 1974 | इटावा, भारत

निसार इटावी

ग़ज़ल 2

 

अशआर 26

यक़ीनन रहबर-ए-मंज़िल कहीं पर रास्ता भूला

वगर्ना क़ाफ़िले के क़ाफ़िले गुम हो नहीं सकते

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दोस्त साथ दर-ए-माज़ी से माँग लाएँ

वो अपनी ज़िंदगी कि जवाँ भी हसीं भी थी

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कितने पुर-हौल अँधेरों से गुज़र कर दोस्त

हम तिरे हुस्न की रख़्शंदा सहर तक पहुँचे

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सुब्ह बिछड़ कर शाम का व'अदा शाम का होना सहल नहीं

उन की तमन्ना फिर कर लेना सुब्ह को पहले शाम करो

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ये भी हुआ कि दर तिरा कर सके तलाश

ये भी हुआ कि हम तिरे दर से गुज़र गए

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